फिलिस्तीन का झंडा लहराने पर मुकदमा दर्ज

केंद्र में बहुमत की सरकार न बनने के बावजूद हिंदू फ़ासीवादियों के निरंकुश तेवर बरकरार हैं। ताजा मामला उत्तर प्रदेश के भदोई का है जहां कि दो मुस्लिम युवकों को इसलिये गिरफ्तार कर लिया गया कि उन्होंने एक धार्मिक जुलूस में फिलीस्तीन का झंडा लहराया था। दरअसल 7 जुलाई को मोहर्रम का चांद दिखने के बाद 8 जुलाई को भदोई के औराई थाना क्षेत्र में निकाले गये एक धार्मिक जुलूस के दौरान दो युवकों साहिल और मोहम्मद गोरख ने फिलीस्तीन का झंडा लहराया था और जिसके सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद भदोई पुलिस ने भारतीय न्याय संहिता की धारा 197 के तहत मुकदमा दर्ज करते हुये दोनों युवकों को गिरफ्तार कर लिया। गौरतलब है कि यह धारा राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने वाले आरोपों और कथनों से संबंधित है। पुलिस का कहना है कि इससे लोगों में नफरत और दुश्मनी की भावना पैदा हो सकती है।

अब भला फिलीस्तीन का झंडा लहराने से हमारी राष्ट्रीय एकता को क्या नुकसान पहुंच सकता है? वो भी तब जबकि भारत सरकार हमेशा ही स्वतंत्र और सम्प्रभु फिलीस्तीन की पक्षधर रही है और इसका समर्थन करती रही है। भारत सरकार की आज भी औपचारिक अवस्थिति यही है!

इसराइल, जो कि पश्चिम एशिया में अमेरिकी लठैत है, पिछले आठ-नौ महीने से हमास को ख़त्म करने के नाम पर निर्दोष फिलिस्तीनियों का भयंकर क़त्लेआम कर रहा है। इसराइली बम हमलों में अभी तक करीब चालीस हजार फिलीस्तीनी मारे जा चुके हैं और जिनमें दस हजार से अधिक तो बच्चे हैं! और यह आंकड़ा इससे भी ज्यादा हो सकता है। घर-स्कूल-अस्पताल, गजा में ऐसी कोई जगह नहीं बची है जहां कि हत्यारे इसराइली जियनवादी शासकों ने बम न बरसायें हो; रोटी के लिये लाइन में खड़े लोग हों या किसी शरणार्थी शिविर में सहमे बैठे भूखे औरतें-बच्चे सबकी सामूहिक हत्या पर ये पिशाच उतारु है।

ऐसे में अमेरिकी साम्राज्यवादियों और इसराइली विस्तारवादियों का पुरजोर विरोध करने और फिलीस्तीनी आवाम के साथ खड़े होने से ज्यादा मानवीय भला क्या हो सकता है? और फिलीस्तीन का झंडा लहराना फिलीस्तीनी आवाम के साथ खड़े होना ही तो है। ऐसा करने पर भला किसी पर क्यों मुकदमा दर्ज होना चाहिये?

आज फिलीस्तिनियों के इस क़त्लेआम का पूरी दुनिया में पुरजोर विरोध हो रहा है। पूरी दुनिया में इंसानियत को प्यार करने वाले लोग अमेरिकी और इसराइली शासकों पर थूक रहे हैं और उन्हें लानतें भेज रहे हैं, जिनमें अमेरिका और इसराइल के नागरिक भी शामिल हैं, और जिनका वहां की सरकार दमन भी कर रही है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र भी इसराइल को नरसंहार का अपराधी करार देने पर मजबूर हुआ है।

दरअसल भारत सरकार की औपचारिक अवस्थिति भले ही स्वतंत्र और सम्प्रभु फिलीस्तीनी राष्ट्र का समर्थन करने की हो लेकिन वास्तविक तौर पर स्थिति भिन्न है। 90 के दशक से ही भारत की विदेश नीति अमेरिका परस्त और इसीलिये इसराइली विस्तारवाद का विरोध न करने की होती चली गई है। पिछले 10 साल से केंद्र की सत्ता पर काबिज आर एस एस-भाजपा तो इसराइली जियनवादी शासकों की भांति ही फ़ासीवादी हैं। इसीलिये गजा में जारी फिलीस्तिनियों के क़त्लेआम पर ये न सिर्फ ये चुप हैं बल्कि सैन्य मदद के रूप में खुद इस क़त्लेआम में शामिल भी हैं। यही वजह है कि फिलीस्तीनी जनता के पक्ष में खड़े होने या फिलीस्तीन का झंडा लहराने पर यहां मुक़दमे दर्ज हो जा रहे हैं।

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।