हाँ, कोरोना के बाद से दिख नहीं रहा है एक लाचार परिवार
जो हर जाड़े में कम्बल और रजाई के लिए आवाज़ लगाता था
नुक्कड़ में पुराने कपड़े सिलने वाला दर्जी महीनों से नजर नहीं आता
लेकिन सैकड़ों वर्ष पुराने वे धर्मस्थल आज प्राचीन गौरव से दीप्त चमक रहे हैं
हजार और पांच सौ के पुराने नोटों के साथ चलन से बाहर कर दिये गये हैं
आन्दोलन, प्रेस की आजादी और धर्मनिरपेक्षता जैसे जुमले भी.
हाँ, कुछ मुट्ठी भर किसानों ने आवाज़ उठाने की जुर्रत की
क्योंकि उनको पैसा आ रहा था विदेश से
कहा गया कि उनमें से कुछ मर गये
मर तो वे तब भी जाते जब वे घरों में रहते
कहा गया कि उनके लंगर में भोजन मिल रहा था सैकड़ों लोगों को
और हम जो करोड़ों भूखों को भोजन मुहैया करा रहे हैं
उसका क्या!
काम पर लगा दिया गया है मालवीयों, गोस्वामियों, पात्रों, कश्यपों और चौधरियों को
जो कल तक किसी के भी खिलाफ़ कुछ भी लिख-बोल सकते थे
आज वे गूंगे बन चुके हैं
यह कह दिया गया है ऐलानिया कि विरोध में कुछ भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा
देश बदल रहा है, सोच बदल रही है
ऐसे में जो नहीं बदलेंगे वे देश बदल लेने के लिए आजाद हैं
कृपया सुन लें कि पहले की सरकारों की तरह
हम बदले की कार्रवाई नहीं करते.
अब भी अगर आप बुलडोजर को शक्ति का नया प्रतीक मानने से इनकार करते हैं
तो हम क्या कर सकते हैं?
लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इससे बड़ा उदाहरण
और क्या हो सकता है श्रीमान
कि प्रधानमंत्री को हर सुबह गाली देने के बाद भी आप
बिल्कुल सही-सलामत हैं! साभार : samalochan.com
एक ‘राष्ट्रवादी’ कविता -कल्लोल चक्रवर्ती
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को