ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद की दुनिया की संभावित तस्वीर

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शपथग्रहण के पहले पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपनी प्रशासन की प्राथमिकताओं की घोषणा करना शुरू कर दिया है। वैसे भी, अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी वे कुछ घोषणायें करते रहे हैं। लेकिन जीतने के बाद उनकी घोषणायें अमरीकी साम्राज्यवाद के दोस्तों और दुश्मनों, दोनों को परेशानी में डाल रही हैं। ट्रम्प की अमरीका को फिर से महान बनाने के सपने को पूरा करने की योजनायें उनके मित्रों को सकते में डाल रही हैं। उन्होंने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य हो जाना चाहिए। पनामा नहर पर नियंत्रण फिर से अमरीका को कर लेना चाहिए। आगे उन्होंने घोषणा की कि ग्रीनलैण्ड को डेनमार्क से अलग करके उस पर अमरीका का नियंत्रण होना चाहिए। इस सबका मकसद उन्होंने बताया कि यह अमरीका की सुरक्षा के लिए जरूरी है। ट्रम्प के अनुसार, ग्रीनलैण्ड के पास दुर्लभ मृदा खनिज हैं, जिस पर चीनी कम्पनियों की पहुंच है। इसके अतिरिक्त रूस और चीन आर्कटिक रास्ते के जरिए अपने प्रभाव का विस्तार कर रहे हैं और यह अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए अस्वीकार्य है। इसलिए अमरीका के राष्ट्रीय हित की मांग है कि ग्रीनलैण्ड को अमरीका में मिला लिया जाए। इसके पहले, अपने प्रथम राष्ट्रपतित्व काल में वे डेनमार्क से ग्रीनलैण्ड को खरीदने की बात कर चुके थे। उस समय डेनमार्क ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया था कि ग्रीनलैण्ड बिक्री के लिए नहीं है। इस बार भी डेनमार्क की सरकार और ग्रीनलैण्ड की स्वायत्त सरकार ने इससे असहमति व्यक्त की है। यूरोपीय संघ के देशों ने भी इसे अस्वीकार कर दिया है। लेकिन ट्रम्प ने कहा कि अगर जरूरत पड़ी तो इस पर सैन्य कार्रवाई भी की जा सकती है। यदि डेनमार्क इसके लिए राजी नहीं होता तो उसके ऊपर तटकर बढ़ाया जायेगा। ग्रीनलैण्ड में पहले से ही अमरीकी फौजी अड्डा कायम है। अब ट्रम्प की योजना उसे हड़पने की है। 
    
ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है। 
    
यही हाल पनामा नहर पर पनामा सरकार के नियंत्रण को छीनकर अमरीका के नियंत्रण में लाने के बारे में है। ट्रम्प का कहना है कि पनामा नहर के जरिये माल के आवागमन में अमरीका के साथ भेदभाव होता है, कि पनामा नहर पर चीनी कम्पनियों का नियंत्रण स्थापित हो गया है। अमरीका चीन के नियंत्रण को बर्दाश्त नहीं कर सकता। यदि पनामा सरकार इस नहर को अमरीका के हवाले नहीं करती तो ट्रम्प ने पनामा के निर्यात पर तटकर बढ़ाने की धमकी दी है। पनामा नहर का संचालन करने वाली स्वायत्त संस्था ने ट्रम्प के इस आरोप का खण्डन किया है कि अमरीका के मालों के पारगमन में किसी तरह का भेदभाव होता है और कि पनामा नहर का नियंत्रण चीनी कम्पनियां करती हैं। यह ज्ञात हो कि पनामा नहर अटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर को जोड़ने वाली नहर है। इस नहर के जरिए मालों का पारगमन होता है। 
    
इसी तरह की बातें मैक्सिको की खाड़ी का नाम बदलकर अमरीका की खाड़ी करने की बात ट्रम्प ने यह कहकर की है कि यह सुनने में अच्छा लगता है। इसका भी मैक्सिको की सरकार ने विरोध किया है। 
    
