कश्मीर में नशाखोरी

/kashmir-mein-nashaakhori

कश्मीर इस समय भयंकर नशे की चपेट में है। और यह नशा शराब या भांग का नहीं है बल्कि ज्यादा घातक नशीले पदार्थों का है। युवा आबादी इस नशे की चपेट में ज्यादा है। 
    
कश्मीर के हालात से परिचित लोगों का कहना है कि कश्मीर में नशाखोरी की समस्या 2019 से ज्यादा तेजी से बढ़नी शुरू हुई- धारा-370 को निष्प्रभावी बनाने के बाद। अब यह नशाखोरी महामारी के स्तर तक जा पहुंची है। 
    
2019 से कश्मीर में नशाखोरी का इस तरह तेजी से बढ़ना सहज ही सवाल पैदा करता है कि क्या यह संयोग मात्र है? बहुत सारे भलेमानस किस्म के लोग स्वयं को यह भरोसा दिलाना चाहेंगे कि हो सकता है कि यह धारा-370 के निष्प्रभावी किये जाने के बाद युवाओं में फैली हताशा-निराशा का परिणाम हो। लेकिन इसके बरक्स सच्चाई यही है कि 2019 से कश्मीर में जमीनी हालात में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं हुए। कश्मीर उसके पहले भी सेना की संगीनों तले था और इसके बाद भी। फिर यह नयी परिघटना क्यों? यहां यह याद रखना होगा कि 2019 के बाद आतंकवादी गतिविधियों में स्थानीय युवकों की भागीदारी बढ़ी है। 
    
इस परिघटना को बेहतर तरीके से समझने के लिए पंजाब से तुलना शायद बेहतर होगी। कई  सालों से पंजाब में नशाखोरी की समस्या एक जानी-पहचानी चीज है। इस समस्या पर एक बंबईया फिल्म भी बन चुकी है। इस समस्या के विकराल होने पर वहां के लिए भी भलेमानसों ने यह बात की कि इस समस्या की जड़ में पंजाब में आतंकवाद के खात्मे के बाद युवाओं में फैली निराशा और हताशा थी। बड़े पैमाने की बेरोजगारी को भी इसका जिम्मेदार बताया गया।
    
लेकिन हताशा-निराशा और बेरोजगारी इस बात का स्पष्टीकरण नहीं कर पाते कि सरकारी मशीनरी नशाखोरी को रोक क्यों नहीं पाती? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि युवा आबादी में बेरोजगारी और हताशा-निराशा तो बाकी देश में भी है। तब फिर इन्हीं प्रदेशों के युवा नशाखोरी की ओर क्यों जा रहे हैं? क्या उग्रवाद युवाओं के लिए इतना बड़ा आकर्षण था? क्या उग्रवादी लक्ष्य सारे ही युवाओं के लिए जीवन का अहं लक्ष्य था कि उसके धूल-धूसरित हो जाने के बाद वे नशे में डूब गये। ऐसा नहीं लगता। 
    
उसके बदले दूसरी बात ज्यादा ठीक लगती है। वह यह कि नशाखोरी उग्रवाद की समस्या से निपटने के लिए सरकारी मशीनरी का एक हथियार हो सकती है। 
    
दुनिया भर की सरकारों का इतिहास रहा है कि वे अलग-अलग किस्म के उग्रवाद की समस्या से निपटने के लिए भांति-भांति के तरीके आजमाती रही हैं। इनमें से कुछ तरीके कानूनी तो कुछ गैर-कानूनी रहे हैं। पुलिस-सेना के द्वारा दमन से लेकर भीतर से उग्रवादी संगठनों को तोड़ना और उन्हें बदनाम करने के लिए भांति-भांति के तरीके अपनाना इनमें शामिल है। 
    
भारत की बात करें तो पंजाब, कश्मीर और पूर्वोत्तर सब जगह भारत सरकार ने इस तरह के तरीके इस्तेमाल किये हैं। सुल्फा, इखवान और सलवा जुडुम जैसे संगठनों को सरकार ने खड़ा किया। इसके अलावा सुरक्षा बलों द्वारा गुपचुप तरीके से उग्रवादियों के भेष में ऐसे घटिया कारनामे अंजाम दिये गये जिससे आम जनता में उनके खिलाफ नफरत पैदा हो। पंजाब में तो महिलाओं के साथ बलात्कार तक इसमें शामिल हैं। 
    
उग्रवाद से निपटने के इन सरकारी तरीकों के मद्देनजर यह बहुत दूरी की कौड़ी नहीं लगती कि पहले पंजाब और फिर कश्मीर में नशाखोरी की भयंकर समस्या उग्रवाद से निपटने के सरकारी तरीकों का एक हिस्सा हो। इस तरीके का एक और फायदा भी है। उग्रवाद की समस्या से निपटने में लगे हुए सरकारी अफसर और नेता इसके जरिये भारी कमाई भी कर सकते हैं। 
    
पंजाब में नशे के व्यवसाय में बड़े नेताओं और आला अफसरों के शामिल होने की बात आती रही है। वैसे भी लम्बे समय तक कहीं भी नशाखोरी का जाल बिना सरकारी मशीनरी की मिली-भगत के नहीं चल सकता। 
    
रही कश्मीर की बात तो कश्मीर न जाने कब से केन्द्र के कब्जे में है। 2018 से तो वहां केन्द्र का शासन ही रहा। केन्द्र में इस समय काबिज सरकार किसी भी कीमत पर कश्मीर पर काबू पाना चाहती है। ऐसे में क्या यह इतना अजीब लगता है कि कश्मीर के युवा नशे में डूब रहे हैं? वैसे भी गौतम अडाणी के मुंद्रा बंदरगाह पर आये दिन इतनी भारी मात्रा में नशीले पदार्थ क्यों पकड़े जाते हैं। क्या उनमें और कश्मीर में बढ़ती नशाखोरी में कोई सम्बन्ध नहीं है?

आलेख

/ceasefire-kaisa-kisake-beech-aur-kab-tak

भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

/terrosim-ki-raajniti-aur-rajniti-ka-terror

आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

/modi-government-fake-war-aur-ceasefire

युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

/fasism-ke-against-yuddha-ke-vijay-ke-80-years-aur-fasism-ubhaar

हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

/jamiya-jnu-se-harward-tak

अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।