उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में पूंजीपति वर्ग ने ‘इतिहास के अंत’ में ‘उदार पूंजीवादी जनतंत्र की अंतिम विजय’ के बाद काफी प्रगति की है। उसने अब पूंजीवादी जनतंत्र को महज ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ (फ्री एण्ड फेयर) चुनाव तक सीमित कर दिया है। यदि किसी देश में ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव हो रहा है तो वहां जनतंत्र है भले ही वहां तंत्र में जन की कोई भागेदारी न हो तथा चुनी हुयी संस्थाएं बेमानी हो गई हों। उदार पूंजीवादी जनतंत्र का आधार ‘कल्याणकारी राज्य’ माना गया था पर अब ‘कल्याण’ को ‘रेवड़ी’ तथा नागरिक को प्रजा या भिखारी बना देने के दौर में भी ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव होने पर उसे जनतंत्र मान लिया जायेगा। सचमुच पूंजीवाद की यह प्रगति अद््भुत है।
अपने जन्म के समय से ही पूंजीवादी जनतंत्र एक असमाधेय अंतर्विरोध का शिकार रहा है। वह निजी सम्पत्ति के आधार पर बेहद गैर-बराबर समाज में सबको कानूनी तौर पर बराबर घोषित कर देता है। एक नागरिक के तौर पर पूंजीपति और मजदूर दोनों बराबर हैं। दोनों चुनाव में वोट दे सकते हैं और दोनों चुनाव में खड़े हो सकते हैं (सार्विक मताधिकार लागू हो जाने के बाद से)। दोनों की राज्य सत्ता के संचालन में बराबर की भागेदारी हो सकती है।
पूंजीवादी जनतंत्र की यह घोषणा कुछ उसी की तरह की है जैसे कि बाजार में पूंजीपति और मजदूर दोनों बराबर हैं। श्रम शक्ति खरीदने वाला (पूंजीपति) और बेचने वाला (मजदूर)। दोनों बराबर हैं। दोनों बराबर की सौदेबाजी कर सकते हैं। एक खरीदने से इंकार कर सकता है और दूसरा बेचने से। पर बाजार से बाहर बेचने से इंकार करने वाले को भूखा मरना पड़ेगा जबकि खरीदने से इंकार करने वाले को महज अपना मुनाफा तात्कालिक तौर पर गंवाना पड़ेगा। यह कड़वा सच बाजार में सौदेबाजी में दोनों की स्थिति तय कर देता है।
पूंजीवादी जनतंत्र के चुनाव में भी यही होता है। चुनाव में खड़े होने और जीतने के लिए जरूरी है कि इसके लिए पर्याप्त संसाधन हों। बिना मतदाताओं को प्रभावित किये या खरीदे हुए चुनाव नहीं जीता जा सकता। और जब मतदाता हजारों या लाखों में हों तो इन संसाधनों की मात्रा बहुत बढ़ जाती है। जिसके पास जितने संसाधन होंगे उसके उतने जीतने की क्षमता बढ़ जायेगी। संसाधनों में सर्वोपरि पैसा है क्योंकि पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है।
इसीलिए पूंजीवादी जनतंत्र में शुरू से ही पैसे का खूब खेल होता रहा है। उम्मीदवारों और मतदाताओं की खरीद-बेच से लेकर पूंजीवादी प्रचारतंत्र के जरिये उन्हें प्रभावित करने या लुभाने के सारे खेल होते रहे हैं। इसीलिए पूंजीवाद में ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव उसी तरह एक मिथक है जैसे कि पूंजीवाद में सब कुछ प्रतियोगिता से तय है। पूंजीवाद में शुरू से आज तक प्रतियोगिता के साथ और उसके ऊपर खुली लूट-पाट, धोखाधड़ी तथा इजारेदारी आम चीज रही है। इसी तरह पूंजीवादी जनतंत्र में खुली प्रतियोगिता के साथ धोखाधड़ी और खरीद-फरोख्त आम रहे हैं। अपने को सबसे पुराना जनतंत्र घोषित करने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में पहले चुनाव से लेकर आज तक इसे बखूबी देखा जा सकता है। यहां तक कि अमेरिकी संविधान को मान्यता दिलाने वाले पहले जनमत संग्रह में भी बड़े पैमाने की धांधली हुई थी क्योंकि तेरह राज्यों में से कुछ में बहुमत उस संविधान के खिलाफ था।
