अफ्रीकी देशों से लुटेरे फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों को एक-एक कर खदेड़ा जा रहा है। अब हालिया सैन्य तख्तापलट के शिकार हुए नाइजर से 1500 की संख्या में फ्रांसीसी सेना की वापसी के फ्रांसीसी शासकों ने संकेत दिये हैं। नाइजर विभिन्न तरीके के आतंकी गुटों के परस्पर संघर्ष की स्थली बना हुआ है। नाइजर में शांति कायम न होने के लिए वहां के लोग फ्रांसीसी शासकों को जिम्मेदार मानते रहे हैं।
फ्रांसीसी शासक दावा करते रहे हैं कि वे नाइजर में आतंकवाद से लड़ने के लिए अपने सैनिक तैनात किये हुए हैं। पर जनता अपने अनुभव से जानती है कि फ्रांसीसी सेना की तैनाती के बाद हालात और खराब हुए हैं। नाइजर में फ्रांस के साथ-साथ अमेरिकी सेना भी तैनात रही है। दरअसल दोनों साम्राज्यवादी अफ्रीका के साहेल क्षेत्र की खनिज सम्पदा पर अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये थे। आतंकवाद से जंग तो उनके लिए महज एक बहाना थी। अब साहेल क्षेत्र में नाइजर उनकी आखिरी शरणस्थली था क्योंकि बीते वर्षों में इस क्षेत्र के कई देशों से उन्हें अपनी फौजें हटाना पड़ी थीं।
नाइजर में हालिया सैन्य तख्तापलट के बाद फ्रांस ने नई सैन्य सरकार को मान्यता देने से इनकार कर दिया था। इन परिस्थितियों में सैन्य सरकार को पश्चिमी साम्राज्यवादी हमले की भी आशंका होने लगी थी। नाइजर जनता राजनीति में हस्तक्षेप से लेकर प्राकृतिक सम्पदा के दोहन के मामले में फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों से त्रस्त थी। वह तख्तापलट को एक मौके के बतौर देख रही थी कि शायद नई सत्ता फ्रांस के हस्तक्षेप से उन्हें मुक्ति दिला दे।
नाइजर वैसे तो फ्रांस से 1960 में स्वतंत्रता हासिल कर चुका था पर फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों का हस्तक्षेप वहां कभी खत्म नहीं हुआ। अब जबकि फ्रांस परस्त शासक को अपदस्थ कर नई सरकार कायम हुई और फ्रांस ने उसे मान्यता नहीं दी तो मजबूरन सैन्य शासकों को फ्रांस को अपनी फौज व राजदूत वापस बुलाने को कहना पड़ा। शुरूआत में फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रां ने इस मांग पर ध्यान नहीं दिया पर बाद में उन्होंने संकेत दिया कि वे नाइजर की मांग पर सहमत होकर सेना वापस बुला लेंगे। हालांकि इसके लिए भी उन्होंने अपनी लूट के बजाय हवाला यह दिया कि चूंकि नाइजर लोग अब यह नहीं चाहते कि फ्रांसीसी सेना आतंकवाद से लड़े इसलिए वे अपनी सेना हटा लेंगे।
तख्तापलट के बाद से ही नाइजर में फ्रांस विरोधी प्रदर्शनों की खबरें आ रही हैं। प्रदर्शनकारियों ने फ्रांसीसी सेना के कैम्प के बाहर डेरा डालकर उनकी जरूरी सामानों की आपूर्ति तक बाधित कर दी। तपती गर्मी में प्रदर्शनकारियों ने बीते दिनों एक प्रार्थना सभा आयोजित की जिसमें इमाम ने प्रदर्शनकारियों को सलाह दी कि वे धैर्य बनाये रखें और कि जैसे किसी स्त्री-पुरुष के तलाक में कुछ वक्त लगता है वैसे ही नाइजर के फ्रांस से तलाक में कुछ वक्त लगेगा।
फ्रांसीसी साम्राज्यवादी नाइजर की सैन्य सत्ता को मान्यता न देकर आस लगाये हुए थे कि यह सैन्य सत्ता शीघ्र ही ढह जायेगी। हालांकि ऐसा नहीं हुआ। यही फ्रांसीसी साम्राज्यवादी गेबन व चाद में तख्तापलट को मान्यता दे चुके हैं पर नाइजर में ऐसी मान्यता को वे तैयार नहीं हैं। इसी वजह से सैन्य शासक फ्रांसीसी सेना की मौजूदगी को खतरे के बतौर देखने लगे।
नाइजर के नये सैन्य शासकों ने दावा किया है कि नाइजर जनता एक समृद्ध, गौरवशाली प्रभुतासम्पन्न देश चाहती है और बाहरी लोगों को उसकी इस इच्छा का सम्मान करना चाहिए। उन्होंने यह भी दावा किया कि आतंकी गुटां से नाइजर सेना बगैर बाहरी मदद के भी लड़ लेगी।
हालांकि नाइजर में ही विपक्षी गुट भी मौजूद है जो फ्रांस की रुखसती से आतंकवाद की समस्या को बढ़ता हुआ देखता है। पुराने शासक राष्ट्रपति मोहम्मद बौजम के करीबी लोग फ्रांस को मददगार मानते हुए उसे देश में बनाये रखना चाहते हैं। वे कहते हैं कि फ्रांस की रुखसती के बाद हालात माली या बुर्किना फासो सरीखे खतरनाक हो सकते हैं। वे फ्रांस के बजाय मौजूदा सैन्य तख्तापलट को समस्या के रूप में बताते हैं।
नाइजर के नये शासक भी पुराने शासकों की तरह पूंजीवादी हैं ये भी अपनी जनता का क्रूर दमन-उत्पीड़न कर रहे हैं। हां फ्रांस से टकराव के चलते फ्रांस की रुखसती के मामले में जनता व नये शासक एक पाले में नजर आ रहे हैं। पर नये शासक भी अपनी लूट की खातिर एक नहीं तो दूसरी साम्राज्यवादी ताकत से समझौते करेंगे।
नाइजर की जनता आज पूंजीवादी शासकों, आतंकी गुटों व साम्राज्यवादी हस्तक्षेप तीनों से त्रस्त है। इन तीनों से ही संघर्ष उसको बेहतरी की ओर ले जायेगा।
नाइजर से फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों की रुखसती
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।