महाराष्ट्र-झारखण्ड चुनाव
महाराष्ट्र और झारखण्ड की विधानसभाओं के साथ 14 राज्यों के 48 विधानसभा क्षेत्रों व 2 लोकसभा सीटों के चुनावों की घोषणा हो चुकी है। झारखण्ड में 2 चरणों में (13 व 20 नवम्बर) और महाराष्ट्र में एक चरण (20 नवम्बर) को चुनाव होंगे। चुनावों की घोषणा होते ही पूंजीवादी दलों में टिकट की मारामारी, जोड़-तोड़, दलबदल का खेल नग्न रूप में शुरू हो चुका है।
हरियाणा चुनाव की तरह भाजपा-संघ-मशीनरी जमीनी स्तर पर सक्रिय होकर अपने खिलाफ बन रहे माहौल को बदलने के लिए सारे हथकंडे चल रही है। राज्य मशीनरी और चुनाव आयोग उनके हर कदम में पूरा साथ दे रहा है। वहीं विपक्षी इंडिया गठबंधन अभी सीट बंटवारे की रस्साकसी ही हल नहीं कर पाया है।
कहने की बात नहीं कि भगवा रंग में रंगा हुआ चुनाव आयोग इस बार भी हरियाणा चुनाव की तरह माहौल के उलट नतीजे लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
इन चुनावों में शिंदे-बाल ठाकरे-शरद पवार सरीखे क्षेत्रीय क्षत्रपों की प्रतिष्ठा भी महाराष्ट्र में दांव पर लगी है। लोकसभा चुनाव में ये अपनी साख बचाने में कामयाब हुए थे। उ.प्र. के बाद महाराष्ट्र भाजपा गठबंधन को झटका देने वाला दूसरा प्रदेश था। यहां संघ-भाजपा लोकसभा चुनाव के बाद से ही साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने में लगे हुए हैं ताकि छिटके हुए मतदाताओं को वापस अपनी ओर ला सकें।
झारखण्ड में भाजपा से आदिवासी समुदाय की नाराजगी स्पष्ट है। अपने जंगल पूंजीपतियों को लुटाने को वो तैयार नहीं हैं। यहां मुख्य लड़ाई झारखण्ड मुक्ति मोर्चा व भाजपा के बीच है। झामुमो के हेमंत सोरेन वर्तमान समय में मुख्यमंत्री हैं।
भारी पैमाने पर धन-बल के प्रयोग को इन चुनावों में भी स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है। चुनाव आयोग द्वारा जब्त की गयी धनराशि हर बीते दिन के साथ बढ़ती जा रही है।
जहां तक मेहनतकश जनता का प्रश्न है तो उसे एक बार फिर अपने लुटेरों में से ही एक को चुनने को मजबूर होना पड़ेगा। उसके बुनियादी मुद्दे चुनाव में हवा में तो हैं पर उनकी आवाज उठाने वाली कोई कारगर पार्टी मैदान में नहीं है। जनता को अपने मुद्दों बेकारी-महंगाई को एजेण्डा बनाने के साथ संघ-भाजपा के षड्यंत्रों, चुनाव आयोग की कलाकारी को भी मुद्दा बनाना होगा। साथ ही अपना भविष्य लुटेरों के हाथ से छीन अपने हाथों में लेना होगा, तभी किसी वास्तविक बदलाव की दिशा में बढ़ा जा सकेगा।