मई दिवस : पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध संघर्षों का प्रतीक दिवस

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की तरह मनाते हैं। अमेरिका, मई दिवस आंदोलन की जन्मभूमि रहा है।
    
19वीं सदी के शुरुआती दशकों में अमेरिका में उभरती फैक्टरी व्यवस्था में मजदूरों के काम के कोई निश्चित घंटे तय नहीं थे और उनसे ‘‘सूर्योदय से सूर्यास्त तक’’ काम कराना आम बात थी। उनका वेतन बहुत कम होता था और कोई साप्ताहिक अवकाश भी नहीं मिलता था। 1834 में न्यूयार्क (अमेरिका) में नानबाइयों की एक हड़ताल के दौरान ‘‘वर्किंग मेंस एडवोकेट’’ नामक एक अखबार ने लिखा था कि ‘‘पावरोटी उद्योग में लगे कारीगर सालों से मिस्र के गुलामों से भी ज्यादा यातनायें झेल रहे हैं। उन्हें हर 24 में से औसतन 18 से 20 घंटों तक काम करना होता है।’’
    
लेकिन मजदूर इस अमानवीय शोषण को चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे थे। यह वह दौर था जबकि वे अपनी यूनियनों और संगठनों में एकजुट हो रहे थे और इस जुल्म के विरुद्ध अपने संघर्षों को आगे बढ़ा रहे थे। अमेरिका में काम के घंटे 10 करने, यूनियन बनाने का अधिकार एवं वेतन बढ़ोत्तरी की मांगों पर हड़तालें आम हो चुकी थीं। 1827 में अमेरिका के फिलाड़ेल्फिया में ‘‘मैकेनिक्स यूनियन आफ फिलाड़ेल्फिया’’, जो कि दुनिया में मजदूरों की पहली ट्रेड यूनियन मानी जाती है, ने 10 घंटे कार्यदिवस की मांग के साथ निर्माण मजदूरों की एक हड़ताल को नेतृत्व दिया था। इसी तरह न्यू इंग्लैंड की ‘‘वर्किंग मेंस एसोसिएशन’’ ने 1832 में 10 घंटे कार्यदिवस की मांग के साथ आंदोलन किया था।
    
ऐसे अनेकों संघर्षों के परिणामस्वरूप वान बिउरेन (अमेरिका) की संघीय सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के लिये काम के घंटे 10 का कानून पारित कर दिया। 1835 तक अमेरिका के कुछ हिस्सों में एवं 1860 तक पूरे अमेरिका में 10 घंटे का कार्यदिवस लागू हो चुका था। यूरोप और आस्ट्रेलिया में भी संघर्ष आगे बढ़ रहा था। आस्ट्रेलिया में निर्माण उद्योग के मजदूरों ने नारा बुलंद किया कि ‘‘8 घंटे काम के, 8 घंटे मनोरंजन के और 8 घंटे आराम के’’, और संघर्ष के दबाव में 1856 में उनकी मांग मान ली गई। 1860 के दशक में 8 घंटे कार्यदिवस की मांग अमेरिका और यूरोप के मजदूरों की भी मांग बन चुकी थी, और इसे हासिल करने के लिये लगातार संघर्ष हो रहे थे और हड़तालें बढ़ रही थीं।
    
यह वो समय था जबकि अमेरिका का मजदूर आंदोलन अब एक देशव्यापी मजदूर संघ की जरूरत महसूस कर रहा था। इसी हेतु 20 अगस्त, 1866 को 3 प्रमुख यूनियनों के प्रतिनिधि बाल्टीमोर में मिले और नेशनल लेबर यूनियन का गठन किया। मोल्डर्स यूनियन के नेता डब्लू एच सिलविस को इसका अध्यक्ष चुना गया। गौरतलब है कि सिलविस का लंदन स्थित कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (प्रथम) के  नेताओं से सम्पर्क था और यह इस नौजवान मजदूर नेता के प्रयासों का ही परिणाम था कि 1867 में नेशनल लेबर यूनियन ने अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के साथ सहयोग का प्रस्ताव पारित किया और 1869 में इंटरनेशनल की जनरल काउंसिल के आमंत्रण को भी स्वीकार किया। 
    
नेशनल लेबर यूनियन के स्थापना सम्मेलन में प्रतिज्ञा ली गई थी कि  ‘‘इस देश के श्रमिकों को पूंजीवादी गुलामी से मुक्त करने के लिये वर्तमान समय की पहली और सबसे बड़ी जरूरत यह है कि अमेरिका के सभी राज्यों में 8 घंटे के कार्यदिवस को सामान्य कार्यदिवस बनाने का कानून पारित कराया जाये। जब तक यह लक्ष्य हासिल नहीं होता तब तक हम अपनी पूरी शक्ति से संघर्ष करने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध हैं।’’ इसके अलावा स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों के अधिकार की मांग का प्रस्ताव भी सम्मेलन में पारित किया गया।
    
