यह यहां नहीं हो सकता

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एक लंबे समय तक पश्चिमी साम्राज्यवादियों और उनके चाटुकारों ने वहां मौजूद उदार पूंजीवादी जनतंत्र के बारे में कुछ मिथक गढ़ कर इतना प्रसारित किया कि इनके आलोचकों को भी इन पर विश्वास होने लगा। इन मिथकों को एक तरह से सत्य मान लिया गया।
    
कहा गया कि पश्चिम के विकसित देशों में जनतांत्रिक विचार और संस्थाएं इतनी मजबूत हैं कि आसानी से उन्हें नहीं हिलाया जा सकता। वे इस कदर मजबूत हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा चाहने वाले लोगों को भी उनसे तालमेल बैठा कर ही चलना होगा। उन्हें नए समाज के निर्माण के लिए पूंजीवादी जनतंत्र के जरिए ही काम करना होगा। इसी तर्क पद्धति का अनुसरण करते हुए इन देशों की सुधारवादी कम्युनिस्ट पार्टियों ने समाजवाद कायम करने के लिए संसदीय रास्ते का एलान कर दिया। 
    
यहां यह गौर करने की बात है कि यह सारी बातें इतिहास की सामान्य सच्चाइयों को नकार कर हो रही थीं। पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में सार्विक मताधिकार वाला पूंजीवादी जनतंत्र केवल बीसवीं सदी की चीज था। इसे भी मजदूर वर्ग के कठोर संघर्षों के द्वारा रूसी क्रांति के दबाव में ही हासिल किया जा सका था। इन मिथकों के सबसे बड़े प्रचारक संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में तो 1960 के दशक तक अश्वेत लोगों को बराबर के नागरिक मताधिकार हासिल नहीं थे।
    
इन देशों में यदि पूंजीवादी जनतंत्र असल में किसी के लिए था तो वह बस पूंजीपति वर्ग के लिए। और पूंजीपति वर्ग के लिए इस जनतंत्र की कोई खास अहमियत नहीं होती। उसके लिए अपना मुनाफा और मुनाफे वाली व्यवस्था की सुरक्षा ही सर्वोपरि होती है। इन दोनों के लिए वह किसी भी राजनीतिक व्यवस्था से तालमेल बैठा सकता है- राजशाही, एकतंत्र, सैनिक तानाशाही, फासीवाद सभी से।
    
ऐसे में यदि पूंजीवादी जनतंत्र का जनता तक विस्तार होता है तो केवल मजदूर-मेहनतकश जनता के संघर्षों के द्वारा ही। इनके अभाव में यह जनतंत्र सिमट सकता है। स्वयं पूंजीवादी जनतंत्र में ऐसा कुछ नहीं होता कि वह बना ही रहेगा। दरअसल इस जनतंत्र को सबसे बड़ा खतरा स्वयं पूंजीपति वर्ग की ओर से ही होता है। यदि जनता तक जनतंत्र का विस्तार पूंजीपति वर्ग से संघर्ष कर ही हासिल किया जाता है तो यह स्वाभाविक है कि पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे और मुनाफे की व्यवस्था के हित में इसे समेटने के लिए उद्यत भी रहेगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो केवल इसीलिए उसे अभी इसकी जरूरत महसूस नहीं होती। 
    
इसलिए पूंजीवादी जनतंत्र के लिए यह कभी नहीं कहा जा सकता कि ‘यह यहां नहीं हो सकता’ यानी पूंजीवादी जनतंत्र खतरे में नहीं पड़ सकता। एक लंबे समय तक यह माना जाता रहा है कि पूंजीवादी जनतंत्र को खतरा पिछड़े पूंजीवादी देशों में ही होता है जहां जनतांत्रिक विचार और संस्थाएं बहुत मजबूत नहीं होते। लेकिन पश्चिम के विकसित देशों में ऐसा नहीं हो सकता। 
    
