पाकिस्तान से बीते एक वर्ष से वक्त-वक्त पर काफी परेशान करने वाली खबरें आती रही हैं। कभी सरकारी मुफ्त राशन की लाइन में भगदड़ से लोग मर रहे हैं तो कभी राशन के अभाव में सड़कों पर लोग दम तोड़ दे रहे हैं। बढ़ती महंगाई-बेरोजगारी के बीच बेशर्म पाकिस्तानी शासक अपनी-अपनी राजनीतिक गोटियां बिठाने व एक-दूसरे को पटखनी देने के षड्यंत्रों में जुटे हैं।
इमरान खान और प्रधानमंत्री शहबाज के बीच चल रही उठा-पटक में कभी एक का पलड़ा भारी रहता है तो कभी दूसरे का। कुछ दिन पूर्व भ्रष्टाचार के आरोप में शहबाज इमरान को जेल भेजने में सफल रहे तो अब सुप्रीम कोर्ट के जजों की मदद से इमरान जेल से बाहर आने में कामयाब हो गये हैं। राजनीतिक उठा-पटक के इस खेल में खिलाड़ी केवल राजनीतिक दल ही नहीं है बल्कि पाक सेना, पाक सुप्रीम कोर्ट के साथ धार्मिक कठमुल्ला संगठन भी इस उठा-पटक के भीतरी खिलाड़ी हैं तो बाहरी खिलाड़ी के रूप में चीनी व अमेरिकी साम्राज्यवादी भी सक्रिय हैं। कुल मिलाकर आर्थिक संकट के चलते पैदा हुई यह राजनैतिक उठा-पटक अपनी बारी में आर्थिक संकट के किसी फौरी हल को कठिन बना रही है। नेताओं की जूतमपैजार जनता की दुःख-तकलीफों को और बढ़ा रही है।
वैसे तो पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था बीते 2-3 दशकों से ही कभी ऐसी हालत में नहीं रही थी कि उसकी स्थिति अच्छी कही जा सके। इन दशकों में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां बाकी दुनिया की तरह पाकिस्तान में भी थोपी गयीं। पर पाकिस्तान में राजनैतिक उठा पटक लगातार होने के चलते विदेशी पूंजी उस मात्रा में नहीं आयी जैसी कि उम्मीद की जा रही थी। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के साथ पैट्रोलियम कीमतों में हुई वृद्धि ने पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित करना शुरू कर दिया।
दिसम्बर 2022 तक पाकिस्तान पर लगभग 126.3 अरब डालर का विदेशी कर्ज था। लगभग 300 अरब डालर के सकल घरेलू उत्पाद वाले देश के लिए यह कर्ज काफी अधिक था। यह कर्ज 2 दशकों में बढ़ते आयात, विलासिता वस्तुओं के आयात आदि के साथ चीन-पाक कारीडोर सरीखी आधारभूत योजनाओं में खपा था। उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का यही परिणाम निकला कि पाकिस्तान पर कर्ज लगातार बढ़ता गया। आयात बढ़ता गया पर निर्यात उसकी तुलना में नहीं बढ़ा।
2022 में जब रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ा तो इसने पैट्रोलियम की कीमतों को तेजी से बढ़ाया। परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भण्डार इस बढ़े हुए भार के लिए नाकाफी साबित होने लगा। साथ ही पाकिस्तान ने जो ऋण ले रखे थे उनकी अदायगी का करीब आता वक्त पाक अर्थव्यवस्था को संकट की ओर ले गया। अर्थव्यवस्था का यह संकट इमरान खान की कुर्सी को डगमगाने के लिए काफी था। इमरान की कुर्सी चली गयी व शहबाज सत्तासीन हो गये। पर्दे के पीछे से अमेरिकी साम्राज्यवादी भी इस उठा-पटक में भूमिका निभा रहे थे।
पर सत्ता परिवर्तन न तो आर्थिक संकट को थाम सकता था न थाम सका। दरअसल इमरान सरकार को इस संकट की आहट 2018-19 से ही थी। वे 2019 में आई एम एफ से एक बड़़े ऋण के लिए बातचीत कर रहे थे पर आई एम एफ को पाक सरकार पर विश्वास नहीं हुआ और सौदा नहीं हो पाया। जब पैट्रोल की कीमतें बढ़ीं तो विदेशी मुद्रा का संकट खुलकर सामने आ गया।
