देश का दुश्मन

किसी भी देश या समुदाय के लोगों की आपसी एकता के लिए कोई न कोई दुश्मन होना जरूरी है। अगर कोई दुश्मन ही न हो तो एकता कैसे और किसलिए कायम होगी।

एकता के लिए दुश्मन का होना एकदम अनिवार्य शर्त है। यह अलग बात है कि जिसे दुश्मन के रूप में पेश किया जा रहा हो वह उस देश या समुदाय का वास्तविक दुश्मन भी हो सकता है या फिर उसे झूठी-सच्ची, काल्पनिक बातों के जरिये भी खड़ा किया जा सकता है। दुश्मन सच्चा हो या काल्पनिक, पर होना जरूरी है तभी एकता का आधार निर्मित किया जा सकता है। ऐसा दुश्मन आक्रामक, क्रूर, वहशी, एकदम हमले या लड़ने के लिए आतुर आदि विशेषताओं से युक्त होना चाहिए। दुश्मन के उलट एकता कायम किये जाने वाले देश या सम्प्रदाय को अपने को पीड़ित, भला इंसानी गुणों से युक्त आदि सद्गुणों से नवाजा जाना जरूरी हो जाता है। उनका आक्रमण अपने यहां रक्षा और क्रूरता वीरता में बदल जाती है। धूर्तता बुद्धिमानी का परिचायक होती है। इस तरह से कोई एक के लिए हत्यारा और दूसरे के लिए बहादुर बन जाता है। किसी कौम के लिए शहीद का दर्जा रखने वाला दूसरे के लिए कौम का दुश्मन बन जाता है। एक कौम का उद्धारक दूसरे के लिए आतंकवादी का दर्जा रखता है।

कौन देश या किसी समुदाय विशेष का दुश्मन है इसे तय करने का अधिकार (या तौर-तरीका) अक्सर की उस देश या समुदाय के सबसे ऊपरी तबके या सत्ताधारी के पास होता है। और दुश्मन को निर्धारित और चित्रित करने के दौरान वह अपने खुले-छिपे हितों को पूरे देश या समुदाय के हित बता देता है। आम जन चाहे वह किसी देश के हों या फिर किसी समुदाय विशेष के, वे अपने हितों के प्रति सचेत, सजग न होने के कारण से, देश या समुदाय के हितों की रक्षा के नाम पर ऊपरी तबके या सत्ताधारी वर्ग के अंधे पिच्छलग्गू बन जाते हैं। जब तक उन्हें सच्चाई का ज्ञान हासिल होता है तब तक वह अपना भारी नुकसान कर बैठते हैं। बहुत देर हो चुकी होती है।

जब भारत गुलाम था तब देश के दुश्मन की पहचान एकदम आसान थी। और जहां कहीं पहचान को लेकर कुछ जटिलता थी उसे समय ने एकदम आसान बना दिया था। आज के समय में चीजें समय के साथ और जटिल होती गयी हैं। दुश्मन कई मामले में खासकर देश के आम जनों, मजदूरों, किसानों के मामले में अदृश्य हो गया है।

आजादी की लड़ाई के दिनां में एकदम स्पष्ट था कि हमारा दुश्मन कौन है? और उस दुश्मन के खिलाफ ही भारत के लोगों में एकता कायम हुयी थी। और गौर से देखा और समझा जाये तो असल में भारत नाम की राजनैतिक इकाई का जन्म ही उस लड़ाई के साथ हुआ। देश की एकता या देशानुराग की भावना के मूल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की गुलामी से मुक्ति की भावना थी। आजादी की लड़ाई के दिनों में ऐसा नहीं था कि हितां की टकराहट नहीं थी। हितों की ही टकराहट थी जिसने विभिन्न राजनैतिक दलों और संगठनों को जन्म दिया था। कांग्रेस पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी, स्वराज दल, नेशनल कांफ्रेंस जैसे दल एक तरह के खास वर्गीय हितों के कारण अस्तित्व में आये थे। तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, अकाली दल आदि खास तरह के समुदाय के हितों की रक्षा के नाम पर अस्तित्व में आये थे।

गुलामी की जंजीरों में बंधे भारत के जन किसी भी कीमत पर अपनी मुक्ति चाहते थे। मुक्ति के प्रयास में वे वह सब कुछ करने का प्रयास कर रहे थे जो वह कर सकते थे। कभी किसान तो कभी चटगांव का विद्रोह होता था। कभी भगतसिंह, करतार सिंह सराभा, जैसे युवा गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का बीड़ा उठाते थे तो कभी नौसैनिक विद्रोह कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की चूलें हिला देते थे।

