भारतीय लोकतंत्र का यह अजब-गजब सूरते-ए-हाल है। आप सरकार से सूचना के अधिकार के तहत ‘क्यों’ प्रश्न किसी नीति या सूचना के सम्बन्ध में नहीं पूछ सकते हैं। ‘क्यों’ प्रश्न पूछते ही सरकार को उस नीति या तथ्य के पीछे की मंशा को स्पष्ट करना होगा। इसलिए सूचना के अधिकार में ‘क्यों’ प्रश्न पर सरकारी सेंसरशिप है। और हम जानते हैं कि सरकार गलत या ऊट-पटांग जो कुछ भी करे वह हर काम कथित रूप से जनकल्याण के नाम पर ही करती है। परन्तु इसके उलट यदि कोई पीड़ित अपने उत्पीड़न, अत्याचार के खिलाफ शिकायत दर्ज करने पुलिस थानों या सरकारी अधिकारियों के पास पहुंचे तो सबसे पहला सवाल ‘क्यों’ का ही होता है। शिकायत के पीछे की मंशा, सोच और यहां तक संगठन, संस्था व विचारधारा की खोज शुरू हो जाती है। इसमें मीडिया भी बढ़-चढ़ कर अपनी भूमिका निभाता है। ताजातरीन मामला महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न व प्रताड़ना से सम्बन्धित है। यहां उन्हें ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें हो रही हैं।
महिला पहलवानों की शिकायतों पर लम्बे समय तक कोई कार्यवाही नहीं होती है। मोदी सरकार अपने माफिया सांसद बृजभूषण सिंह के खिलाफ होने वाली शिकायतों पर आंख-कान बंद कर लेती है। गूंगी-बहरी बन जाती है। दिल्ली पुलिस महिला पहलवानों की महीनों-महीनों तक एफ आई आर तक दर्ज नहीं करती है। भारत के कानून की धज्जियां उड़ाती नजर आती है। महिला पहलवान जब उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाती हैं तब जाकर कहीं आपाधापी में बृजभूषण सिंह के खिलाफ एफ आई आर दर्ज होती है। गिरफ्तारी तो उसकी आज के दिन तक भी नहीं हुयी है। जबकि पाक्सो में सबसे पहले गिरफ्तारी का प्रावधान है। हत्यारा बृजभूषण सिंह (उसने खुद स्वीकार किया है कि एक व्यक्ति की हत्या उसने की है) सत्ता की अकड़ में, फूलमालाओं से लदा हुआ महिला व अन्य पहलवानों को बार-बार लांछित करते हुए सरेआम घूम रहा है। जबकि इस भरी गर्मी में पहलवानों के जंतर-मंतर में चल रहे संघर्ष को दो हफ्ते से भी अधिक का समय हो चुका है। महिला पहलवानों का यह संघर्ष अब देश में असर दिखा रहा है। और जगह-जगह से लोग उनके समर्थन में प्रदर्शन करने लगे हैं।
महिला पहलवानों का यह संघर्ष भारतीय लोकतंत्र, न्याय प्रणाली, खेल जगत में व्याप्त महिला विरोधी संस्कृति व चरित्र, खेल संघों में व्याप्त भ्रष्टाचार व सत्ता के दुरुपयोग आदि की पोल एक साथ खोल देता है। धूर्त बृजभूषण सिंह कुश्ती संघ को अपनी निजी जागीर के रूप में चलाता रहा है और महिला पहलवानों को अपनी जागीर की बांदियां समझता है। और उससे बढ़कर पाखण्ड स्वयं मोदी, भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उजागर हो जाता है। ये हिन्दू फासीवादी हर चीज को अपने फासीवादी चश्मे से ही देखते हैं। माफियाओं, अपराधियों, उन्मादियों, आतंकवादियों का धर्म के आधार पर ही ये विभाजन करते हैं। बृजभूषण सिंह क्योंकि हिन्दू और उस पर इनका सांसद है तो उसके सौ खून माफ हैं। उसके अपराध अपराध नहीं हैं। अतीक अहमद की हत्या, उसके परिवार-सम्पत्ति को मटियामेट करने वाले योगी आदित्यनाथ की जुबान बृजभूषण के नाम पर खामोश हो जाती है। गनीमत है कि सारे के सारे महिला पहलवान हिन्दू ही हैं नहीं तो अब तक हिन्दू फासीवादी और इनका पालतू मीडिया आसमान सर पर उठा लेता। और दो मिनट के भीतर पहलवानों का मुस्लिम आतंकवादियों से सम्बन्ध जोड़ देता।
‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ ‘महिला सशक्तीकरण’ ‘मातृ शक्ति’ जैसे नारे-जुमले कितने खोखले हैं वह इन महिला पहलवानों के साथ किये गये व्यवहार से एकदम सुस्पष्ट है। यही बात ‘खेलो इण्डिया’ जैसे नारे-अभियान के संदर्भ में भी लागू होती है।
