
पिछले दिनों भारत के हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज सवालों के घेरे में आ रहे हैं। ये सवाल अलग-अलग कोणों से उठ रहे हैं। इनमें भ्रष्टाचार से लेकर संवैधानिक दायित्वों तक से जुड़े सवाल शामिल हैं। इन सवालों ने लोकतंत्र रूपी इमारत के न्याय व्यवस्था रूपी स्तम्भ पर सवालिया निशान लगा दिये हैं।
ताजा मामला दो जजों का है। एक जज का नाम यशवंत वर्मा है जिसके घर में 15 करोड़ रुपये कैश मिले हैं और दूसरे जज का नाम राम मनोहर नारायण मिश्रा है जिसने एक मामले में फैसला देते हुए कहा कि किसी महिला के निजी अंग जैसे स्तन छूना और नाड़ा खोलना बलात्कार की कोशिश की श्रेणी में नहीं आता। इनमें एक मामला जहां भ्रष्टाचार से जुड़ा है वहीं दूसरा मामला न्यायालय की पुरुष प्रधान मानसिकता को दर्शाता है। इससे पहले हाईकोर्ट के एक जज ने विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में धर्म निरपेक्षता की धज्जियां उड़ाते हुए कहा था कि देश बहुसंख्यक आबादी के हिसाब से चलना चाहिए।
उससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट के जज चंद्रचूड़ सिंह ने खुलेआम अपने आपको मंदिरों में पूजा करते हुए दिखाया और अयोध्या में राम मंदिर बनाने जैसे फैसले को ईश्वर से प्रेरित बताया गया। यह सब कुछ जो भी हो कम से कम भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना के अनुकूल तो कतई नहीं था।
न्यायालयों में भ्रष्टाचार कोई नया नहीं है। जज की कुर्सी के नीचे बैठा पेशकार रिश्वत लेकर ही फाइल खोलता और बंद करता है, यह जगजाहिर है। लेकिन एक जज के घर 15 करोड़ कैश मिलना न केवल न्याय व्यवस्था में मौजूद भारी भ्रष्टाचार को दिखाता है बल्कि इतनी भारी रकम का मिलना इस बात को भी दिखाता है कि कहीं न कहीं जज अपने फैसलों से न्याय को ही पलट दे रहे होंगे।
इसी तरह समय-समय पर महिला विरोधी सोच भी न्यायालयों के जजों द्वारा जाहिर की जाती रही है। अब चाहे वो जज महिला ही क्यों न हो। बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की एक महिला जज पुष्पा गनेडीवाला ने जनवरी 2021 में स्किन टू स्किन वाला एक फैसला सुनाया था जिसमें जब तक पुरुष का निजी अंग महिला के निजी अंग में प्रवेश नहीं करता तब तक पॉक्सो में मामला नहीं बनता है। हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया था और कहा कि किसी बच्चे के यौन अंगों को छूना या यौन इरादे से शारीरिक सम्पर्क से जुड़ा कोई भी काम पॉक्सो एक्ट की धारा 7 के तहत यौन हमला माना जायेगा। भंवरी देवी कांड में न्यायालय की पुरुष प्रधान मानसिकता के साथ जातिवादी मानसिकता भी उभर कर सामने आयी थी।
भ्रष्टाचार वाले मामले में यशवंत वर्मा का रिकार्ड देखा जाये तो स्थिति की गंभीरता का पता चलता है। ये वही जज हैं जिन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज रहते हुए बलात्कार के आरोपी कुलदीप सेंगर को अंतरिम जमानत दी थी। दिल्ली हाईकोर्ट का जज रहते हुए उन्होंने टेलीकाम कम्पनी को फायदा पहुंचाने वाला एक फैसला दिया था जिसमें टावर को कम्पनी की चल सम्पत्ति माना गया था। इस फैसले से टेलीकॉम कम्पनियों को भारी लाभ मिला था।
कुछ समय पहले उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में यह कहा था कि सभी जज अपनी सम्पत्तियों का ब्यौरा अपनी इच्छा से इंटरनेट पर डालें लेकिन परिणाम क्या हुआ। 763 न्यायमूर्तियों में से केवल 57 ने ही सम्पत्ति का ब्यौरा दिया यानी मात्र 7 फीसदी। 18 हाईकोर्ट के किसी भी जज ने कोई विवरण नहीं दिया। विवरण न देने वालों में यशवंत वर्मा भी थे।
निर्भया कांड के बाद देश में यौन अपराधों के लिए कड़े कानून बनने की मांग उठी और उसके बाद कड़े कानून बने भी लेकिन कुलदीप सेंगर जैसे बलात्कारी विधायक को जमानत मिल जाना, ब्रज भूषण जैसे ताकतवर आदमी को सत्ता का पूरा संरक्षण मिलना और जब तक बलात्कार न हो जाए तब तक बलात्कार के प्रयासों को संज्ञान में न लेने का फैसला ऐसे कड़े कानूनों को धता बता देता है। इन कानूनों की गिरफ्त में अक्सर गरीब पृष्ठभूमि के अपराधी ही फंसते हैं।
धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्यों की सरेआम धज्जियां भी न्यायालयों द्वारा खूब उड़ाई जा रही हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा राम मंदिर के बारे में फैसले में स्वीकारोक्ति और गणेश पूजा पर प्रधानमंत्री मोदी का उनके घर पर शामिल होना न्यायालय और विधायिका की बीच के अंतर को धूमिल कर देता है।
दरअसल आज पूंजीवादी लोकतंत्र की हर संस्था अपनी सडांध को ही अभिव्यक्त कर रही है। न्यायालय और उनके अंदर बैठे जज भी इसी पूंजीवादी लोकतंत्र के प्रहरी हैं। जैसे-जैसे पूंजीवादी लोकतंत्र सड़ रहा है तो इसकी रक्षा को तैनात प्रहरी भी अपना पर्दा उतार नग्न होते जा रहे हैं।