इस बीच 1877 में अमेरिका में मजदूर आंदोलन में जबरदस्त उभार आया, जो कि देशव्यापी था। एक के बाद एक हड़तालें हुईं। सरकार और पूंजीपतियों के हथियारबंद दस्तों ने मजदूरों पर हमला किया। मजदूरों खासकर रेलवे और स्टील कारखानों के हजारों मजदूरों ने बहुत बहादुरी से इस दमन का मुकाबला किया। पूंजीपतियों और पूंजीवादी राज्य के विरुद्ध इस संघर्ष में अंत में भले ही मजदूरों की हार हुई, लेकिन इस तीखे वर्ग संघर्ष ने निकट भविष्य में आने वाले तूफान के संकेत दे दिये। 
    
1880 के दशक के पूर्वार्द्ध में अमेरिका के शहरों में 8 घंटे कार्यदिवस की मांग के साथ मजदूरों के कई विशाल प्रदर्शन हुये। इस प्रक्रिया में विभिन्न यूनियनों के मेलमिलाप के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये ‘‘द फेडरेशन आफ आर्गेनाईज्ड ट्रेड एंड लेबर यूनियन आफ द यूनाइटेड स्टेट्स एंड कनाडा’’, जो कि आगे चलकर ‘‘अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, ने शिकागो में 7 अक्टूबर, 1884 को घोषणा की कि वह 1 मई, 1886 को पूरे अमेरिका में एक साथ 8 घंटे कार्यदिवस की मांग को उठायेगा। ‘‘अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर’’ ने 1885 के अपने सम्मेलन में 1 मई, 1886 को हड़ताल पर जाने के अपने संकल्प को दोहराया और उसके आह्वान पर मजदूरों के एक पुराने और बड़े संगठन ‘‘नाइट्स आफ लेबर’’ ने भी संघर्ष के मैदान में आने की घोषणा कर दी, हालांकि इसके नेतृत्व ने आंदोलन में नकारात्मक भूमिका अदा की।
    
1 मई, 1886 की हड़ताल अमेरिका व्यापी थी और इसका केंद्र शिकागो शहर था, जो कि वामपंथी मजदूर आंदोलन का गढ़ था। संगठित मजदूर आंदोलन के आह्वान पर इस दिन अमेरिका के तमाम शहरों में मशीनें रुक गईं और मजदूरों के जबरदस्त और सफल प्रदर्शन हुये। यहां तक कि असंगठित मजदूर भी इन प्रदर्शनों का हिस्सा बन गये। 8 घंटे कार्यदिवस की मांग पूरे अमेरिका में गूंज उठी। शिकागो में तो मानो मजदूरों का सैलाब ही उमड़ पड़ा। यहां मजदूर नेता अल्बर्ट पार्संस ने हजारों-हजार मजदूरों के एक जुलूस का नेतृत्व किया और पार्संस व आगस्त स्पाइस ने जोशीले भाषण दिये। 
    
शिकागो सहित पूरे अमेरिका में हुये इन प्रदर्शनों में लाखों मजदूरों ने भागीदारी की थी और ये शांतिपूर्ण सम्पन्न हुये थे। लेकिन इनसे पूंजीपतियों और सरकार में खलबली मच गई। संगठित मजदूर वर्ग के इस शक्ति प्रदर्शन ने उनकी रातों की नींद उड़ा दी और उन्होंने षड़यंत्र रचने शुरू कर दिये।
    
3 मई को शिकागों में मैकार्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी के मजदूरों ने 2 महीने से जारी लाकआउट के विरोध में और 8 घंटे कार्यदिवस के समर्थन में प्रदर्शन शुरू कर दिया। पुलिस ने बाहरी मजदूरों को कंपनी के भीतर घुसाने की कोशिश की तो आंदोलनरत मजदूरों ने इसका विरोध किया। ऐसे में पुलिस ने फायरिंग कर दी जिसमें 6 मजदूर मारे गये और बहुत से घायल हो गये। इस हत्याकांड ने शिकागो में हालातों को बेहद तनावपूर्ण बना दिया।
    