पूंजीवाद में चुनाव में पैसे के इस खेल को मानकर चला जाता है। जैसे कि बाजार के लिए मानकर चला जाता है कि अंततः प्रतियोगिता या मांग और पूर्ति सब ठीक कर देंगे, उसी तरह पूंजीवादी जनतंत्र में मानकर चला जाता है कि अंततः किसी तरह से जनता की इच्छा चुनाव परिणामों में अभिव्यक्त हो जायेगी। लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं होता। व्यवहार में बाजार सब कुछ ठीक नहीं करता बल्कि अर्थव्यवस्था भयानक संकट में फंस जाती है। उसी तरह पूंजीवादी जनतंत्र भी भयानक विकृतियों और संकटों का शिकार हो जाता है। हिटलर और मुसोलिनी सत्तारूढ़ हो जाते हैं।
एकाधिकारी पूंजीवाद के संकट की वर्तमान अवस्था में ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव और मुश्किल हो गये हैं। आज एकाधिकारी पूंजीपति न केवल चुनावों को सीधे प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं बल्कि वे सीधे दखल दे रहे हैं। यह किसी देश में कम है, किसी में ज्यादा। भारत जैसे देशों में, जहां तथाकथित ‘याराना पूंजीवाद’ है, वहां यह सब चरम पर पहुंच रहा है। वहां एकाधिकारी पूंजीपति ही यह सीधे-सीधे तय कर रहे हैं कि चुनावों में कौन जीतेगा और कौन नहीं।
यह बहुत आसान है। पूंजीपति वर्ग के पैसे से उम्मीदवारों, विपक्षी पार्टियों तथा मतदाताओं को खरीदा जा सकता है। इसी तरह पूंजीवादी प्रचारतंत्र को खरीदा जा सकता है। इससे भी आगे, पूंजीपति वर्ग स्वयं अपने मालिकाने वाले प्रचारतंत्र को किसी पार्टी विशेष के पक्ष में लगा सकता है। ऐसी अवस्था में ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव बस नाम भर का रह जाता है।
यह सारी दुनिया में ही इस या उस स्तर पर हो रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका में यह एक तरीके से हो रहा है तो भारत में दूसरे तरीके से। परिणाम यह है कि जनतंत्र में जन पहले से ज्यादा शक्तिहीन हो गया है। जन महसूस करता है कि तंत्र उसका नहीं है, पर क्यों यह समझ नहीं पाता। परिणाम स्वरूप या तो विरक्त होकर घर बैठ जाता है या चुनाव के दिन ठप्पा लगाकर संतुष्ट हो जाता है।
इसी स्थिति का दूसरा पहलू वह है जो दो साल पहले श्रीलंका में देखने को मिला था। जब साठ प्रतिशत वोट हासिल कर जीतने वाले राष्ट्रपति को दो साल बाद ही जन विद्रोह के कारण देश छोड़ कर भागना पड़ा। 2019 के श्रीलंकाई चुनाव में वह सब कुछ हुआ था जो इस समय भारत में हो रहा है।