दरअसल ट्रम्प उन्नीसवीं सदी के मुनरो सिद्धान्त को आज भी इक्कीसवीं सदी में लागू करना चाहते हैं। उस समय के राष्ट्रपति मुनरो ने लातिन अमरीका को अमरीका का पार्श्वभाग कहकर उसको अपना विशिष्ट और अकेला प्रभाव क्षेत्र घोषित किया था। यह घोषणा विशेष तौर पर यूरोपीय उपनिवेशवादियों के विरुद्ध थी। तब से लातिन अमरीका अमरीका का विशेष प्रभाव क्षेत्र लगभग बीसवीं सदी के मध्य तक रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादी इन देशों में तख्तापलट कराके अपनी समर्थक सरकारें और सैनिक तानाशाहियां स्थापित करते रहे हैं। लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से वहां अमरीकी साम्राज्यवाद विरोधी सरकारें आने लगीं। आज क्यूबा, वेनेजुएला, निकारागुआ और कई ऐसे देशों में अमरीकी साम्राज्यवाद की किसी न किसी मात्रा में विरोध करने वाली सरकारें हैं। इसके अतिरिक्त, चीन की बेल्ट और रोड इनीशियेटिव परियोजना के साथ लातिन अमरीका के कई देश जुड़ रहे हैं। इन देशों में चीन ने बंदरगाह बनाये हैं, रेल व जल मार्ग का निर्माण किया है और करता जा रहा है। पनामा नहर के दोनों छोरों के पास उसने अपने कंटेनर डिपो का निर्माण किया है। पनामा नहर के अलावा अटलांटिक और प्रशांत महासागर को जोड़ने वाले वैकल्पिक मार्गों का वह निर्माण कर रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादियों के पृष्ठभाग कहे जाने वाले लातिन अमरीकी देशों के साथ चीन का व्यापार बढ़ता जा रहा है। इससे ट्रम्प की ‘‘अमरीका प्रथम’’ और ‘‘अमरीका को फिर से महान बनाने’’ की योजना को सीधे खतरा दिखाई पड़ रहा है। 
      
इस खतरे से निपटने के लिए वे दुनिया के माफिया सरदार की तरह आचरण कर रहे हैं। वैसे भी, अमरीकी साम्राज्यवादी कभी भी किसी देश की सम्प्रभुता और उसकी एकता व अखण्डता की इज्जत नहीं करते रहे हैं। वे ‘हुकूमत परिवर्तन’, ‘रंगीन क्रांतियां’ कराकर देशों की सरकारें गिराते रहे हैं। देशों के टुकड़े-टुकड़े करते रहे हैं। लेकिन इस बार ट्रम्प ने अपने मित्र देशों को अपना निशाना बनाया है। ये सारे देश अमरीकी साम्राज्यवादियों के समर्थक देश है। कनाडा, डेनमार्क, पनामा और मैक्सिको अमरीकी साम्राज्यवादियों के सहयोगी देश हैं। अब ट्रम्प अपने सहयोगियों पर प्रहार कर रहे हैं, उनके स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करने की ओर चलने का इरादा व्यक्त कर रहे हैं। 
    
इसी प्रकार, ट्रम्प ने नाटो देशों से कहा है कि वे अपने सकल घरेलू उत्पाद का 5 प्रतिशत हिस्सा रक्षा खर्च की मद में खर्च करें। अभी तक नाटो देश अपने जीडीपी का लगभग 2 प्रतिशत रक्षा खर्च की मद में खर्च कर रहे हैं। नाटो देशों में इस सवाल पर नाराजगी नजर आ रही है। इसके अतिरिक्त ट्रम्प द्वारा तटकर बढ़ाने के फैसले के एलान से यूरोपीय देशों में चिंता व्याप्त हो गयी है। ट्रम्प चाहते हैं कि यूरोपीय देश चीन के साथ व्यापार न करें, यह भी यूरोपीय संघ के देशों को स्वीकार नहीं है। 
    
जब से ब्रिक्स देशों ने आपसी व्यापार सम्बन्धों में अपनी परस्पर मुद्राओं में लेन-देन करने का फैसला लिया है, तब से अमरीकी साम्राज्यवादियों को डालर के प्रभुत्व पर खतरा नजर आ रहा है। इससे निपटने के लिए ट्रम्प ने धमकी दी है कि यदि ब्रिक्स के देश डालर में लेन-देन नहीं करते हैं तो उनके निर्यात को प्रतिबंध या उच्च तटकर का सामना करना पड़ेगा। ट्रम्प की इस धमकी के बावजूद ब्रिक्स लगातार मजबूत होता जा रहा है। वे अभी तो अपनी-अपनी मुद्रा के जरिए आपसी लेन-देन कर रहे हैं, भविष्य में वे डालर से स्वतंत्र ब्रिक्स की अपनी लेन-देन प्रणाली विकसित करने की योजना बना रहे हैं। 
    
