भटकती आहत भावनाएं

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पिछले कुछ वर्षों से देश में अलग-अलग लोगों की भावनाएं समय-समय पर आहत होती रहती हैं। यह भावनाएं हैं कि किसी विशेष मामलों में आहत होती है। शायद यह भावनाएं किसी खास मौके पर आहत होने के लिए बचा कर ही रखी जाती हैं ताकि उस सही समय में भावनाएं आहत हों और आहत भावनाओं को प्रदर्शित भी किया जाए। 
    
पिछले दिनों स्टैंडअप कामेडियन कुणाल कामरा ने एक वीडियो अपने सोशल मीडिया साइट पर अपलोड किया। इससे शिव सैनिकों (एकनाथ शिंदे गुट) की भावनाएं आहत हो गईं। इनके समर्थकों का कहना है कि उनके नेता को गद्दार कह दिया और हमारी भावनाएं आहत हो चुकी हैं। यह रोकी हुई भावनाएं प्रकट कर दी गईं। और उन्होंने अपने नेता के ‘सच्चे समर्थक’ होने का सबूत दे दिया।
    
इन लोगों की भावनाएं हैं कि यह अपने नेताओं के मामलों में या किसी खास मौके पर ही आहत होती हैं। आज देश के अंदर भयावह बेरोजगारी का दंश देश के नौजवान भुगत रहे हैं। शिक्षा महंगी होती जा रही है। सरकारी शिक्षा की हालत लगातार दयनीय होती जा रही है। यहां पर इनकी भावनाएं आहत नहीं होती हैं। मजदूरों-मेहनतकशों के हालात लगातार दयनीय होते जा रहे हैं। मजदूरों से कई घण्टे अधिक काम लिया जा रहा है। ठेका प्रथा का बोलबाला इतना है कि किसी को अपनी नौकरी का भरोसा नहीं कब है कि कब नहीं। यहां पर इन लोगों की भावनाएं आहत नहीं होती हैं। महिलाओं के साथ में हिंसा-बलात्कार के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं तब इन लोगों की भावनाएं आहत नहीं होती हैं। दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों पर निरंतर हमले बढ़ते जा रहे हैं। मुसलमानों को उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर निशाना बनाया जा रहा है। तब इनकी भावनाएं आहत नहीं होती हैं। वर्षों पहले कब्र में दफन हो चुके औरंगजेब की कब्र ने भी इनकी भावनाओं को आहत कर दिया। तथाकथित देशभक्तों की भावनाएं औरंगजेब को कब्र से खोजने निकल पड़ीं। इतिहास में दफ्न हो चुका औरंगजेब नहीं मिला तो औरंगजेब के नाम पर आज मुसलमानों को निशाना बनाया गया।
    
यह भावनाएं हैं कि भटक तो रही हैं पर सब कुछ देख नहीं पा रही हैं। इन्हें कितना देखना है; क्या देखना है, और कैसे देखना है यह भावना आहत होने वालों के मुद्दों पर ही निर्भर करता है। काश इनकी भावनाएं इतनी विशेष नहीं होती तो; आज देश के अंदर न जाने कितनी समस्याएं हैं। इन समस्याओं पर इनकी भावनाएं आहत होतीं तो देश का आम जनमानस भी इनके साथ में खड़ा होता। परंतु यहां पर कुछ मुट्ठी भर लोग अपनी आहत भावनाएं लेकर तांडव मचा रहे हैं और उनके ऊपर बैठे आका, शासन-प्रशासन अपने राजनीतिक हितों के लिए उनकी आहत भावनाओं को शह दे रहे हैं।
    
भावनाओं के नाम पर खेला जा रहा यह खेल बहुत ही जहरीला और भयावह है। इसमें नागरिकों के बोलने, उनकी फ्रीडम आफ स्पीच, उनकी अपनी भावनाएं अब व्यक्त करना इनके द्वारा अपराध बताया जा रहा है। उनके ऊपर लगातार हमले बढ़ाए जा रहे हैं। दुनिया में नेताओं से लेकर प्रभावशाली लोगों पर बातें, कविताएं, व्यंग्य आदि होते रहे हैं। यह साहित्य से लेकर सिनेमा, संस्कृति सब जगह सदियों से चला आ रहा है। लेकिन आज यह भावनाएं आहत होने का खेल व्यापक पैमाने पर खेला जा रहा है, जिसके जरिए असल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा रहा है।
    
आज देश की समस्याओं के लिए जिम्मेदार सत्ता में बैठे हुए लोग हैं। जनता उनके इस नाकारापन के खिलाफ आवाज ना उठाए या जनता के बढ़ रहे असंतोष को भावनाओं के नाम पर खेल में बदल दिया जाए। दरअसल आज हर चीज राजनीतिक नजरिया, नफे-नुकसान के चश्मे से देखी जा रही है। ऐसे में जनता की आवाज उठाने वाले संघर्षशील लोगों सहित साहित्यकर्मियों, संस्कृतिकर्मियों, मीडियाकर्मियों, व्यंग्यकार, कामेडियन, कार्टूनिस्ट सब निशाने पर लिए जा रहे हैं। यही फासीवादी निजाम के मजबूत होने की निशानी है। काश किसी दिन जनता की भावनाएं इनके कुकर्मों से आहत हो गईं तो उस दिन न जाने क्या होगा और यह इतिहास के किस नैपथ्य में पहुंचा दिए जाएंगे।

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