वर्तमान इजरायल-फिलीस्तीनी जंग को हिन्दू फासीवादियों ने यहूदी बनाम मुसलमान का रूप देते हुए सारे मुसलमानों को एक खास रंग में रंगने कोशिश की और प्रकारांतर से हिन्दुओं को उनसे सावधान रहने का आह्वान किया। इस जंग के शुरूआती दो-तीन हफ्तों में इसमें पूंजीवादी प्रचारतंत्र की विशेष रुचि इसी अभियान के तहत थी। वैसे यूरोप-अमेरिका के इसाई फासीवादियों ने भी कुछ ऐसा ही करने का प्रयास किया।
लेकिन आज की दुनिया पर बस एक नजर डालते ही इस प्रचार की सच्चाई सामने आ जाती है। यह निरा दुष्प्रचार साबित होता है- कुटिल मंशा से चलाया जा रहा दुष्प्रचार।
इजरायल-फिलीस्तीन जंग से करीब डेढ़ साल पहले रूस-यूक्रेन की जंग शुरू हुई थी। इसमें युद्धरत दोनों देश एक ही धर्म के मानने वालों के देश थे- ग्रीक आर्थोडाक्स चर्च। यानि यहां एक ही धर्म के दो संप्रदायों का भी फर्क नहीं था। यूक्रेन के पीछे खड़े थे वे देश जहां ज्यादातर इसाई धर्म के दो अन्य सम्प्रदायों के मानने वाले लोग रहते हैं- कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट। रूस का समर्थन करने वाले देशों में इस्लाम, बौद्ध तथा इसाई सभी थे।
आगे चलें। आज करीब एक दशक से लीबिया, यमन और सीरिया आंतरिक युद्ध से तार-तार हैं, खासकर लीबिया और यमन। इनमें युद्धरत सारे पक्ष मुसलमान हैं। कोई कह सकता है कि यमन में बाहर से एक ओर शिया इरान तथा दूसरी ओर से सुन्नी सऊदी अरब लगे हुए हैं पर लीबिया और सीरिया के बारे में तो यह भी नहीं कहा जा सकता।
तीसरा उदाहरण लें। आज कुर्द लोग चार देशों में विभाजित हैं- तुर्की, सीरिया, इरान और इराक। कुर्द स्वयं मुसलमान हैं और ये चारों देश भी मुस्लिम बहुल। तुर्की और सीरिया सुन्नी बहुल हैं तो इरान और इराक शिया बहुल।
उपरोक्त दोनों उदाहरणों को हिन्दू फासीवादी यह कहते हुए लपक लेंगे कि ये दिखाते हैं कि मुसलमान आपस में भी लड़ते हैं और बाकी दुनिया से भी। वे शांति के लिए खतरा हैं। तो फिर उत्तरी कोरिया और दक्षिण कोरिया के टकराव को कैसे लिया जाये जो पिछले पचहत्तर साल से औपचारिक तौर पर युद्ध की अवस्था में हैं तथा बस युद्ध विराम चल रहा है। दोनों भाषा-बोली, संस्कृति, धर्म सभी में एक हैं। उत्तरी कोरिया का समर्थक रूस है जहां ग्रीक आर्थोडाक्स इसाई बसते हैं तथा दक्षिणी कोरिया का समर्थक सं.रा.अमेरिका है जहां ज्यादातर प्रोटेस्टेन्ट इसाई बसते हैं। इसके बरक्स उत्तरी कोरिया का समर्थन करने वाले चीन में भी बौद्ध हैं और दक्षिणी कोरिया का समर्थन करने वाले जापान में भी।
अब अपने पड़ोस को देखें। राजशाही वाले नेपाल को हिन्दू फासीवादी दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र बताते थे। वे वहां राजशाही के उत्साही समर्थक थे। इस समय इस हिन्दू बहुल देश का हिन्दू बहुल भारत से क्या संबंध है? पहले की तुलना में यह आज सौहार्दपूर्ण नहीं है। भारतीयों की दादागिरी से तंग आकर नेपाल ने चीन की ओर हाथ बढ़ाये और आज वह दोनों का फायदा उठा रहा है। भारत अब वहां अपनी धौंस पट्टी नहीं चला पाता।
पड़ोस का दूसरा उदाहरण यानी पाकिस्तान तो इस बात का सबसे जीता-जागता उदाहरण है कि धर्म राष्ट्रीयता का आधार नहीं बन सकता। धर्म के आधार पर बना पाकिस्तान बाद में दो हिस्सों में टूट गया और बाकी बचा पाकिस्तान आज भी सिंधी, बलूची, पंजाबी राष्ट्रीयताओं के टकराव में उलझा है।
आधुनिक दुनिया में यदि धर्म राष्ट्रीयता का आधार होता तो सारे इसाई, मुसलमान, बौद्ध इत्यादि एक ही राष्ट्र में रह रहे होते। पर ऐसा नहीं है। यह इसीलिए ऐसा नहीं है कि राष्ट्र का आधार धर्म नहीं होता। राष्ट्र का आधार भाषा, संस्कृति और अर्थव्यवस्था होती है। इसीलिए एक ही धर्म के मानने वाले लोग कई राष्ट्रों में बंट जाते हैं। नेपाल के हिन्दू कभी इस कारण नेपाल का भारत में विलय नहीं करना चाहेंगे कि भारत एक हिन्दू बहुल बड़ा देश है।
इसीलिए हिन्दू फासीवादियों द्वारा इजरायल-फिलिस्तीन जंग को राष्ट्रीयता की जंग के बदले धार्मिक जंग के रूप में पेश करना परले दरजे की धूर्तता है। यह वही कुटिलता है जो भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की मांग करती है, इस आधार पर कि यहां ज्यादातर लोग हिन्दू रहते हैं।
राष्ट्र और उसकी अवधारणा दोनों आधुनिक जमाने की चीज हैं, पूंजीवादी जनतंत्र की तरह। दोनों ही इस सोच पर टिके हैं कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और उसे राजनीति से बाहर रखा जाना चाहिए। हिन्दू फासीवादियों द्वारा धर्म को राजनीति में घसीटने का प्रयास यह दिखाता है कि वे घोर पुरातनपंथी और दकियानूसी हैं। वे आधुनिक समाज के दुश्मन हैं।
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को