पंजाब का खालिस्तानी अलगाववादी नेता अमृतपाल सिंह आजकल फरार है। पुलिस देश के हर कोने में उसकी तलाश कर रही है। पंजाब के कई जिलों में इण्टरनेट सेवा ठप है। अमृतपाल के तमाम सहयोगी पकड़े जा चुके हैं पर अमृतपाल का अता-पता नहीं है।
बामुश्किल 6-7 माह पूर्व दुबई से भारत आने वाले अमृतपाल सिंह ने जिस तेजी से लोकप्रियता हासिल की वो इस बात को दिखलाने के लिए काफी है कि भले ही भिन्डरवाला को नायक मानने वाला अमृतपाल खुद को खालिस्तानी अलगाववाद का नेता समझ रहा था पर उसे पालने-पोसने और मनमानी बातें करने की छूट देने वाली ताकतें केन्द्र व राज्य सरकारें थीं।
अमृतपाल सिंह ने पहले पहल कुछ पहचान तब हासिल की जब किसान आंदोलन के दौरान 2020 में उसने दीप सिद्धू के पक्ष में सोशल मीडिया पर बातें कीं। मार्च 2022 में दीप सिद्धू के कार दुर्घटना में मरने के बाद दीप सिद्धू के संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ का नेता अमृतपाल को बनाने की घोषणा कर दी गयी। दीप सिद्धू 26 जनवरी 2020 की ट्रैक्टर रैली में लाल किले पर निशान साहब का झण्डा फहराने वालों में से था। वह भी खालिस्तान समर्थक था और भाजपा नेताओं से उसके नजदीकी रिश्ते थे। इन्हीं रिश्तों के आधार पर कहा गया था कि उक्त ट्रैक्टर रैली में एक षड्यंत्र के जरिये किसानों को लाल किले की ओर सरकार ले गयी।
सिद्धू ने सितम्बर 2021 में ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन बनाया था। 2022 के विधानसभा चुनाव में इस संगठन ने शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के लिए प्रचार किया जिसके नेता सिमरनजीत सिंह मान हैं।
सितम्बर 2022 में खुद के ‘वारिस पंजाब दे’ का नेता नामित होने के कई माह बाद अमृतपाल भारत आया। भारत आने के बाद अमृतपाल ने तेजी से सिक्खों में नशे की बीमारी के साथ-साथ सिक्ख धर्म के धार्मिक मामले पर बातें करनी शुरू कर दीं। उसने खुलेआम खालिस्तान की मांग का समर्थन किया। उसने खुलकर कहा कि खालिस्तान के लिए लोगों की भावनाओं को दबाया नहीं जा सकता। उसने कहा कि खालिस्तान एक विचारधारा है और विचारधारा कभी मरती नहीं।
सितम्बर 22 से फरवरी 23 तक अमृतपाल के संगठन का तेजी से प्रसार होता रहा। न तो उसकी गैरकानूनी बातों को रोकने में राज्य की आम आदमी पार्टी की सरकार की कोई दिलचस्पी थी और न ही केन्द्र की भाजपा सरकार की। वह खुलेआम अपनी खालिस्तान समर्थक बातें करता गया।
यह सब और आगे बढ़ सकता था अगर फरवरी में अजनाला की घटना न घट जाती। किसी मामले में पुलिस ने अमृतपाल सिंह के दो साथियों को गिरफ्तार कर लिया था जिससे आक्रोशित हो अमृतपाल सिंह ने अपने साथियों को छुड़ाने के लिए थाने पर धावा बोल दिया। कई पुलिसकर्मी घायल हुए व थाने पर एक तरह से कब्जा कर अमृतपाल ने वहां से अपनी बातें प्रसारित कीं। इसके बाद पुलिस के अमृतपाल सिंह के साथी को छोड़ने के वायदे के बाद ही अमृतपाल थाने पर कब्जा छोड़ने को तैयार हुआ।
अजनाला की घटना में जहां पुलिस मूकदर्शक बनी रही वहीं अमृतपाल अपनी पूरी मनमानी करता रहा। हालांकि उक्त घटना के बाद पुलिस प्रशासन का रुख अमृतपाल सिंह के प्रति कठोर हुआ और उसकी गिरफ्तारी के लिए पंजाब पुलिस चारों ओर जाल बिछाने लगी। कई दिनों की भागदौड़ के बावजूद अमृतपाल को पकड़ने में पुलिस अब तक नाकामयाब रही है।
प्रश्न यह उठता है कि दुबई से भारत आकर 6 माह में एक युवक इस कदर लोकप्रिय कैसे हो उठा? क्यों उसकी गतिविधियां विभाजनकारी होने के बावजूद पुलिस प्रशासन के लिए सिरदर्द नहीं बनीं?
इसका जवाब यही है कि किसान आंदोलन के चलते पंजाब की जनता ने जिस एकजुटता से मोदी सरकार के तीन काले कृषि कानूनों का जवाब दिया था वो एकजुटता मोदी सरकार के साथ-साथ पंजाब की आप सरकार को भी रास नहीं आ रही थी। दोनों पार्टियां इस एकजुटता को कमजोर करना चाहती थीं। अब इस एकजुटता को कमजोर करने का पहला प्रयास दीप सिद्धू था तो दूसरा प्रयास अमृतपाल सिंह बना। अमृतपाल सिंह की खालिस्तान समर्थक बातें, हिन्दू विरोधी बातें पंजाब की हिंदू-सिख एकता की आबोहवा को साम्प्रदायिक वैमनस्य में ढकेल सकती थीं। भाजपाई इसी साम्प्रदायिक वैमनस्य को पैदा कर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करना चाहते थे तो आम आदमी पार्टी सरकार भी किसानों के हर रोज हो रहे प्रदर्शनों से त्रस्त आ किसानों की एकता में दरार चाहती थी।
इस तरह केन्द्र की भाजपा व राज्य की आप सरकार दोनों के हित इस बात पर एक हो उठे कि पंजाब की आबोहवा में साम्प्रदायिक वैमनस्य घोला जाए। इस काम के लिए अमृतपाल सिंह मजबूत मोहरा बनाया गया।
फिलहाल अमृतपाल सिंह के जरिये खालिस्तानी आंदोलन की नई आग को भड़काने की कोशिश कुछ आगे नहीं बढ़ी है। पर सत्ताधारी पार्टियां पंजाब के किसान आंदोलन व किसान एकजुटता की काट में वहां साम्प्रदायिक जहर आगे भी रोपने के प्रयास जरूर करेंगी। ऐसे में क्रांतिकारी किसान संगठनों को न केवल इन साजिशों से सचेत रहना होगा बल्कि पंजाब की आबोहवा बिगाड़ने की ऐसी हर कोशिश का पुरजोर मुकाबला करना होगा। उन्हें किसी भी कीमत पर पंजाब में 84-94 के खालिस्तानी आंदोलन के हालातों को बनने से रोकना होगा।