एक ‘राष्ट्रवादी’ कविता -कल्लोल चक्रवर्ती

हाँ, कोरोना के बाद से दिख नहीं रहा है एक लाचार परिवार
जो हर जाड़े में कम्बल और रजाई के लिए आवाज़ लगाता था
नुक्कड़ में पुराने कपड़े सिलने वाला दर्जी महीनों से नजर नहीं आता
लेकिन सैकड़ों वर्ष पुराने वे धर्मस्थल आज प्राचीन गौरव से दीप्त चमक रहे हैं
हजार और पांच सौ के पुराने नोटों के साथ चलन से बाहर कर दिये गये हैं
आन्दोलन, प्रेस की आजादी और धर्मनिरपेक्षता जैसे जुमले भी.
हाँ, कुछ मुट्ठी भर किसानों ने आवाज़ उठाने की जुर्रत की
क्योंकि उनको पैसा आ रहा था विदेश से
कहा गया कि उनमें से कुछ मर गये
मर तो वे तब भी जाते जब वे घरों में रहते
कहा गया कि उनके लंगर में भोजन मिल रहा था सैकड़ों लोगों को
और हम जो करोड़ों भूखों को भोजन मुहैया करा रहे हैं
उसका क्या!
काम पर लगा दिया गया है मालवीयों, गोस्वामियों, पात्रों, कश्यपों और चौधरियों को
जो कल तक किसी के भी खिलाफ़ कुछ भी लिख-बोल सकते थे
आज वे गूंगे बन चुके हैं
यह कह दिया गया है ऐलानिया कि विरोध में कुछ भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा
देश बदल रहा है, सोच बदल रही है
ऐसे में जो नहीं बदलेंगे वे देश बदल लेने के लिए आजाद हैं
कृपया सुन लें कि पहले की सरकारों की तरह
हम बदले की कार्रवाई नहीं करते.
अब भी अगर आप बुलडोजर को शक्ति का नया प्रतीक मानने से इनकार करते हैं
तो हम क्या कर सकते हैं?
लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इससे बड़ा उदाहरण
और क्या हो सकता है श्रीमान
कि प्रधानमंत्री को हर सुबह गाली देने के बाद भी आप
बिल्कुल सही-सलामत हैं!                   साभार : samalochan.com

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।