भारत में खेल जगत की हालत बाकी समाज की तरह एकदम खराब है। सत्ताधारी पार्टी के लोग खेल संघों को अपने घृणित हितों के हिसाब से चलाते हैं। खिलाड़ियों के हितों के स्थान पर इन संघों में काबिज धूर्त राजनेताओं और उनके चेले-चपाटों के लिए ये अपनी सम्पत्ति व प्रभाव बढ़ाने के जरिये है। खेल जगत का क्या हाल है इसे गृहमंत्री अमित शाह के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। अमित शाह ने अपने प्रभाव का प्रयोग कर अपने बेटे जय शाह को बीसीसीआई का सचिव बनाया हुआ है। क्रिकेट को नियंत्रित करने वाली इस संस्था के पास अथाह पैसा व सम्पत्ति है। अमित शाह अपने बेटे के जरिये इस संस्था को अपनी जेबी संस्था की तरह चलाते हैं। जो काम अमित शाह करेंगे उस काम को क्यों कर बृजभूषण जैसा शातिर माफिया नहीं करेगा। भारत के खेल संघ भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, यौन प्रताड़ना आदि के अड्डे बने हुए हैं। यहां अमित शाह जैसों का हर ओर दबदबा है।
यहां पर भी गौरतलब है कि देश के अधिकांश खेल उस स्तर पर पहुंचे हुए हैं जहां शहरी-गरीब मजदूर-मेहनतकश आबादी की पहुंच से वे बाहर हैं। जितना अधिक प्रशिक्षण खर्चीला और महंगा होता गया है उतना ही अधिक वह देश के मजदूर-मेहनतकशों से लेकर शहरी-ग्रामीण मध्य वर्ग की पहुंच से भी बाहर हो गया हे। अभिनव बिंद्रा जैसे निशानेबाज को तैयार करने में, उसे देश-विदेश से प्रशिक्षण दिलाने में उसके मां-बाप लाखों रुपया खर्च करते हैं। यह सब किसी आम परिवार के लिए असंभव है। ऐसे में महिला पहलवानों की तरह किसी आम परिवार के बच्चे अपनी प्रतिभा, मेहनत व लगन के जरिए अपना कुछ स्थान बनाते भी हैं तो उन्हें हर कदम पर दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है। महिला खिलाड़ियों की मुश्किलें तो पुरुष खिलाड़ियों के मुकाबले दुगुनी हो जाती हैं। उन्हें अपने परिवार, अपने गांव-मोहल्ले बल्कि स्टेडियम-खेल संघों में हावी घटिया मर्दवादी सोच व संस्कृति से भी लड़ना पड़ता है। सफल खिलाड़ियों को तो फिर भी अपने संघर्ष का कुछ पुरुस्कार मिलता है परन्तु असफल या एक शिखर से फिसलने वाले खिलाड़ियों को तो अपने लिए दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो जाता है। एक उम्र के बाद तो ये असफल खिलाड़ी समाज में उपेक्षा का ही नहीं खिल्ली के पात्र भी बन जाते हैं। क्योंकि पूंजीवादी समाज में हर चीज का मापदण्ड पैसा, सम्पत्ति है तो सफल-असफल खिलाड़ी इसी कसौटी पर कसे जाते हैं। खेल भी मानवीय क्षमताओं के प्रदर्शन, खुशी, मनोरंजन आदि के स्थान पर घटिया पूंजीवादी मूल्य व संस्कृति से सरोबार है। खेल में सफलता-प्रसिद्धि हासिल करने के लिए जो प्रशिक्षण, समय आदि चाहिए उसके लिए हर कदम पर पैसा लगता है। और इस मामले में हर आम भारतीय परिवार के सामने मुश्किलें हैं। और अगर वह खिलाड़ी महिला है तो ये मुश्कलें दुगुनी और तिगुनी हो जाती हैं।
महिला पहलवानों को विपक्षी दलों या कथित टुकड़े-टुकड़े गैंग की साजिश बताकर भाजपा व संघ अपने घृणित कारनामों व कार्यशैली व संस्कृति को छुपा रहे हैं। अपने ‘चाल-चरित्र’ की दुहाई देने वालों की हकीकत तो यही है कि भाजपा में भी अपराधियों की भरमार है। और पिछले दस सालों में भाजपा व संघ के नेताओं की सम्पत्ति में वृद्धि का अनुमान लगाया जाए तो वह दुगुनी-चौगुनी गति से बढ़ी है। यही हाल इनका वित्त पोषण करने वालों का भी है। अडाणी-अम्बानी से लेकर शहर-देहात में जुड़े भाजपा-संघ के नेताओं की सम्पत्ति में वृद्धि चौंकाने वाली है। सरकारी विभाग, सार्वजनिक उपक्रम, सहकारी संस्थाओं से लेकर खेल संघों में काबिज भाजपा-संघ के लोग अपने भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेसियों से दो कदम आगे ही साबित हो रहे हैं।
महिला पहलवानों के संघर्ष के परिणाम कुछ-कुछ सामने आने लगे हैं। जिस दिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम सामने आये ठीक उसी दिन भारतीय ओलम्पिक संघ ने कुश्ती संघ को भंग कर दिया। महिला पहलवानों के संघर्ष से हो सकता है कुछ दिनों में बृजभूषण जेल की सलाखों के पीछे हो परन्तु इस सबसे भारतीय खेल जगत का चरित्र बुनियादी रूप से नहीं बदल सकता है। वह तभी बदल सकता है जब भारतीय समाज का चरित्र बदले। यानी भारतीय समाज में आमूल चूल परिवर्तन हों।