भारत को गुलामी की जंजीरों में बांधे रखने के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादी क्रूरता की सारी सीमायें लांघ जाते थे। जलियांवाला बाग जैसे छोटे-बड़े हजारों-हजार हत्याकाण्ड इस दौरान ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने रचे थे। हजारों-हजार लोगों को या तो फांसी पर लटका दिया गया या फिर गोलियों से भून डाला गया।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अलावा भारतीय रजवाड़े, सामंत, जमींदार भारत के आम जनों खासकर किसानों के ऊपर बेइंतहा जुल्म ढाते थे। इन राजे-रजवाड़ों की जेलों में भी कई हजार लोगों ने बेहिसाब हिंसा और क्रूरता का सामना किया। इस तरह से देखें तो आजादी की लड़ाई के दिनों में भारतीय जनता के दो दुश्मन थे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और भारतीय सामंतवाद। ये दोनों दुश्मन एक-दूसरे को सहारा देते थे। असल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारतीय सामंतों को अपना पालतू बना कर रखा हुआ था।

इन दोनों दुश्मनों के बीच से एक नया दुश्मन पनप रहा था जो नये किस्म का था। यह दुश्मन पहले काफी कमजोर था परन्तु धीरे-धीरे यह इतना बड़ा होता गया कि भारत की आजादी के बाद यह ही भारत का नया शासक बन गया। भारत का पूंजीपति वर्ग भारत की जनता का नया दुश्मन था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की तरह इसने भी सामंती राजे-रजवाड़ों को अपने पीछे लगा लिया था। इनकी रियासतों का इन्होंने भारतीय राज्य में विलय तो करा दिया था परन्तु इनकी दौलत का बड़ा हिस्सा इन्हीं के पास रहने दिया और करीब दो दशक तक इनको ‘प्रिवी पर्स’ दिया। यानी भारत के खजाने से इन पर दौलत लुटायी जाती रही। माधव राज सिंधिया जैसे आज के धूर्त राजनेताओं के पूर्वज ऐसे ही सामंत थे जो कभी अंग्रेजों के तो कभी भारत के पूंजीपति वर्ग के पालतू थे। सामंतवाद समय के साथ कमजोर पड़ता गया परन्तु इसने आजादी के बाद भी भारत के मजदूरों, किसानों, दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों को खूब सताया। लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को भला कौन भूल सकता है। सामंतवाद आज आजादी की लड़ाई के दिनों की तरह प्रभावी नहीं है परन्तु इसके संग जुड़ा ब्राह्मणवाद, पिछड़ी मूल्य-मान्यतायें, धार्मिक अत्याचार आदि आज भी जारी हैं।

जहां तक साम्राज्यवाद का सवाल है वह भी नये बदले रूप में भारत की जनता का दुश्मन बना हुआ है। ब्रिटिश साम्राज्यवादी पीछे हट कर सत्ता भारत के पूंजीपतियों के हाथ में सौंप गये। परन्तु साम्राज्यवादी शोषण का पूरा तंत्र तब से लेकर आज तक कायम है। साम्राज्यवादी पूंजी भारत के पोर-पोर में समायी हुयी है। अमेरिकी, रूसी साम्राज्यवादी देशों से लेकर नये उभरे चीनी साम्राज्यवादी भारत की जनता को लूट रहे हैं।

भारतीय पूंजीवाद और साम्राज्यवाद भारत की जनता, मजदूरों-किसानों के असल दुश्मन हैं। यही भारत की मुक्ति की राह में सबसे बड़े रोड़े हैं।

और यहीं से भारत के दुश्मनों का वह असली खेल शुरू होता है जहां वे अपने को भारत की जनता के हितैषी के रूप में पेश करते हैं और उन्हें भारत की जनता न पहचान पाये इसके लिए नये-नये नकली दुश्मन खड़े करते हैं। दुश्मनों और दुश्मनी का हव्वा खड़ा किया जाता है। जनता को धर्म, जाति, इलाका, भाषा आदि के आधार पर एक-दूसरे के सापेक्ष खड़ा कर दिया जाता है। और इसी कड़ी में भारत की सत्ता में काबिज आज के हिन्दू फासीवादी बड़़ी धूर्तता और सूक्ष्मता से दुश्मनी का खेल खेल रहे हैं। इनका हिन्दू राष्ट्र भारत की जनता के लिए अभिशाप और मुक्ति के संघर्ष के लिए एक नया रोड़ा साबित होगा। इन फासीवादियों को भारत का पूंजीपति वर्ग खासकर सबसे बड़ा पूंजीपति वर्ग पालता-पोसता है। और ये भी उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। अडाणी प्रकरण ने इसे एक बार फिर साबित कर दिया है।

क्या दुनिया में दुश्मनी का कभी अंत नहीं होगा। होगा अवश्य होगा। परन्तु इसके लिए जरूरी है कि पूंजीवाद, साम्राज्यवाद का अंत हो। और दुनिया या नयी दुनिया का निर्माण तो उसी नारे के साथ हो सकता है जिसका आह्वान डेढ़ सदी पहले हुआ था। वह नारा था ‘‘दुनिया के मजदूरों एक हो!’’

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