मजे की बात यह है कि इस तरह की बातें 1920-30 के दशक में फासीवाद-नाजीवाद के कठोर अनुभव के बाद की गईं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूंजीवादी प्रचारकों ने इटली और जर्मनी के फासीवाद-नाजीवाद को पूंजीवादी जनतंत्र के लिए खतरा तो माना पर उसे कोई ऐसी पराई पूंजीवादी व्यवस्था घोषित कर दिया जिसने इटली और जर्मनी की विशेष परिस्थितियों में उन पर कब्जा कर लिया था। ऐसा करते हुए वे सुविधापूर्वक यह भूल गए कि कभी इटली और जर्मनी को बहुत ऊंची निगाह से देखा जाता था। इटली पुनर्जागरण के शहरों का देश था और जर्मनी धर्म सुधार आंदोलन का। नाजियों के जर्मनी पर कब्जा करने से पहले तक उसे बहुत सभ्य  सुसंस्कृत देश माना जाता था तथा कहा जाता था कि पागल नाजी कभी भी जर्मनी में बड़ी ताकत नहीं बन सकते। सभ्य सुसंस्कृत जर्मनी उनके बहकावे में नहीं आ सकता। ‘यह यहां नहीं हो सकता’।
    
इतिहास के इन सारे ही सबकों का एक ही मतलब है। वह यह कि ‘यह यहां नहीं हो सकता’ पूंजीपति वर्ग के चाटुकारों द्वारा फैलाया गया मिथक भर है जो जीवन की वास्तविक गति द्वारा कभी भी तार-तार किया जा सकता है। और वह इस समय यूरोप व अमेरिका में किया जा रहा है।
    
इस समय डोनाल्ड ट्रंप का संयुक्त राज्य अमेरिका खास सुर्खियों में है क्योंकि ट्रंप पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर खलली सरदार साबित हो रहे हैं यानी वे सारी चीजों को तहस-नहस कर रहे हैं। ट्रंप न केवल अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में खलल पैदा कर रहे हैं बल्कि स्वयं देश के भीतर भी बड़े पैमाने का खलल डाल रहे हैं।
    
जैसा कि अंग्रेजी मुहावरा कहता है, इस सारे पागलपन में एक प्रणाली या पद्धति है (मेथड इन मैडनेस)। यानी ऊपरी तौर पर जो चीजें इतनी अजीबो-गरीब लगती हैं उनमें एक प्रणाली छिपी होती है। सरसरी निगाह से देखने पर जो हरकतें ऊट-पटांग लगती हैं, ध्यान से देखने पर उनमें एक तस्वीर छिपी नजर आती है।
    
आज ट्रंप द्वारा जो किया जा रहा है (और जिसे रिपब्लिकन पार्टी का समर्थन हासिल है) उसका एक मकसद है। उसकी एक पृष्ठभूमि है। 
    
पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा। रही-सही कसर चीन में शी-जिनपिंग के अभ्युदय ने पूरी कर दी जिन्होंने नयी सदी के दूसरे दशक में अपनी बेल्ट एण्ड रोड परियोजना के जरिए सारी दुनिया के सामने घोषित कर दिया कि चीन अब विश्व पटल पर आ धमका है। अमरीकी साम्राज्यवादियों की ‘इक्कीसवीं सदी’ की परियोजना भले ही परवान न चढ़ी हो पर ‘बेल्ट एण्ड रोड’ परियोजना चल निकली। 
    
अमरीकी साम्राज्यवाद के सापेक्षिक पराभव के अहसास पर अमरीकी साम्राज्यवादियों में एकता है। यानी सभी यह महसूस करते हैं कि दुनिया भर में अमेरिका की अब वह हैसियत नहीं है जो कभी हुआ करती थी। लेकिन इस पराभव को रोकने के लिए किया क्या जाये इस पर एकता नहीं है। इस पर अमेरिकी साम्राज्यवादी बंटे हुए हैं और पिछले एक-डेढ़ दशक में उनके बीच मतभेद बढ़ते गये हैं। ट्रंप के नेतृत्व में ये मतभेद शत्रुता की हद तक जा रहे हैं, जैसे मोदी के नेतृत्व में भारत में पूंजीवादी दायरों में राजनीतिक मतभेद शत्रुता की हद तक बढ़ रहे हैं। अमेरिका में 2020 तक यदि इस मामले में कोई भ्रम था तो अब वह दूर हो रहा है। 
    
