श्रीलंका सरकार ने आम मेहनतकश जनता पर बढ़ाया टैक्स का भार

    श्रीलंका सरकार ने 7 सितम्बर को अंतर्देशीय राजस्व बिल संसद में पेश कर आम मेहनतकश जनता पर टैक्स का भार बढ़ा दिया है। पहले यह बिल 25 अगस्त को पेश किया जाना था लेकिन विपक्षी दलों की तरफ से इसके विरोध की संभावना को देखते हुए कुछ सुधारों के साथ इसे पेश किया गया, 1 अक्टूबर से यह कानून की शक्ल ले लेगा और 1 अप्रैल 2018 से यह लागू होगा। विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि उन्होंने जो सुझाव दिये थे उनके अनुसार अभी इसमें संशोधन नहीं किये गये हैं। <br />
    इस बिल के द्वारा सरकार प्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी कर रही है। पुराने बिल के अनुसार 50,000 रुपये से ज्यादा वाले को 4 प्रतिशत  टैक्स देना था और यह बढ़ते हुए 2.5 लाख आय वाले पर 24 प्रतिशत होना था। नये बिल के अनुसार पचास हजार की जगह 1 लाख सीमा कर दी गयी है। पेंशनर्स को 1,25,000 की आय पर टैक्स देना होगा। इसके अलावा जो पेंशन फण्ड हैं उनमें 20 लाख रुपये पर 5 से 10 प्रतिशत का टैक्स देना होगा। साथ ही नाटक, सिनेमा व साहित्य पर भी टैक्स लगा दिया गया है। इससे मजदूर, छोटे धंधों वाले, छोटे व्यापारियों पर टैक्स का भार बढ़ जायेगा।<br />
    वहीं दूसरी ओर बड़े उद्योग वालों को टैक्स में छूट दी गयी है। कृषि, पर्यटन, सूचना तकनीकी, शिक्षा और निर्यात करने वाले पूंजीपतियों पर 14 प्रतिशत का टैक्स लगाया गया है वहीं कारपोरेट टैक्स को 28 प्रतिशत कर दिया गया है। राज्य वित्त मंत्री ने उद्योगपतियों की बैठक में इस बात की शेखी बघारी कि एशिया में श्रीलंका में कारपोरेट टैक्स सबसे कम है। जबकि भारत में यह 30 प्रतिशत व बांग्लादेश में 35 प्रतिशत है। संसद में वित्तमंत्री मंगला समरवीरा ने बोलते हुए कहा कि 18 साल से ऊपर के सभी लोगों को टैक्स देना चाहिए। विक्रमरत्ने ने कहा कि सभी लोगों को टैक्स देना चाहिए और उतना देना चाहिए जितना वे दे सकते हैं ताकि सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, तकनीक, खोजों और विकास पर पैसा खर्च कर सके। ऐसा कहते हुए वे साफ झूठ बोल रहे थे। <br />
    दरअसल में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी एवं कारपोरेट टैक्स में कमी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का एजेण्डा है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जिन देशों को कर्ज देता है उनसे पूंजी के पक्ष में नीतियां बनवाता है। श्रीलंका को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 190 मिलियन डाॅलर कर्ज की तीसरी किस्त प्राप्त करनी है। इसके एवज में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष चाहता है कि श्रीलंका अपने बजट घाटे को जीडीपी के 3.5 प्रतिशत तक लाये और सरकारी खर्च (शिक्षा, स्वास्थ्य, सब्सिडी आदि पर) कम करे तथा सरकारी संस्थानों का निजीकरण करे। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष काफी समय से इस बात के लिए दबाव डालता रहा है कि श्रीलंका बिजली बोर्ड, पेट्रोलियम कारपोरेशन, बंदरगाह और पानी आपूर्ति विभाग का निजीकरण करे ताकि पूंजीपतियों को कमाने का मौका मिल सके। <br />
    श्रीलंका में विदेशों में काम कर रहे मजदूरों द्वारा भेजी जाने वाली आय व निर्यात श्रीलंका की आय का एक बड़ा हिस्सा है। लेकिन पिछले दिनों सऊदी अरब व कतर में युद्ध के तनाव ने विदेशों से आने वाली आय का हिस्सा 7.2 प्रतिशत तक गिरा दिया है वहीं निर्यात का हिस्सा 5.32 प्रतिशत गिर गया है। इस साल के पहले चार महीने में व्यापार घाटा 4.2 अरब डालर रहा है और अगर यही दर रही तो इसे इस साल के अंत तक 10 अरब डालर हो जाना है। यह स्थिति श्रीलंका के लिए मुश्किल है। <br />
    अब ऐसे हालात में सरकार का जनता पर टैक्स लगाना जायज हो सकता था लेकिन कारपोरेट टैक्स में कमी करना और फिर उद्योगपतियों की बैठक में इस बात की डींग हांकना तथा उद्योगपतियों को खुश करना सरकार की पक्षधरता को उजागर करता है कि सरकार दरअसल जनता पर टैक्स बढ़ाना चाहती है और पूंजीपतियों पर टैक्स में कमी करना चाहती है। वहीं दूसरी ओर सरकार जहां जनता के कल्याणकारी मद के खर्चों में कमी कर रही है तो सेना के खर्च में बढ़ोत्तरी कर रही है। साल 2018 के लिए सेना के बजट को बढ़ाकर 290 अरब डालर कर दिय गया है जो पहले 284 अरब डालर था। इस तरह 6 अरब डालर की बढ़ोत्तरी सेना के बजट में की गयी है। और हो भी क्यों न जब आम जनता के संघर्ष उठ खड़े होंगे तो सेना ही तो उनको कुचलेगी। 

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।