भारतीय पूंजीवादी लोकतंत्र के पतन की ढेरों अभिव्यक्तियां हैं। उसका पतन संवैधानिक संस्थाओं के पतन में भी खुद को अभिव्यक्त करता है। प्रेस की स्वतंत्रता की वैश्विक रैंकिंग में भारत का 161 वें स्थान पर होना इसके पतन की स्वयंसिद्धि है।
भारतीय चुनाव आयोग भी पूरी तरह से अपनी स्वंतत्रता खो चुका है। भारतीय चुनाव आयोग भी अब ‘‘गोदी चुनाव आयोग’’ बन गया है। वह स्वयं अब एक पार्टी बन गया है। भारतीय चुनाव आयोग भाजपा के आगे समर्पण करता जा रहा है। केन्द्रीय चुनाव आयोग से लेकर राज्य चुनाव आयोग तक के कंधों पर आज अहम जिम्मेदारी लाद दी गई है कि वे अपनी सहयोगी पार्टी की जीत के लिए हर कानूनी और गैरकानूनी हथकंडे अपनाएं।
चुनाव आयोग के अफसर आर एस एस के स्वयंसेवकों की तरह बर्ताव करते हैं। उनका काम होता है अपनी सहयोगी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करना। उ.प्र. विधानसभा चुनाव में यह खुलकर देखा गया और आम जनमानस में यह मजबूत धारणा विद्यमान है कि चुनाव आयोग के अफसरों ने भाजपा के हार रहे उम्मीदवारों का भी विजय तिलक कर दिया।
चुनाव आयोग के अफसर विवादित चुनाव परिणामों वाली सीटों पर वीवीपैट की पर्चियों पर पड़े मतों से मिलान आम तौर पर नहीं करते और वे इसके लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं। इसका कारण चुनाव आयोग से बेहतर कौन जानता है?
भारतीय चुनाव आयोग स्वयं अपने द्वारा निर्धारित आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करता है। वह स्वयं व्यवहार में भाजपा के पक्ष में काम करता नजर आता है। विगत वर्षों में राज्य विधानसभा के चुनावों का कार्यक्रम इस प्रकार बनाया जाता है जो भाजपा, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के मनोनुकूल हो। वे राज्यों में चुनावों की तारीखों की घोषणा भी इस तरह से करते हैं ताकि मोदी मतदाताओं को चुनावों से ठीक पूर्व चुनावी अभियान की तरह ही अपने पक्ष में कर सकें। पिछले महीनों में सम्पन्न हुए गुजरात चुनाव से लेकर बंगाल और उ.प्र. के चुनावों तक में उपरोक्त स्थिति को देखा जा सकता है।
चुनाव आयोग और उसके राज्य चुनाव आयोग में मौजूद अफसरों को विपक्षी पार्टी के नेताओं के भाषणों व कार्यक्रमों में तो आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन नजर आता है परन्तु भाजपा, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और अन्य छोटे-बड़े नेताओं के धार्मिक व साम्प्रदायिक गोलबंदी वाले भाषणों और आह्वानों में गोदी चुनाव आयोग को आदर्श आचार संहिता का कोई उल्लंघन दिखाई नहीं देता है।
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों खुलेआम न सिर्फ साम्प्रदायिक व जातीय ध्रुवीकरण करते हैं वरन् वे सेना की कार्यवाहियों को भी ध्रुवीकरण के औजार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं परन्तु गोदी चुनाव आयोग की हिम्मत नहीं रही है और न है कि वे अपने मालिकों की ओर आंखें तरेर सके।
केन्द्रीय चुनाव आयुक्त तो ऐसा लगता है कि जैसे वे रंजन गोगोई की तरह अपने मालिकों (प्रधानमंत्री व गृहमंत्री) का कर्ज उतार रहे हों। चुनाव आयोग पहले भी कभी पूरी तरह से स्वंतत्र और निष्पक्ष नहीं रहे हैं पर अपने फासीवादी मालिकों के आगे दुम हिलाने के इन्होंने सारे पुराने कीर्तिमान तोड़ दिये हैं।
वर्तमान कर्नाटक के चुनावों में भी गोदी चुनाव आयोग वही करता दिखाई दिया जिसके लिए वह मोदी के सत्तारूढ़ होने के बाद जाना जाता रहा है। बेशक अन्य राजनीतिक दल भी आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करते हैं और ऐसे में उन दलों व उनके नेताओं पर कार्यवाही गलत नहीं है लेकिन भाजपा और संघी नेताओं पर कार्यवाही न करना उनको चुनावों में अतिरिक्त चुनावी लाभ पहुंचाता है।
वैसे मजेदार तो यह है कि चुनाव आयोग के जिलों में तैनात अफसर मुस्लिम खेमे के लोगों को पोलिंग बूथों तक पहुंचने से रोकने तक का काम करते हैं। मतदान करने की गोदी चुनाव आयोग की अपीलें और प्रचार की धज्जियां क्या रामपुर में स्वयं सरकारी पुलिस अधिकारी नहीं उड़ा रहे थे। एक समूह को वोट डालने देने से रोके जाने की तमाम सूचनाओं के बावजूद भी चुनाव आयोग का नकारापन सब कुछ बयां कर देता है।
भारतीय चुनाव आयोग एक संस्था के तौर पर चुनाव में धनबल को रोक पाने में पूरी तरह अक्षम रहा है। आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद कर्नाटक में 147.46 करोड़ रुपये, 83.66 करोड़ की शराब, 23.67 करोड़ के ड्रग्स, 96.60 करोड़ की धातुएं और 24.21 करोड़ की मुफ्त वस्तुएं जब्त की गईं। हालांकि इसमें यह नहीं ज्ञात है कि यह धन व वस्तुएं किस पार्टी से कितनी जब्त हुई हैं। वैसे गोदी चुनाव आयोग के उपरोक्त आचरण के मद्देनजर समझा जा सकता है कि इस जब्ती का शिकार भाजपा नेता अपवादस्वरूप ही होंगे।