पंतनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूरों का जीवन अधर में तथा भविष्य अंधेरे में है। मानवता का दिखावा करने वाले अनेकों अधिकारी पंतनगर में हैं। ये सभी अधिकारी मानवता के नाम पर कलंक ही साबित हो रहे हैं। विश्वविद्यालय में लम्बे समय से ठेका प्रथा लागू है जो कि गैर कानूनी है यानि पंतनगर में लागू ही नहीं हो सकती थी। लेकिन अधिकारियों ने और विश्वविद्यालय की समस्त ट्रेड यूनियनों ने मिलकर अपने घृणित मंसूबे को फलित कर लिया जिसके कारण पंतनगर में ठेका मजदूर अधिकारियों के शोषण का अत्यधिक शिकार हो गया। 2003 के पूर्व से ही मजदूर यहां पर काम कर रहे हैं। यहां पर मजदूरों को 20 साल से भी ज्यादा समय काम करते हो गया है। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन सभी मजदूरों को एक ही पहलू में रखकर सिर्फ शोषण करो और मुनाफा बटोरो, इस नीति पर काम कर रहा है। विश्व विद्यालय प्रशासन ठेका मजदूरों को अपना कर्मचारी मानने से बिल्कुल इंकार कर देता है। किसी प्रकार की सुविधा ठेका मजदूरों को नहीं देता। आवास, अवकाश, बोनस, चिकित्सा, जैसी मूलभूत सुविधायें भी जोकि मानव जीवन के लिए अत्यधिक जरूरी हैं नहीं देता है। जिसके कारण मजदूर हर पल इस नौकरी में घुटन महसूस करता रहता है। बेकारी इतनी ज्यादा है कि पंतनगर विश्वविद्यालय में परियोजनायें अनेकों प्रकार की हैं। इन परियोजनाओं को विश्वविद्यालय के अधिकारी ही चलाते हैं। बेइंतहा रुपये पैसों का आवागमन होता रहता है। इस नौकरी को पाने के लिए इन अफसरों की पहले तो चाकरी करनी पड़ती है बाद में नौकरी मिलती है। पंतनगर विश्वविद्यालय के एक अधिकारी (एल डब्ल्यू ओ) द्वारा हर तीन महीने के लिए सेक्शन आवंटन होता है। यदि किसी भी मजदूर को पहले चाकरी और बाद में नौकरी से परहेज होता है। यदि वह इस आठ घंटे की नौकरी को 12 घंटे तक करने का विरोध करता है तो अधिकारी द्वारा मजदूर का सेक्शन कटवा कर आवंटन रद्द करा दिया जाता है जिसके कारण मजदूर सड़क पर आ जाता है। जबसे डा. मंगला राय कुलपति बनकर विश्व विद्यालय में आये हैं तब से यह प्रक्रिया चरम पर है। आये दिन मजदूरों को निकालने, बैठाने का काम तेजी से चल रहा है। शोषण होता है तो होने दो। यदि किसी भी मजदूर ने अपना मुंह खोला या इन कलंकियों की पोल खोली तो नौकरी खत्म करके एल.डब्ल्यू.ओ. के दफ्तर के चक्कर लगाने के लिए छोड़ दिया जाता है। महंगाई ने मजदूरों का हाल बेहाल कर रखा है। पंतनगर विश्व विद्यालय मजदूरों को मात्र चार से पांच हजार रुपये ही देता है। आय से ज्यादा व्यय होता है जिसके कारण मजदूर अपने परिवार के पालन पोषण में तंगी का सामना करता रहता है। बच्चों को पढ़ाना लिखाना, खाना पीना, कपड़ा, मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मजदूर एडी चोटी का जोर लगाता है लेकिन फिर भी यह सब पूरा करने में असमर्थ रह जाता है। कुछ भी ठीक नहीं हो पाता है। क्या करें, क्या न करें इसी विचार में उलझा रहता है। <br />
पंतनगर-किच्छा विधान सभा क्षेत्र के विधायक राजेश शुक्ला हैं। इन्होंने तो हद पार कर रखी है। अपने वोट बैंक को बनाने के लिए विश्वविद्यालय में हम मजदूरों के पैसों की बंदरबांट लगा रखी है। पंतनगर के कुलपति डा. मंगला राय के साथ मिलकर सरकार द्वारा मिल रहे विधायक निधि फंड को 5-5 मीटर खडन्जा हास्टल कालोनियों में निर्माण करके विधायक धन की बंदर बांट करने में लगे हुए हैं। एक मजदूर संगठन सदस्य साथी की माताजी को कैंसर हो गया। इलाज के लिए साथी के पास पैसों का अभाव था। ई.एस.आई. सुविधा भी पंतनगर में लागू नहीं है। मदद मांगने गये साथी को इन्हीं विधायक जी ने विधायक निधि से फंड देने से मना कर दिया था। ठेका मजदूर और कैंसर की लड़ाई शुरू हो गयी थी। डा. ने इलाज के लिए 2 लाख रुपये का खर्च बताया था। यह सुनकर साथी के होश उड़ गये थे लेकिन साथी ने हिम्मत नहीं हारी। इलाज के लिए ठेका मजदूर कल्याण समिति एवं इंकलाबी मजदूर केन्द्र द्वारा चंदा अभियान चलाया गया था जिसमें इंसाफ पसंद लोगों ने भरपूर समर्थन दिया। चंदा अभियान चलाया गया। इसी से साथी की माताजी का इलाज सुशीला तिवारी अस्पताल हल्द्वानी से चल रहा है। आज जरूरत है ऐसे ही संगठनों के सदस्य/कार्यकर्ता बनकर संगठनों को मजबूत बनाकर ठेका प्रथा एवं शोषण कारी व्यवस्था के खात्मे के लिए संघर्ष तेज करने की। <br />
<strong> एक ठेका मजदूर, पंतनगर</strong>
पंतनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूरों का शोषण
राष्ट्रीय
आलेख
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।