अनुच्छेद-370 और शीर्ष अदालत

4 वर्ष पूर्व भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 और 35 ए की समाप्ति की घोषणा आनन-फानन में संसद से पारित करा कर दी थी। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य को विभाजित कर केन्द्र शासित प्रदेशों में तब्दील कर दिया था। इस तरह सर्वाधिक स्वायत्त राज्य जम्मू-कश्मीर को मोदी सरकार ने एक झटके में सबसे कम स्वायत्तता वाला राज्य बना दिया था। इस कदम को उठाने से पूर्व विरोध के सारे स्वरों को दबाने के लिए राज्य को खुली जेल में तब्दील करते हुए सैकड़ों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया था, इंटरनेट बंद कर दिया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को खत्म करने की वैधता पर मुहर लगा जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय पर कानूनी मुहर लगा दी है। इस तरह नेहरू के जमाने से कश्मीर को भारत में मिलाने की भारतीय शासकों की शुरू की गयी मुहिम को मोदी व सुप्रीम कोर्ट ने अंजाम तक पहुंचा दिया है। 
    
सुप्रीम कोर्ट के मोदी सरकार के पक्ष में दिये फैसले के कुछ आयाम गौरतलब हैं। मोदी सरकार देश को एक देश एक विधान एक शासन के फासीवादी निजाम की ओर बढ़ाने में जुटी हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से उसकी इस मुहिम पर अपनी मुहर लगा दी है। अनुच्छेद 370 में स्पष्ट तौर पर लिखे होने कि इसका खात्मा जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की संस्तुति पर भारत का राष्ट्रपति कर सकता है, के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने भारत के राष्ट्रपति को इसे खत्म करने का पूर्ण अधिकारी मान लिया और जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की संस्तुति को नजरअंदाज कर दिया। अदालत ने यह भी ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी कि कश्मीर की अवाम पहले दिन से ही इस कदम के विरोध में खड़ी रही है। भारत सरीखे नाम के संघात्मक पर वास्तव में केन्द्रीकृत राज्य में इसके अतिरिक्त और कुछ हो भी नहीं सकता था। शीर्ष अदालत ने 4 वर्ष पूर्व ही इस निर्णय पर तत्काल रोक लगाने से इनकार कर इस बात का आभास दे दिया था कि वह भविष्य में क्या निर्णय देने वाली है। 
    
कश्मीर की अवाम व वहां का नेतृत्व इस अदालती निर्णय से निराश है पर वह हताश नहीं है। कश्मीरी अवाम जानती है कि स्वायत्तता-आत्मनिर्णय-स्वतंत्रता सरीखे राजनैतिक प्रश्न किन्हीं अदालती निर्णयों के मुहताज नहीं होते। इस निर्णय के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने भारत के एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के प्रति अपनी पक्षधरता जाहिर की है। उसने तमाम उदारवादियों-वाम उदारवादियों के भ्रम को तोड़ दिया है जो शीर्ष अदालत से भिन्न निर्णय की आस लगाये बैठे थे। शीर्ष अदालत ने इस निर्णय से दिखा दिया है कि वह नेहरू-इंदिरा के जमाने की अदालत नहीं रही है जहां प्रधानमंत्री का निर्वाचन रद्द करने की हिम्मत शीर्ष अदालत कर सकती थी। कि अब वह एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के हित में व उसके समर्थन में फासीवाद की ओर बढ़ते ‘नये भारत’ की शीर्ष अदालत है। 
    
फासीवाद की ओर कदम बढ़़ाती मोदी सरकार भारत के नाममात्र के संघात्मक चरित्र को तरह-तरह से तहस-नहस कर रही है। इस अदालती निर्णय ने मोदी सरकार के इन कदमों को इस निर्णय से एक तरह से वैधानिकता प्रदान कर दी है। अब अगर 370 खत्म करने की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है तो बाकी राज्यों की मामूली स्वायत्तता वाले प्रावधानों को खत्म करने की शक्ति स्वतः ही राष्ट्रपति व केन्द्र के अधीन आ जाती है। इस संदर्भ में राज्यों के नेतृत्व या वहां की जनता की राय का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस तरह शीर्ष अदालत ने इस निर्णय के जरिये केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में केन्द्र की मनमानी पर अपनी मुहर लगा दी है। इस निर्णय के निहितार्थ बाकी राज्यों के लिए यही हैं कि वे भारतीय केन्द्र के अधीन अधिकारविहीन हैं। वैसे भी एक कर की जीएसटी प्रणाली के जरिये केन्द्र ने राज्यों को अपने खर्च तक के लिए मुहताज पहले ही बना दिया है। 
    
जहां तक कश्मीर का प्रश्न है तो इसे भारत में मिलाने की मुहिम नेहरू सरकार के जमाने से शुरू हुई थी। धारा 370 के बावजूद एक के बाद एक केन्द्र के प्रावधान कश्मीर पर थोपे जाते रहे और धारा 370 के तहत प्राप्त स्वायत्तता नाम मात्र की ही शेष बची थी। इस संदर्भ में कांग्रेस जहां गाजर और डण्डे की नीति पर चलती रही वहीं फासीवादी संघ-भाजपा डण्डे से ही एक झटके में मनमाफिक नतीजा हासिल करने में जुटी रही है। संघ-भाजपा की डण्डे की नीति से कानूनी तौर पर भारत में मिलाये जा चुके कश्मीर की अवाम वास्तविक तौर पर भारत के साथ महसूस करती है या फिलिस्तीनियों की तरह अपने नये इंतिफादा की ओर बढ़ती है यह आने वाला वक्त बतायेगा। संघ-भाजपा की डंडे के जरिये दमन की नीति कश्मीर को दूसरी संभावना की ओर ही धकेल रही है। 
    
कश्मीर या अन्य उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की समस्या का हल न तो नेहरूकालीन पूंजीवादी भारत कर सकता था और न ही फासीवाद की ओर बढ़ता मोदी का ‘नया भारत’। पूंजीवादी दायरे में इस समस्या का संतोषजनक हल संभव ही नहीं है। यह हल केवल समाजवादी भारतीय संघ में ही संभव है। जहां सभी उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय का अधिकार हासिल होगा। जहां सभी राष्ट्रीयताओं को बगैर किसी शोषण-उत्पीड़न के आगे बढ़ने के अवसर मुहैय्या होंगे। 
    
सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर के मामले में जले पर नमक छिड़कने के बाद कुछ मलहम लगाने का भी प्रयास किया है। ऐसा उसने जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा दे विधानसभा चुनाव कराने का निर्देश दे कर किया है। अब देखना यह है कि खुद को सर्वशक्तिमान समझने वाली मोदी सरकार इस निर्देश का कब और कैसे पालन करती है या किन्हीं बहानों से इसे लटकाये रखती है। हां, लद्दाख का दर्जा अब केन्द्र शासित प्रदेश का ही रहेगा।  

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को