अमेरिकी साम्राज्यवादियों का डेमोक्रेटिक पार्टी वाला हिस्सा अभी भी पुराने रास्ते पर चलना चाहता है पर रिपब्लिकन पार्टी वाला हिस्सा अधिकाधिक आश्वस्त होता जा रहा है कि पुराने रास्ते को तहस-नहस किये बिना कुछ नहीं किया जा सकता। शुरू में रिपब्लिकन पार्टी के भी थोड़े ही लोग इस नतीजे तक पहुंचे थे। पर समय के साथ ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गयी है और अब ट्रंप के राष्ट्रपति की कुर्सी पर पुनअर्वतरण के बाद रिपब्लिकन पार्टी में ऐसे लोगों का बहुमत हो गया है। और ठीक इसी कारण दोनों पार्टियों के बीच टकराव भी बहुत बढ़ गया है। ट्रंप आज एक अकेला सनकी बुड्ढा नहीं है। बल्कि वे रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
    
किसी भी देश की विदेश नीति असल में देश की अंदरूनी राजनीति का ही विस्तार होती है। इसीलिए यदि कोई साम्राज्यवादी देश अपने विदेशी संबंधों में उथल-पुथल मचा रहा होता है तो वह अंदरूनी संबंधों में ऐसा किये बिना नहीं रह सकता। 
    
ठीक इसी कारण डोनाल्ड ट्रंप भी देशी-विदेशी सभी जगह किसी हद तक उथल-पुथल कर रहे हैं। यह सब अंततः कहां तक जाकर ठहरता है, अभी कहा नहीं जा सकता पर ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिकी साम्राज्यवादियों की मंशा साफ है। 
    
अंदरूनी तौर पर ट्रंप उन सारी चीजों को पलटना चाहते हैं जो पिछले पचास सालों में अमेरिकी समाज में प्रगतिशील कदम रहे हैं। ऐसा करने के लिए ट्रंप के अपने विश्वास हों न हों पर आज वे जिनके नेता हैं उनका ऐसा विश्वास जरूर है। (ऐसा कहने की वजह यह है कि मोदी के विपरीत ट्रंप ने 1987 से 2021 के बीच अपनी राजनीतिक निष्ठायें पांच बार बदलीं। वे 2001 से 2009 तक डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ रहे जब पहली बार ‘इक्कीसवीं सदी’ की परियोजना को जार्ज बुश जूनियर के नेतृत्व में परवान चढ़ाने का प्रयास किया गया था)।    
    
1960 के दशक में नागरिक अधिकार आंदोलन के बाद सं.रा.अमेरिका में नागरिक अधिकारों का विस्तार हुआ। अश्वेत आबादी को कई नागरिक अधिकार हासिल हुए। महिलाओं के अधिकारों में भी वृद्धि हुई। समय के साथ अन्य प्रगतिशील कदम भी उठाये गये जिनमें ‘सकारात्मक कदम’ प्रमुख थे (भारत में आरक्षण की तरह)। यह सारा कुछ प्रगतिशील आंदोलनों के दबाव में हुआ था और धुर दक्षिणपंथी इस सबके सख्त खिलाफ थे। विरोध तो डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर भी था पर तब वे समाजवाद के दबाव में इसे सहन करने को तैयार थे। उन्हें सोवियत खेमे से स्वयं को बेहतर भी साबित करना था। 
    
वहां धुर दक्षिणपंथियों ने या रिपब्लिकन पार्टी ने इन कदमों को निरस्त करने के लिए भांति-भांति के तरीके अपनाए। पर चूंकि चुनावों में दोनों पार्टियों की सत्ता में अदला-बदली होती रहती थी, इसलिए वे इसमें कुछ ही सफल हो पाते थे। तब भी उन्होंने इन प्रगतिशील कदमों को, जो पहले भी सीमित ही थे, और भी सीमित करने में सफलता हासिल की। इन्हीं कारणों से अमेरिका में कल्याणकारी राज्य कभी बहुत बेहतर नहीं रहा हालांकि वह सारी दुनिया को लूटने में सबसे आगे था।
    
अब ट्रंप इन प्रगतिशील कदमों को थोक के भाव समेटना चाहते हैं। इसके जरिये वे अपने समर्थकों को और दृढ़ता से अपने पीछे गोलबंद करना चाहते हैं। अमेरिका में धुर दक्षिणपंथी अपने डेमोक्रेटिक प्रतिद्वन्द्वियों के मुकाबले ज्यादा विचारधारात्मक हैं। यानी उनके विचार ज्यादा पक्के हैं और वे चाहते हैं कि ट्रंप प्रशासन उनके विश्वासों को जमीन पर उतारे। ये पिछले पचास सालों के प्रगतिशील कदमों को अमेरिकी समाज के लिए घातक मानते हैं और इसीलिए चाहते हैं कि इन कदमों को वापस लिया जाये। वे आज अमेरिका के पराभव के लिए भी इन्हीं चीजों को जिम्मेदार मानते हैं। इसीलिए उनकी नजर में बाहरी और अंदरूनी संकट का कारण एक हो जाता है। 
    