मई 22 में सरकार ने विदेशी मुद्रा बचाने की खातिर गैर जरूरी व विलासिता की वस्तुओं के आयात पर रोक लगा दी। मई में ही सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ) से नये कर्जे की बातें शुरू कीं। आई एम एफ ने कई शर्तें थोपीं। पहला ईंधन कीमतों पर लगी सरकारी रोक हटाना, विद्युत कीमतें बढ़ाना, टैक्स संग्रह बढ़ाना व बजट घटाना आदि। सरकार ने ईंधन कीमतों पर रोक जैसे ही हटाई इसने ईंधन समेत सभी वस्तुओं की कीमतों में भारी उछाल पैदा कर दिया। मई 22 में ही सरकार को लोगों को कम चाय पीने (ताकि चाय का आयात कम हो) की सलाह देने से लेकर विद्युत बचाने की बातें करनी पड़ीं। जून 22 तक मुद्रास्फीति 21.3 प्रतिशत तक जा पहुंची व संकट चहुंओर नजर आने लगा।
इस संकट को थामने के लिए पाक सरकार चीन व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष दोनों से वार्ताएं चला रही थी। चीनी साम्राज्यवादी इस संकट के लिए पाक द्वारा पश्चिमी साम्राज्यवादियों से लिए ऋण को जिम्मेदार ठहरा रहे थे वहीं पश्चिमी साम्राज्यवादी इस संकट के लिए चीनी साम्राज्यवादियों को जिम्मेदार ठहरा रहे थे। इन दोनों साम्राज्यवादी खेमों के आपसी तनाव का शिकार भी पाकिस्तान को बनना पड़ा और लगभग 1 वर्ष होने के बावजूद उसके संकट का तात्कालिक हल भी साम्राज्यवादी व पाक शासक नहीं निकाल पाये।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जहां बीते एक वर्ष में पाक शासकों को महज वार्ताओं में उलझाये रखा है वहीं चीनी साम्राज्यवादी भी बस किसी तरह काम चलाने लायक कर्ज पाक को देकर अपना पल्ला झाड़ना चाहते हैं। 2023 में मुद्रास्फीति लगातार बढ़ती गयी। आज अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक मुद्रास्फीति 30 से 50 प्रतिशत के बीच है। इस सबने पाक मुद्रा पर भी बुरा प्रभाव डाला व एक वर्ष में वह 183 रु. प्रति डालर से गिरकर लगभग 290 रु. प्रति डालर पहुंच गयी।
विश्व बैंक की पाकिस्तान पर जारी रिपोर्ट बताती है कि पाकिस्तान में करोड़ों की आबादी बीते एक वर्ष में भुखमरी की रेखा के नीचे चली गयी है। आम जन आज बुनियादी जरूरतों के लिए भटक रहे हैं। पर फिर भी अगर पाक जनता श्रीलंका के लोगों के नक्शेकदमों पर नहीं बढ़ रही है वह राष्ट्रपति भवन व सरकारी प्रतिष्ठानों पर कब्जे की ओर नहीं बढ़ रही है तो इसकी वजह पाकिस्तान में चल रही राजनैतिक उठा पटक जनता के गुस्से को उलझाने में कामयाब है। इमरान, शहबाज व अन्य दलों के प्रदर्शनों में उमड़ रही जनता दरअसल अपनी बदहाली से त्रस्त है पर वह अपने लुटेरों से ही बेहतरी की उम्मीद पाले है।
शीघ्र ही जनता अपने शासकों के असली चरित्र को पहचान अपने भाग्य को अपने हाथों में लेने की ओर बढ़ेगी।
पाकिस्तान के संकट को गत वर्ष आयी बाढ़ ने और गहराने का काम किया जिसने लगभग 300 अरब डालर के बराबर का बोझ अर्थव्यवस्था पर डाला। आज हालत यह है कि आगामी 3 वर्षों में पाकिस्तान को लगभग 77.5 अरब डालर का ऋण वापस लौटाना है। इसका अधिकांश चीन व साऊदी अरब को लौटाया जाना है। ऐसे में तात्कालिक तौर पर पूंजीवादी शासकों पर संकट को टालने के दो ही रास्ते हैं। पहला चीन या आई एम एफ से कोई बड़ा ऋण हासिल करना दूसरा अपने ऋणों का पुनर्गठन करवाना यानी उनके लौटाने की अवधि बढ़वाना। अगर पाक शासक इन दोनों रास्तों में विफल हुए तो पाकिस्तान को दिवालिया होने व फिर इन्हीं रास्तों पर बढ़ना पड़ेगा।
पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का संकट जहां एक ओर पूंजीवादी व्यवस्था के आम लक्षण यानी बारम्बार संकटों के आने का एक उदाहरण है वहीं खास तौर पर यह बीते 2-3 दशकों की उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का परिणाम है। इस संकट को लाने में पाक शासकों के साथ चीनी व पश्चिमी साम्राज्यवादियों की पूरी भूमिका रही है।