इसके विरोध में अगले दिन 4 मई को शिकागो के मुख्य चौराहे ‘‘हे मार्केट स्क्वायर’’ पर एक सभा आयोजित की गई। हजारों की संख्या में मजदूरों ने इस सभा में भागीदारी की। अल्बर्ट पार्संस और आगस्त स्पाइस ने मजदूरों को सम्बोधित करते हुये पुलिसिया दमन के विरुद्ध एकजुट रहने का आह्वान किया। देर शाम शुरू हुई इस सभा के दौरान रात होते-होते बारिश शुरू हो गई। अब तक पार्संस और स्पाइस वहां से जा चुके थे और सभा शांतिपूर्ण तरीके से समाप्ति की ओर थी, कि तभी पुलिस का एक बड़ा जत्था वहां आ पहुंचा और उसने सभा में अनावश्यक व्यवधान डालना शुरू कर दिया। अचानक इशारा पाकर किसी ने भीड़ पर एक बम फेंका और धमाके के साथ चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई। इस बम हमले में पुलिसकर्मियों समेत कुछ लोग मारे गये व अनेकों घायल हुये। इसके बाद पुलिस ने मजदूरों पर फायरिंग शुरू कर दी जिसमें 6 मजदूर मारे गये और 200 से अधिक घायल हुये। इसी दौरान एक मजदूर ने खून से भीगी अपनी कमीज को उतारकर झंडे की तरह फहरा दिया; और खून से सुर्ख हुआ यह लाल झंडा मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक बन गया।
    
इसके बाद पुलिस का दमन चक्र चला। पुलिस ने मजदूर बस्तियों, यूनियन दफ्तरों और अखबार के छापेखानों में घुसकर मजदूरों पर हमला किया और भारी संख्या में मजदूरों और उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। 8 मजदूर नेताओं अल्बर्ट पार्संस, आगस्त स्पाइस, जार्ज एंजिल, अडाल्फ फिशर, सैमुअल फील्डेन, माइकल श्वाब, लुइस लिंग्ग और आस्कर नीबे पर हत्या के झूठे मुक़दमे कायम कर दिये गये। जबकि हे मार्केट स्क्वायर की घटना के समय इनमें से सिर्फ सैमुअल फील्डेन ही मौके पर मौजूद थे और पुलिस को समझा रहे थे कि सभा शांतिपूर्ण है और इसमें व्यवधान न डालें।
    
अंततः शिकागो की अदालत ने न्याय का प्रहसन करते हुये इन 8 में से सात मजदूर नेताओं को फांसी और आस्कर नीबे को 15 साल कैद की सजा सुनाई। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी वर्गीय पक्षधरता स्पष्ट करते हुये मजदूरों की अपील स्वीकार करने से इंकार कर दिया, हालांकि बाद में इलिनाय प्रांत के गवर्नर ने सैमुअल फील्डेन और माइकल श्वाब की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। जबकि 22 साल के लुइस लिंग्ग ने जेल में आत्महत्या कर ली।
    
और 11 नवम्बर, 1887 को शिकागो की कुक काउंटी जेल में अल्बर्ट पार्संस, आगस्त स्पाइस, जार्ज एंजिल और अडाल्फ फिशर  को फांसी पर चढ़ा दिया गया। गौरतलब है कि ये चारों मजदूर नेता क्रांतिकारी गीत गाते हुये फांसी के तख्ते पर पहुंचे थे और फांसी से पहले आगस्त स्पाइस ने चीखकर कहा था कि ‘‘एक दिन आयेगा जब हमारी खामोशी उन आवाजों से ज्यादा ताकतवर होगी जिनका आज तुम गला घोंट रहे हो।’’
    
13 नवम्बर, 1887 को निकली इन मजदूर नेताओं की शवयात्रा में शिकागो की सड़कों पर पांव रखने भर को भी जगह नहीं थी; लाखों-लाख लोग नम आंखों के साथ अपने शहीद नेताओं को श्रद्धांजलि देने उमड़ पड़े थे।
    
इसके बाद धीरे-धीरे सारी दुनिया में पहली मई को मई दिवस के अमर शहीदों को श्रद्धांजलि देने और पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज को बुलंद करने के लिये मजदूर सड़कों पर उतरकर आक्रोश प्रदर्शन करने लगे। इसी दौरान 14 जुलाई, 1889 को महान फ्रांसीसी क्रांति की सौंवी सालगिरह पर फ्रांस की राजधानी पेरिस में आयोजित कम्युनिस्ट इंटरनेशन (द्वितीय) की स्थापना बैठक में एक प्रस्ताव लेकर प्रतिवर्ष पहली मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई। मई दिवस पूरी दुनिया के मजदूर वर्ग के लिये पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध संघर्षों का प्रतीक दिवस बन गया। फांसी के फंदे से बोले गये आगस्त स्पाइस के शब्द सच साबित हुये। अब 8 घंटे कार्यदिवस के अलावा दुनिया के मजदूरो, एक हो, साम्राज्यवादी युद्ध और औपनिवेशिक उत्पीड़न का विरोध करो, राजनीतिक बंदियों को रिहा करो, सार्वभौमिक मताधिकार दो.... इत्यादि नारे भी मई दिवस पर गूंजने लगे।
    