यहां यह रेखांकित करना होगा कि कोई जरूरी नहीं है कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों के सरदार भी इन विचारों में आस्था रखते हों। जैसा कि ट्रंप के बारे में बताया गया है, वे अमरीकी राजनीति में एक तरह से अवसरवादी हैं। वे असल में एक व्यवसायी हैं। आज उनके बगलगीर दुनिया के सबसे धनी आदमी एलन मस्क भी इसी तरह के व्यवसायी और अवसरवादी हैं। ज्यादा समय नहीं हुआ जब वे डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक हुआ करते थे। इसी तरह ट्रंप के राष्ट्रपति पद के शपथ ग्रहण समारोह में जो वहां के सबसे बड़ी कंपनियों के मुखिया लाइन लगा कर खड़े थे, वे सारे अवसरवादी हैं। अभी कल तक वे ट्रंप से दूरी बनाये हुए थे। 
    
लेकिन इन सरदारों को आज यह लगता है कि ट्रंप और उनकी नीतियां उनके मुनाफे के लिए और अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए काम की साबित हो सकते हैं। कम से कम वे इनमें अपनी कंपनियों का मुनाफा तो देख ही रहे हैं। 
    
कहा जा सकता है कि यदि ट्रंप को यह सब करना ही था तो इतना शोर-गुल मचाने की क्या जरूरत थी? इसे चुपके-चुपके भी किया जा सकता था। पर यदि ट्रंप लम्बे समय में चुपके-चुपके यह सब करते तो उसका यह प्रभाव नहीं पड़ता जो पड़ रहा है। तब सारी दुनिया उन पर बात नहीं करती। तब उनके समर्थक उनके पीछे नहीं खड़े होते। इसके उलट वे उनसे छिटक भी सकते थे। और कुछ नहीं तो अपने समर्थकों को टिकाये रखने के लिए ही उन्हें इस तरह के कदमों को उठाना जरूरी था।
    
दूसरे, उनके कदमों का व्यवस्था के भीतर से विरोध होना स्वाभाविक था। नौकरशाही से लेकर न्यायालय तक सभी जगह ऐसे लोग हैं जो इन कदमों का विरोध करते। उनके विरोध को निरस्त करने के लिए ट्रंप को ऐसे तौर-तरीके अपनाने पड़े जो कानूनी सीमा को लांघते हों। यह हैरत की बात नहीं है कि एक ‘सलाहकार’ ट्रंप के बाद अमेरिका में सबसे बड़े अधिकारी की हैसियत से पेश आ रहा है। 
    
डोनाल्ड ट्रंप और उनके प्रशासन का ताजा व्यवहार इस बात का सबूत है कि ‘यह यहां नहीं हो सकता’ केवल एक मिथक है। अमेरिकी समाज के संकटग्रस्त होने के बावजूद वह संकट उस स्तर का नहीं है जो पिछड़े पूंजीवादी देशों में है। इसके बावजूद यदि वहां का राष्ट्रपति बाहर-भीतर सब जगह तहस-नहस पर उतरा हुआ है और कानूनी-गैर कानूनी सीमाएं लांघ रहा है तो यह समझा जा सकता है कि समय आने पर वहां भी वही हो रहा होगा जो पिछड़े पूंजीवादी देशों में आये दिन होता है। आज रिपब्लिकन पार्टी के नेता अपनी सारी जनतांत्रिक मर्यादाएं भूल गये हैं। कल को डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता भी भूल जायेंगे।
    
आज सारी दुनिया में ही पूंजीवादी जनतंत्र अपने भस्मासुरों के आतंक से पीड़ित हैं। पर इनसे पूंजीवादी जनतंत्र को बचाने के लिए मजदूर वर्ग मोहिनी बनकर नहीं आने वाला। पूंजीवादी जनतंत्र को अपने अंजाम तक पहुंचना ही होगा। 

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