
17 मार्च को महाराष्ट्र के नागपुर में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। हिंसा में पुलिसकर्मी और नागरिक घायल हुए। कई इलाकों में पथराव, आगजनी, तोड़फोड़ हुई। इसके बाद कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया।
दंगे के बाद गिरफ्तारियों का दौर जारी है। दंगे के ‘मास्टर माइंड’ की तलाश फहीम नाम के मुस्लिम शख्स पर जाकर खत्म हुई जो माइनारिटीज डेमोक्रेटिक पार्टी का नेता है। इसी शख्स के सिर पर दंगों का सेहरा सजाकर असली गुनहगारों को बचाने की कोशिश महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और पुलिस कर रही है। विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के जिन आरोपियों ने आत्मसमर्पण किया था उनको तुरंत ही जमानत मिल चुकी है।
यह हिंसा तब भड़की जब विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ता मुगल शासक औरंगजेब का पुतला फूंक रहे थे और यह मांग कर रहे थे कि औरंगजेब की कब्र खोदी जाए। इसी बीच एक अफवाह फैली कि पुतले के साथ एक चादर भी जलाई गयी है जिस पर कुरान की कुछ आयतें लिखी हुई थीं। इसके बाद सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी।
नागपुर हिंसा पर मुख्यमंत्री फड़नवीस ने विधानसभा में कहा कि ‘छावा’ फिल्म के बाद लोगों की भावनाएं भड़क गयीं। और इस तरह दंगों के लिए फिल्म छावा को भावनाएं भड़काने का दोषी ठहरा दिया गया। लेकिन भावनाएं केवल फिल्म ने नहीं भड़कायीं। फिल्म ने तो विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के लोगों को एक चिंगारी दे दी थी जिससे वे समाज को आग में झोंक सकें। मुख्यमंत्री का धूर्तता से भरा यह बयान दंगों के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार लोगों, संगठनों को साफ बचा देता है। निश्चित ही इसके तार स्वयं मुख्यमंत्री, भाजपा-आरएसएस व अन्य दक्षिणपंथी संगठनों तक जाते हैं।
14 फरवरी को फिल्म ‘छावा’ रिलीज हुई। यह फिल्म वैसे तो औरंगजेब और संभाजी के बीच हुए ऐतिहासिक संघर्ष को दिखाती है लेकिन वास्तव में यह फिल्म इतिहास के साथ छेड़छाड़ करती है। इस फिल्म का मुख्य संदेश ‘हिन्दू अच्छे और मुसलमान बुरे’, ‘मुसलमानों ने हिन्दूओं का क्रूर दमन किया’ आदि है जो हिंदू फासीवादियों के मन मुताबिक है। इन्हीं विचारों को ही तो वे वर्षों से अपना राजनीतिक अस्त्र बनाये हुए हैं।
17 फरवरी से ही फड़नवीस, शिंदे, राणे जैसे नेताओं से लेकर स्वयं प्रधानमंत्री फिल्म की तारीफ करने लगे, फिल्म की कथा को ही सच्चा इतिहास बताने लगे।
फड़नवीस ने शिवाजी के जन्मदिन के कार्यक्रम में विक्की कौशल (छावा फिल्म का नायक) के साथ मंच साझा किया। एनसीपी नेता (भाजपा के साथ गये हिस्से) ने विधायकों को सामूहिक फिल्म दिखाई तो एक अन्य नेता ने कई मल्टीप्लेक्स में महिलाओं के लिए एक सप्ताह के लिए मुफ्त फिल्म देखने की व्यवस्था की।
नीतीश राणे, टी राजा सिंह ने तो भड़काऊ बयानों की झड़ी लगा दी। राणे औरंगजेब की कब्र हटाने को लेकर साम्प्रदायिक बयानबाजी करने लगे। फिर तो जैसे होड़ ही लग गयी। कई दक्षिणपंथी नेता जोर-शोर से कब्र को हटाने, बाबरी मस्जिद की तरह तोड़ देने जैसी बातें करने लगे। मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री भी ऐसे बयानों का खुलकर समर्थन करने लगे।
सरकार, नेताओं का खुलकर समर्थन पाकर प्रदेश के दक्षिणपंथी संगठन इस मुद्दे पर एक होने लगे। विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, हिन्दू एकता आंदोलन, पतित पावन संगठन, छत्रपति संभाजी महाराज प्रतिष्ठान और अन्य कई दक्षिणपंथी संगठन औरंगजेब की कब्र हटाने पर जोर देने लगे। ये 300 साल पुरानी कब्र को बहाना बनाकर आज के मुसलमानों से बदला लेने, उन्हें सबक सिखाना चाह रहे थे।
17 मार्च दंगे के दिन से बहुत पहले से ही दंगे का माहौल बनाया जा रहा था। दक्षिणपंथी अपने मंसूबों में तेजी से आगे बढ़ रहे थे। क्षेत्र में वे डर, आतंक का माहौल बनाने में कामयाब हो रहे थे। समाज में हिन्दू-मुसलमान के बीच ध्रुवीकरण तेजी से किया जा रहा था।
यहीं पर कारपोरेट मीडिया की भूमिका की बात करें तो उसने ध्रुवीकरण करने, औरंगजेब के बहाने मुसलमानों को निशाना बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।