
यह कितना अजीब लगता है कि बाइस-तेइस साल से राजसी ठाठ-बाट के साथ रहने वाला आदमी हर मौके-बेमौके सारी दुनिया को बताता है कि उसका बचपन कितनी गरीबी में बीता। ऐसा लगता है मानो वह यह बताते हुए बहुत गहरे आनंद का अनुभव कर रहा है।
बात देश के संघी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हो रही है। अभी कुछ दिनों पहले उन्होंने एक बार फिर अपने बचपन की गरीबी का रोना रोया या बखान किया। यह उनका प्रिय शगल है। और उसके लिए वह कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते।
मोदी द्वारा अपने बचपन की गरीबी का रोना रोने के दो उद्देश्य हैं। इनमें से एक राजनीतिक है तो दूसरा मनोवैज्ञानिक। राजनीतिक तौर पर मोदी देश की आम मजदूर-मेहनतकश आबादी को यह संदेश देना चाहते हैं कि वे उन्हीं में से एक हैं, कि वे उन्हीं में पैदा हुए हैं। इसके साथ ही वे अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी राहुल गांधी से अपनी भिन्नता भी दिखाना चाहते हैं। यह यूं ही नहीं है कि वे राहुल गांधी की पैदायश को लेकर तंज कसते रहते हैं।
मोदी की पृष्ठभूमि की बात करें तो यह सही है कि वे इस देश की आम जनता वाले हिस्से से आते हैं। लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि वे उतनी गरीब पृष्ठभूमि के नहीं हैं जैसा कि वे जताने का प्रयास करते हैं। उनके बचपन की तस्वीरें ही इस बात की गवाह हैं कि वे देश की नीचे की नब्बे प्रतिशत आबादी वाली पृष्ठभूमि के नहीं थे। 1950 के दशक में गांव के बहुत कम बच्चों को यह नसीब था कि वे टाई बांधकर फोटो खिंचवायें।
यानी मोदी अपने बचपन की गरीबी का चाहे जितना रोना रोयें पर सच यही है कि उनका परिवार तब भी समाज के ऊपरी दस प्रतिशत में ही आता था। यदि यह सच है कि उनके पिता का रेलवे स्टेशन पर चाय का स्टाल था तो वह भी इसी बात का एक और सबूत होगा।
यदि मोदी का परिवार उतना गरीब नहीं था तो फिर मोदी अपने बचपन की गरीबी का इतना रोना क्यों रोते हैं? लाल बहादुर शास्त्री और मनमोहन सिंह भी अपने बचपन में लगभग इसी तरह की पृष्ठभूमि के थे। पर उन लोगों ने तो प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने बचपन की गरीबी का इस तरह रोना नहीं रोया। फिर मोदी क्यों लगातार यह रोना रोते हैं?
इसका कारण मनोवैज्ञानिक है। इसके जरिये मोदी खुद को खास समझते हैं और समझाते हैं। देश के प्रधानमंत्री का पद बेहद खास पद है। वास्तव में वह देश में सबसे बड़ा पद है। उस पर बैठने वाला स्वतः ही खास हो जाता है। और जब वह व्यक्ति आम लोगों में पैदा हुआ हो तो वह खासम खास हो जाता है। मोदी स्वयं को और दूसरों को इस खासम खास की याद दिलाते रहते हैं।
पूंजीवाद की यह आम परिघटना है कि इसमें गरीबी से मध्यम वर्ग में पहुंचा हुआ व्यक्ति खुद को बहुत अहमियत देता है। वह गाहे-बगाहे अपने को ‘सेल्फ मेड’ का तमगा देता रहता है। यह उसके अहं को एक खास तरह की संतुष्टि देता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कतारों में ऐसे मध्यम वर्गीय लोगों की भरमार होती है। उसके ज्यादातर प्रचारक निम्न मध्यम वर्गीय पृष्ठभूमि के ऐसी ही सोच वाले लोग होते हैं। संघ में ऊपर चढ़ने के साथ उनका यह अहं बोध कम नहीं होता। और यदि वे मोदी की तरह चुनावी राजनीति में आयें और सफल हो जायें तब तो कहना ही क्या? तब भांग में धतूरा हो जाता है।
मोदी द्वारा अपने बचपन की गरीबी का यह बारंबार हवाला उनके अहं की संतुष्टि का ही एक और जरिया है। इसके द्वारा वह स्वयं को खासम खास महसूस करते हैं। पिछले तीस-पैंतीस सालों से ऐशो-आराम की जिन्दगी जीने वाला व्यक्ति जब याद करता है कि बचपन उसका कैसा था तब उसे अपनी उपलब्धियों पर खासा गर्व होता है। उसे भावनात्मक तौर पर ऊंचे नशे की अनुभूति होती है।
लेकिन इस तरह के भावनात्मक नशे की अनुभूति की जरूरत ही बताती है कि व्यक्ति कितना क्षुद्र और खोखला है। वह पूंजीवादी समाज में ऊपर उठा लेकिन गैस के गुब्बारे की तरह। बस जमाने की सुई के इस गुब्बारे में चुभने की देर है।