भारत की विशिष्ट बात करें तो भारत में भी सारी दुनिया की तरह कभी भी ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव नहीं रहे। लेकिन पिछले कुछ सालों में स्थिति बद से बदतर होती गई है। 2011-12 में जब भारत के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग ने तय किया कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हिन्दू फासीवादियों को सत्ता में बैठाना है तब से भारत का चुनावी मैदान एकतरफा हो गया है। पूंजीपतियों ने भाजपा को अथाह पैसा दिया तथा अपने प्रचारतंत्र को उसके पक्ष में लगा दिया। रही-सही कसर संघ के जमीनी तंत्र ने पूरी कर दी।
जैसा कि कहा गया है भारत का चुनावी मैदान कभी भी समतल नहीं रहा है। यहां सत्ताधारी पार्टी को हमेशा ही एक बढ़त रही है। सरकारी तंत्र के दुरुपयोग से लेकर पूंजीपति वर्ग के समर्थन तक सब सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में चुनाव को झुकाते रहे हैं। पर अब यह सब चरम पर जा पहुंचा है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
2009 के लोकसभा चुनावों में घोषित चंदों में से पूंजीपति वर्ग से सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी को पचपन प्रतिशत मिले थे। लेकिन अब चुनावी बाण्ड के जरिये सत्ताधारी भाजपा को नब्बे-पिंचानबे प्रतिशत मिल रहे हैं। यह घोषित है। अघोषित का हिसाब नहीं लगाया जा सकता। इसे पार्टियों द्वारा चुनावों के दौरान किये जा रहे खर्च से बस अनुमान से समझा जा सकता है।
तथाकथित याराना पूंजीवाद के इस जमाने में यह सब ज्यादा भांड़ा हो गया है। भाजपा सरकार खुलेआम कानूनी तरीके से देश के संसाधन या सरकारी सम्पत्ति पूंजीपतियों को सौंप रही है और बदले में वे चुनावी बांड के जरिये भाजपा को पैसा दे रहे हैं। यह इतना पारदर्शी है कि चर्चा के लायक भी नहीं है।
इन स्थितियों में यदि और कुछ न भी हो तो भी भाजपा की स्थिति चुनावों में बाकी से बेहतर होगी। दिन-रात चारों ओर से पूंजीवादी प्रचारतंत्र के द्वारा भाजपा और मोदी की तारीफ सुन-सुन कर जनता का एक हिस्सा उस पर विश्वास करने ही लगेगा। आज जनता का एक हिस्सा इस बात पर विश्वास करता है कि दुनिया में भारत का डंका बज रहा है और इसका श्रेय मोदी को है। उसे नहीं पता कि सारी दुनिया में तो क्या पड़ोसी देशों में भी भारत का डंका नहीं बज रहा है और भूटान और नेपाल तक में पिछले दस सालों में भारत की स्थिति खराब हुई है। पूंजीवादी प्रचारतंत्र के प्रचार के कारण जन स्वयं के अनुभव पर भी संदेह करने लगता है। दिन-रात देश की तरक्की की बात सुनकर उसे खुद की कंगाली का कारण समझ में नहीं आता। उसे लगता है कि आज नहीं तो कल उसका भी नंबर आयेगा।
लेकिन हिन्दू फासीवादी केवल पूंजीपति वर्ग के पैसे और प्रचारतंत्र से ही संतुष्ट नहीं है। इन्होंने आगे बढ़कर सरकारी मशीनरी को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के हर संभव तरीके इजाद किये हैं। लोगों का ध्यान ईवीएम की छेड़छाड़ पर है पर उन्होंने और भी शातिराना तरीके इजाद किये हैं।
इनमें से एक तरीका है लोगों को वोट देने से वंचित कर देना। पिछले दिनों में यह देखने में आया है कि मुसलमानों और दलित बस्तियों में चुनाव के दिन मतदाता सूची से लोगों के नाम गायब होते हैं। ऐन वक्त पर कुछ नहीं किया जा सकता सिवाय चुनाव आयोग में बाद में शिकायत करने के। इसी का दूसरा तरीका है इन बस्तियों में चुनाव बूथों की संख्या कम कर देना। इससे लम्बी कतार से थककर बहुत सारे मतदाता बिना वोट दिये घर चले जायेंगे, खासकर महिलायें। इन जगहों पर लोगों को खुलेआम वोट देने से रोकना भी देखने को मिल रहा है। रामपुर विधान सभा के उपचुनाव में यह खास तौर पर देखने को मिला था।
