मध्य प्रदेश में डी जे बना 9 बच्चों की मौत की वजह

मध्य प्रदेश के सागर जिले के शाहपुर गांव में डी जे 9 बच्चों की मौत की वजह बन गया। दरअसल एक मंदिर में पूजा अर्चना के दौरान तेज़ आवाज़ में डी जे बजाया जा रहा था। मकान पुराना व जर्जर था। बारिश भी हो रही थी। डी जे की वजह से हो रहे कम्पन को मकान की दीवार झेल नहीं पायी और भरभरा कर गिर पड़ी।

पूजा के लिए वहां शिवलिंग बनाये जा रहे थे जो बच्चे बना रहे थे। दीवार बच्चों के ऊपर गिरी। लेकिन डी जे की तेज़ आवाज़ के कारण कोई बच्चों की चीख पुकार सुन नहीं पाया। एक बुजुर्ग भी दीवार गिरने से दब गये। जब किसी तरह वो बाहर निकले तब उन्होंने बच्चों के दबे होने की बात बताई और फिर बचाव कार्य शुरु हुआ लेकिन तब तक 9 बच्चों की मौत हो चुकी थी।

आजकल धार्मिक उत्सवों में डी जे का प्रयोग न केवल बढ़ रहा है बल्कि इस बात को लेकर होड़ पैदा हो रही है कि किसका डी जे ज्यादा तेज़ आवाज़ से बजता है। इन डी जे की आवाज़ 135 डिसिबल तक हो जाती है जबकी सामान्य मनुष्य यदि 55 डिसिबल तक की आवाज़ में एक समय तक रह ले तो यह उसके लिए खतरनाक होता है। डी जे की आवाज़ से होने वाले कम्पन आस-पास की जगह के लिए भयानक प्रभाव डालते हैं ख़ासकर ऐसे मरीज़ों के लिए जो दिल के मरीज़ हैं। ऐसे मामले भी सामने आ चुके हैं जिसमें डी जे की वजह से ऐसे मरीज़ की मौत हो गयी।

अभी बिहार में काँवड़ यात्रा के दौरान डी जे के 11,000 बोल्ट की लाइन में फंस जाने के कारण करंट आ गया और 9 काँवड़ियों की मौत हो गयी।

तेज़ आवाज़ में और रात 10 बजे के बाद डी जे बजाने पर प्रतिबंध तो है लेकिन धार्मिक उत्सवों के नाम पर उनका सख्ती से पालन नहीं होता है। अगर भविष्य में इन दुर्घटनाओं को रोकना है तो तेज़ आवाज़ में डी जे बज़ाने पर सख्त प्रतिबंध लगना चाहिए।

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।