फिलिस्तीन पर समीह अल-कासिम की कविता अनुवाद : रामकृष्घ्ण पाण्डेय

एक दिवालिए की रिपोर्ट

अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े                                    
अगर मुझे अपनी कमीज और अपना बिछौना
बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ करना पड़े
या गोबर से खाना ढूंढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और खामोश
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूंगा
आखिर तक मैं लड़ूंगा
जाओ मेरी जमीन का
आखिरी टुकड़ा भी चुरा लो
जेल की कोठरी में
मेरी जवानी झोंक दो
मेरी विरासत लूट लो
मेरी किताबें जला दो
मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ
जाओ मेरे गांव की छतों पर
अपने आतंक के जाल फैला दो
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूंगा
और आखिर तक मैं लड़ूंगा
अगर तुम मेरी आंखों में
सारी मोमबत्तियां पिघला दो
अगर तुम मेरे होंठों के
हर बोसे को जमा दो
अगर तुम मेरे माहौल को
गालियों से भर दो
या मेरे दुखों को दबा दो
मेरे साथ जालसाजी करो
मेरे बच्चों के चेहरे से हंसी उड़ा दो
और मेरी आंखों में अपमान की पीड़ा भर दो
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूंगा
और आखिर तक मैं लड़ूंगा
मैं लड़ूंगा
इंसानियत के दुश्मन
बंदरगाहों पर सिगनल उठा दिए गए हैं
वातावरण में संकेत ही संकेत हैं
मैं उन्हें हर जगह देख रहा हूं
क्षितिज पर नौकाओं के पाल नजर आ रहे हैं
वे आ रहे हैं
विरोध करते हुए
यूलिसिस की नौकाएं लौट रही हैं
खोए हुए लोगों के समुद्र से
सूर्योदय हो रहा है
आदमी आगे बढ़ रहा है
और इसके लिए
मैं कसम खाता हूं
मैं समझौता नहीं करूंगा
और आखिर तक मैं लड़ूंगा
मैं लडूंगा
 

आलेख

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