जी-20 शिखर सम्मेलन से भारत से लौटते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन वियतनाम गये। वैसे अमेरिकी राष्ट्रपति की किसी देश की यात्रा सामान्य बात होती है पर वियतनाम की उनकी यात्रा इस रोशनी में महत्वपूर्ण थी कि वियतनाम ही वह देश रहा है जहां अमेरिकी साम्राज्यवादी सारी ताकत-सारे हथियार झोंक कर भी शिकस्त झेलने को मजबूर हुए थे। वियतनाम के हर शहर में अमेरिका द्वारा ढायी तबाही के चिन्ह आज भी मौजूद हैं।
वियतनाम यात्रा का अमेरिकी सरगना का उद्देश्य बेहद स्पष्ट था पहला चीन विरोधी खेमे में वियतनाम को लाने का प्रयास व दूसरा अमेरिकी कम्पनियों के लिए ठेके दिलाना। दूसरे मामले में वियतनाम एयर ने 10 अरब डालर के जेट बोइंग कम्पनी से खरीदने की पुष्टि की। अमेरिकी सेमी कण्डक्टर कम्पनियों को वियतनाम में उत्पादक इकाई लगाने की छूट हासिल हुई। इसके जरिये अमेरिकी सेना को चिप की सप्लाई करने वाले नये स्रोत हासिल हो जायेंगे।
1959-75 तक के अमेरिकी अत्याचारों के लिए जो बाइडेन के माफी मांगने की न तो वियतनाम के पूंजीवादी शासकों ने मांग की और न ही जो बाइडेन ने इस पर बात करने की जरूरत समझी। 1944-45 में जापानी हमले, 1946-54 तक अमेरिकी समर्थन से फ्रांसीसी गुलामी व 1959-75 तक अमेरिकी हमले में करीब 40 लाख वियतनामी नागरिक मारे गये थे। पर इतने वर्षों के हमले के बावजूद वियतनामी जनता ने मातहती स्वीकार नहीं की और करीब 60 हजार अमेरिकी सैनिकों की मौत के बाद अमेरिका को पीछे हटना पड़ा। वियतनामी जनता का संघर्ष दुनिया भर की साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों के लिए अनुकरणीय संघर्ष बन गया।
अमेरिकी तबाही वियतनामी जनता को इस रूप में प्रभावित कर रही है कि देहातों में अमेरिकी क्लस्टर बमों के शिकार आज भी मासूम बच्चे हो रहे हैं। एक बड़ी आबादी इन्हीं हथियारों के चलते कैंसर का शिकार बन रही है।
फिर भी अगर आज अमेरिकी सरगना वियतनाम जाने की हिम्मत कर पाते हैं तो यह वियतनामी पूंजीवादी शासकों के चलते ही सम्भव हो पाता है। आज वियतनामी शासक साम्राज्यवाद से लड़ने वाले नहीं उससे समझौते करने वाले बन चुके हैं। इसीलिए वे बाइडेन की मेजबानी करते हैं। उसका स्वागत करते हैं।
पर वियतनामी आजादी पसंद जनता अपने हत्यारों को कभी नहीं भूलेगी। शासक भले ही बाइडेन का स्वागत करें पर जनता हमेशा अमेरिकी शासकों को धिक्कारेगी। आने वाले वक्त में वह बाइडेन के साथ उन्हें देश में बुलाने वाले शासकों का भी हिसाब करेगी।
वियतनाम में बाइडेन
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को