धीरे-धीरे अमेरिका, इंग्लैंड, पश्चिमी यूरोप के देशों और आस्ट्रेलिया में मजदूरों ने 8 घंटे कार्यदिवस को हासिल कर लिया। लेकिन मजदूरों का संघर्ष यहीं नहीं रुका और अक्टूबर 1917 में  मजदूरों ने अपनी बोलशेविक पार्टी के नेतृत्व में दुनिया के सबसे बड़े देश रूस में क्रांति कर पूंजीवादी निजाम को ही उखाड़ फेंका और समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया। इसके बाद 1949 में चीन में नव जनवादी क्रांति की विजय तदुपरांत समाजवाद के विकास और पूर्वी यूरोप के देशों में जनता के जनवादी गणराज्य कायम होने के उपरांत तो एक तिहाई दुनिया में मजदूर-मेहनतकश जनता का राज कायम हो गया था, और शेष दुनिया में इस हेतु संघर्ष जारी था।
    
रूस-चीन में समाजवाद के निर्माण ने पूरी दुनिया के सामने यह स्थापित कर दिया कि मजदूर न केवल फैक्टरियों में मालिकों के नफे के लिए अपना शरीर गला सकते हैं बल्कि वक्त आने पर वह अपने शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति की राह पकड़ कर पूंजीपतियों का तख्ता उलट समाजवादी राजसत्ता को संचालित भी कर सकते हैं। कि पूंजीवादी व्यवस्था का अंत कर समाजवादी व्यवस्था से होते हुए साम्यवादी समाज की तरफ बढ़ना ही मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है। इन समाजवादी समाजों ने अपने थोड़े से वर्षों के जीवन में मजदूरों-मेहनतकशों को जो शोषण मुक्त गरिमामयी जीवन मुहैय्या कराया वह दुनिया भर के मजदूरों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया। मजदूर वर्ग की इस पहलकदमी से पूंजीपति वर्ग हैरान-परेशान था। उसने समाजवादी सबेरे को डुबोने के लिए एक के बाद एक षड्यंत्र किये। अंततः वह समाजवादी समाजों को ध्वस्त करने में वक्ती तौर पर कामयाब हो गया। पहले सोवियत संघ व फिर चीन में पूंजीवादी पुनर्स्थापना हो गयी। 
    
समाजवाद की वक्ती पराजय के बाद आज दुनिया के किसी भी देश में मजदूरों का राज और समाजवादी व्यवस्था नहीं है। आज पूरी दुनिया की मजदूर-मेहनतकश जनता पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण तले कराह रही है। और जब तक दुनिया में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण मौजूद है तब तक मई दिवस उतना ही प्रासंगिक है जितना कि आज से सौ साल पहले था। अब मई दिवस मजदूर वर्ग द्वारा अपने शोषण-उत्पीड़न के जुए को उखाड़ फेंकने, समाजवादी क्रांति करने का संकल्प लेने का दिन बन गया है। 
 

आलेख

अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन में अपनी पराजय को देखते हुए रूस-यूक्रेन युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। इसमें वे पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के सैनिकों को रूस के विरुद्ध सैन्य अभियानों में बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। इन देशों के शासक भी रूसी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध नाटो के साथ खड़े हैं।

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 

आखिरकार संघियों ने संविधान में भी अपने रामराज की प्रेरणा खोज ली। जनवरी माह के अंत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोदी ने एक रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा कि मूल संविधान में राम, लक्ष्मण, सीता के चित्र हैं। संविधान निर्माताओं को राम से प्रेरणा मिली है इसीलिए संविधान निर्माताओं ने राम को संविधान में उचित जगह दी है।
    

मई दिवस पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मजदूरों के संघर्षों का प्रतीक दिवस है और 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार इससे सीधे जुड़ा हुआ है। पहली मई को पूरी दुनिया के मजदूर त्यौहार की

सुनील कानुगोलू का नाम कम ही लोगों ने सुना होगा। कम से कम प्रशांत किशोर के मुकाबले तो जरूर ही कम सुना होगा। पर प्रशांत किशोर की तरह सुनील कानुगोलू भी ‘चुनावी रणनीतिकार’ है