एक तरफ ट्रम्प आप्रवासियों को अमरीका से निष्कासित करने की योजना घोषित कर रहे हैं, और दूसरी तरफ अमरीका में लम्बे समय से विऔद्योगीकरण की जो प्रक्रिया चल रही है, उसे औद्योगीकरण के रास्ते में ले आने की उनकी कोई योजना नहीं है। ट्रम्प जब यह घोषणा करते हैं कि विदेशी आप्रवासियों ने यहां के लोगों के रोजगारों पर कब्जा कर रखा है और नये रोजगारों का सृजन करने की कोई योजना वे पेश नहीं करते हैं तो उनकी यह नीति बेमतलब की हो जाती है। एच1बी1 वीजा प्रणाली को कठोर करने की उनकी घोषणा विदेशों से आने वालों के लिए रुकावट का काम करेगी। लेकिन पहले से मौजूद बेरोजगारी को रोकने का उनके पास कोई उपाय नहीं है। 
    
अभी हाल ही में जापान की निप्पन कम्पनी ने सौ अरब डालर में अमरीका की यूनाइटेड स्टील कम्पनी का अधिग्रहण कर लिया। इस अधिग्रहण पर बाइडेन हुकूमत ने रोक लगा दी। जापानी सरकार और अमरीकी सरकार के बीच इस सवाल पर टकराव हो गया। ट्रम्प प्रशासन इस टकराव से कैसे निपटेगा, यह आने वाले समय में तय होगा। ट्रम्प जापान और दक्षिण कोरिया में तैनात अमरीकी सेना के ऊपर होने वाले खर्च का भार उठाने के लिए उन सरकारों पर दबाव बनाने की बात कर रहे हैं। 
    
कुल मिलाकर, ट्रम्प अपने प्रशासन की नीतियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन के खतरे को केन्द्र में रखकर घोषित कर रहे हैं। चीन से न तो अमरीका औद्योगिक स्तर पर मुकाबला कर पा रहा है और न ही वह विश्व बाजार में उसके सामने प्रतिस्पर्धा में टिक पा रहा है। अभी तक अमरीकी साम्राज्यवाद अपनी दो बड़ी ताकतों के बल पर विश्व में अपना प्रभुत्व बनाये रखे हुए था। पहला, विश्व की लेन-देन व्यवस्था में डालर का एकाधिकार। दूसरा, इसकी विश्वव्यापी सैन्य ताकत। डालर का एकाधिकार कमजोर होता जा रहा है। विश्व व्यापार में चीन के मुकाबले अमरीका का व्यापार कम हुआ है। अभी सैन्य ताकत में उसकी वरीयता मौजूद है। लेकिन यह भी समय की बात है कि कब तक यह बनी रहेगी। ट्रम्प अपनी सैन्य ताकत के बल पर दुनिया को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। यहीं से दोस्तों को डराने-धमकाने का तरीका अपनाने की उनकी नीति बनती है। 
    
इस डराने-धमकाने की ट्रम्प की नीति ने अमरीकी साम्राज्यवाद के दोस्तों को परेशानी में डाल दिया है। कुछ इनके दोस्त ट्रम्प को सनकी कह रहे हैं। कुछ ट्रम्प के इन कदमों को पागलपन भरा कदम बता रहे हैं। लेकिन ट्रम्प चीन के मुकाबले अपने प्रभुत्व को बनाये रखने के लिए ये कदम उठा रहे हैं। 
    
इससे न सिर्फ अमरीकी और चीनी-रूसी साम्राज्यवादियों के बीच टकराहट बढ़ेगी बल्कि खुद अमरीका और उसके सहयोगी अन्य साम्राज्यवादियों के बीच अंतरविरोध बढ़ेंगे। और यहां तक कि टकराहटों का बढ़ना भी लाजिमी है। 
    
यह स्पष्ट है कि ट्रम्प के दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में पहले से उथल-पुथल भरी दुनिया में और भी उथल-पुथल बढ़ेगी।  

 

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