11 मई को भारत के उच्चतम न्यायालय ने एक के बाद एक दो फैसले सुनाये। पहला फैसला दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार व उप राज्यपाल के बीच से उपजे विवाद के बाद दिल्ली राज्य सरकार व उप राज्यपाल की शक्तियों के बंटवारे को लेकर था। और दूसरा फैसला महाराष्ट्र में पिछले वर्ष उद्धव के नेतृत्व में बनी महाअघाड़ी सरकार के पतन के संदर्भ में था।
पहले फैसले में उच्चतम न्यायालय ने बताया कि पुलिस, कानून व्यवस्था और सम्पत्ति संबंधी मसलों को छोड़कर सभी मसले दिल्ली राज्य सरकार के अधीन होंगे और उप राज्यपाल को दिल्ली की चुनी हुयी सरकार की सलाह-सिफारिशों के आधार पर काम करना होगा। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले को आप पार्टी सहित विपक्षी पार्टियों ने लोकतंत्र की जीत और भाजपा की हार के रूप में प्रचारित किया। भाजपा के नेता अपनी किरकिरी होते देख पहले तो चुप रहे और फिर इधर-उधर की हांक कर अदालत के फैसले से उपजी बातों की काट करने लगे।
दूसरा फैसला जितना संवैधानिक-कानूनी चाशनी में पगा हुआ था उससे ज्यादा वह नैतिक उपदेशों से युक्त होने के साथ गहरा राजनैतिक प्रभाव पैदा करने वाला था। ‘उद्धव ने यदि इस्तीफा नहीं दिया होता तो उसे बहाल कर सकते थे’ की बात इस फैसले में ऐसी ही थी जिसने भाजपा-संघ के शिंदे गुट की कारस्तानियों पर एक जोरदार नैतिक तमाचा जड़ दिया था। ‘वक्त की सुईयां’ नहीं घुमा सकते कहकर उच्चतम न्यायालय ने शिंदे-फड़नवीस सरकार को जीवनदान दे दिया। अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका पर सवाल खड़े किये। शायद भगतसिंह कोश्यारी को यह आभास हो गया था कि उच्चतम न्यायालय उनके काले कारनामों पर उन्हें आइना दिखलायेगा। इसलिए श्रीमान जी ने फैसला आने के पहले ही इस्तीफा देने में अपनी भलाई समझी। बेचारे ! भगतसिंह कोश्यारी के मुंह से उच्चतम न्यायालय के फैसले पर दो लफ्ज भी नहीं फूटे।
‘आपरेशन लोट्स’ के तहत मोदी-शाह के नेतृत्व में जिन विपक्षी दलों की सरकारों को गिराया गया था उसमें एक महाराष्ट्र की महाअघाड़ी गठबंधन की सरकार भी थी। इस सरकार को गिराने के लिए गहरा षड््यंत्र रचा गया था। अजित पवार वाले धोखे से सबक सीखे हुए मोदी-शाह-फडनवीस ने इस बार इतनी सधी चालें चलीं कि उद्धव तो क्या शरद पवार भी मात खा गये। शिवसेना में धन-बल और सरकारी संस्थाओं के दम पर भाजपा-संघ ने ऐसी सेंध लगायी थी कि उद्धव ठाकरे तो अपना आपा ही खो बैठे। अन्यथा वह बिना विधानसभा में अपना बहुमत साबित किये इस्तीफा न देते। उद्धव ने उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद अपने नैतिक मापदण्ड या आदेश को जायज ठहराया परन्तु शरद पवार जैसे धूर्त राजनीतिज्ञों से लेकर भाजपा विरोधी बुद्धिजीवियों ने इसे उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता की निशानी बताया। इस मामले में एक रिपोर्टर की फिल्मी-राजनैतिक टिप्पणी मजेदार थी कि उद्धव हार कर भी जीत गये और शिंदे-फड़नवीस जीत के भी हार गये।
इन दोनों फैसलों को भारत में लोकतंत्र की जीत के रूप में जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है। उच्चतम न्यायालय की साख में उसके इन दोनां फैसलों से मोटे तौर पर कुछ इजाफा ही हुआ है। वह इसलिए भी कि डी वाई चंद्रचूढ़ के पहले के मोदी काल के मुख्य न्यायाधीश अक्सर ही रीढ़विहीन साबित हुए थे। उच्चतम न्यायालय भाजपा-संघ की एक शाखा में बदला सा लग रहा था। चंद्रचूढ़ ने अपनी कार्यप्रणाली, फैसलों से न्यायपालिका की एक हद तक की स्वायत्तता को पुनः स्थापित किया। चंद्रचूढ़ अच्छे ढंग से जानते हैं कि न्यायपालिका की स्वायत्तता न केवल न्यायपालिका के पेशे में लगे न्यायाधीशों-वकीलों के हित, प्रतिष्ठा, साख के पक्ष में है बल्कि यह पूंजीवादी लोकतंत्र को दीर्घजीवी भी बनाती है। यह जनता के पूंजीवादी व्यवस्था में भरोसे व निष्ठा को बरकरार रखती है। समाज को अराजकता-बर्बरता की ओर बढ़ने से रोकती है। हिन्दू फासीवादी चंद्रचूढ़ से गहरी नफरत पाल के बैठे हैं और उन्हें वह अपने मंसूबों की राह में एक रोड़े के रूप में देख रहे हैं। विपक्षी पार्टियां जहां चंद्रचूढ़ की सराहना कर रही हैं वहां सत्ताधारी पार्टी खुलेआम तो कुछ नहीं परन्तु सोशल मीडिया के जरिये उनके खिलाफ जबरदस्त विषवमन कर रही है।
जो कुछ भी हो हिन्दू फासीवादी जितने समाज में अलग-थलग पड़ें, उनका राजनैतिक-सामाजिक वर्चस्व जिस हद भी टूटे वह देश के मजदूरों-मेहनतकशों के तात्कालिक हित में है।