उम्मीदवारों के स्तर पर भी कुछ तरीके अपनाए जाते हैं। नामांकन रद्द करने से लेकर जोर-जबर्दस्ती या धोखाधड़ी से नाम वापस करवाना इनमें शामिल है।
ऐन मतदान के समय भी धोखाधड़ी आम बात है, शर्त यह है कि मतदान कर्मचारी सरकारी पार्टी के पक्ष में हों। इसके लिए चुनावी मशीन में तकनीकी छेड़छाड़ की जरूरत नहीं।
इस सबके बाद मतगणना के समय भी कई तरह की धांधली की जा सकती है। कम मतों से हारे हुए प्रत्याशी को जीता घोषित कर देना आम शिकायत है।
ये सारी ऐसी धोखाधड़ी की चाले हैं जिन्हें फुटकर धोखाधड़ी कहा जा सकता है। पर इन सबका सम्मिलित प्रभाव बड़ा हो जाता है। और जब कई जगहों पर चुनावों में कड़ी टक्कर हो तो यह निर्णायक हो जाता है। इन्हीं के लिए अशोक विश्वविद्यालय के एक शिक्षक ने अपने शोध पत्र में यह दावा किया था कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने करीब पन्द्रह सीटें अतिरिक्त जीती थीं। मोदी राज में अपने शोध की कीमत इस अध्यापक को अपनी नौकरी से चुकानी पड़ी।
सरकारी तंत्र का दुरुपयोग कर इस तरह की धोखाधड़ी करना भाजपा के लिए दो वजहों से संभव है। एक तो संघ परिवार की वजह से उसे जमीनी हकीकत की बेहतर जानकारी होती है। दूसरे सरकारी कर्मचारियों में उसका समाज से भी ज्यादा प्रभाव है जिनका इस्तेमाल वह कर सकती है।
लेकिन ये दोनों भी इसीलिए कारगर हो पाते हैं कि चुनाव आयोग मोदी सरकार की मुट्ठी में है। इस कारण भाजपा द्वारा चुनावों में किसी भी तरह की धांधली की कोई सुनवाई नहीं हो सकती। ठीक इसी कारण विपक्षी दलों द्वारा इसी तरह की धांधली पर कड़ी लगाम लग जाती है। इस तरह चुनावी धांधली के मामले में भी चुनावी मैदान एकतरफा हो जाता है और भाजपा के पक्ष में झुक जाता है।
पिछले सालों में चुनाव आयोग भाजपा द्वारा चुनावी धांधली पर आंख मूंदने से भी आगे गया है। चुनावी तारीखों और चुनावी कार्यक्रमों को भाजपा के हिसाब से घोषित करने से लेकर मोदी-शाह और भाजपा को साम्प्रदायिक जहर फैलाने की छूट देना, सब चुनाव आयोग ने किया है। कुल मिलाकर चुनाव आयोग भाजपा और मोदी-शाह की चुनावी मशीनरी का अंग बन गया है।
इन्हीं सब का सम्मिलित परिणाम है हालिया विधान सभा चुनावों में भाजपा की जीत जिस पर स्वयं भाजपाई-नेता और कार्यकर्ता भी अचम्भे में हैं। होना भी चाहिए क्योंकि यह मोदी-शाह की अंदरूनी मशीनरी से संभव हुआ है।
मोदी-शाह का सपना है कि भाजपा अगले पचास साल तक सत्ता में रहे। तत्काल वे सफल भी होते दीख रहे हैं। पर उनकी सफलता श्रीलंका के राजपक्षे बंधुओं की सफलता की तरह ही है। इस सफलता के ज्यादातर घटक तत्व भी वही हैं। ऐसे में यह सोचना स्वाभाविक है कि इस सफलता का अंतिम परिणाम भी वही निकलेगा!
पूंजीवादी जनतंत्र में ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ चुनाव
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को