भारत ही नहीं विश्व का मजदूर आंदोलन एक विचित्र अवस्था से गुजर रहा है। मजदूर वर्ग के पुराने संगठन, पार्टियां अपने ढलान की ओर हैं, और नये संगठन, नये आंदोलन विकसित नहीं हो पा रहे हैं। मजदूर वर्ग एक तरह से निहत्था है और पूंजीपति वर्ग के हमले का ढंग से जवाब नहीं दे पा रहा है। यहां तक कि वह अपना बचाव तक भी नहीं कर पा रहा है। मजदूर वर्ग में बिखराव है और वर्गीय चेतना का अभाव है।
ऐसी बुरी अवस्था में मई दिवस कहीं अनुष्ठान दिवस तो कहीं-कहीं भाग्यशाली मजदूरों के लिए अवकाश दिवस में बदल कर रह गया है। जिन शहरों में मजदूरों की आबादी हजारों, लाखों में है वहां चंद मुट्ठी भर मजदूर या कुछेक मजदूर नेता रस्मी तौर पर मई दिवस के दिन इकट्ठे होते हैं और ऐसी आवाज में ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो’ और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हैं जो मजदूरों के कान तक तो क्या स्वयं उनके कान तक नहीं पहुंच पाते हैं। यानी नारा लगाने के बाद वे मजदूरों की एकता और इंकलाब को जिन्दाबाद बनाने के लिए साल भर या तो कुछ नहीं करते हैं या जो कुछ करते भी हैं तो उसका मजदूर वर्ग की एकता और इंकलाब से अक्सर दूर-दूर का भी संबंध नहीं होता है।
यह इतिहास का एक ऐसा समय है जब मजदूरों की एकता और इंकलाब के बोध की आवश्यकता सबसे अधिक है तब वह भांति-भांति से बंटा हुआ है। और उससे भी बुरी बात यह है कि वह पूंजीवादी दलों का या तो पिच्छलग्गू बना हुआ है या फिर वह पूरे तौर से अपने खोल में सिमटा हुआ है।
जब मजदूर वर्ग की ऐसी अवस्था हो तब क्या किया जाए। जब मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के खिलाफ कुछ सार्थक करने की स्थिति में न हो तो क्या किया जाए। चंद लोग भला क्या कर सकते हैं?
चंद लोग क्या कर सकते हैं, का सीधा सा जवाब तो यही हो सकता है कि वे एक बार फिर से नई शुरूवात कर सकते हैं। नई ढंग से शुरूवात करने के लिए त्याग, बलिदान की भावना, संकल्प-शक्ति व दृढ़ता के साथ-साथ सबसे ज्यादा इस बात को समझने की आवश्यकता है कि मजदूर पूंजीपतियों के गुलाम हैं। और इस गुलामी को न समझने के कारण वे उसके खिलाफ कोई संघर्ष भी नहीं छेड़ सकते हैं। अधिक से अधिक जो आज होता है वह यह कि वे हड़ताल कर बैठते हैं। हड़ताल आज के दौर में कम ही सफल होती हैं। ऐसे संघर्ष नये संघर्षों का संकल्प लेने व करने के स्थान पर ऐसे बुरे सबक के रूप में सामने आते हैं कि लड़ने से लाभ नहीं और नुकसान होता है। दूसरे शब्दों में वे चुपचाप पूंजीपति वर्ग की चाकरी स्वीकार कर लेते हैं। उसके सामने समर्पण कर देते हैं। इसमें बेरोजगारी, परिवार की जिम्मेदारी, गरीबी आदि अपनी भूमिका निभाते हैं।
ऐसे में एकता, संगठन और क्रांतिकारी विचारों का अभाव मजदूर वर्ग के लिए, उसके संघर्षों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। और इसमें सर्वोपरि रूप में क्रांतिकारी विचारों से अपरिचय अभिशाप बन कर उभरता है। क्यांकि क्रांतिकारी विचार ही मजदूर वर्ग में ऐसी एकता व संगठन को जन्म दे सकते हैं जो पूंजीपति वर्ग और उसकी व्यवस्था को वास्तविक रूप में चुनौती दे सकते हैं। कभी कहा गया था कि क्रांतिकारी विचार के बिना क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है तो सही कहा गया था। सौ फीसदी सही कहा गया था।
मजदूर वर्ग के पुराने संगठनों, पार्टियों ने बहुत अरसे पहले ही क्रांतिकारी विचार को त्याग दिया था। कुछेक संगठन तो ऐसे थे जिन्होंने क्रांतिकारी विचार को कभी समझा ही नहीं और कुछेक क्रांतिकारी विचारों से सदा घृणा करते थे। ऐसी अवस्था में सही शुरूआत करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है मजदूर वर्ग में क्रांतिकारी विचार का प्रचार किया जाए। और क्रांतिकारी विचार के आधार पर संगठन व संघर्ष खड़े किये जायें।
मजदूर वर्ग की मुक्ति के महाकार्य को एक क्षण भी विस्मृत किये बगैर संघर्षों की राह में आगे बढ़ा जाये। इस राह में मिलने वाली क्षणिक सफलता अथवा असफलताओं के फेर में ज्यादा न पड़ा जाए। महाकार्य को लक्ष्य में रखकर निरन्तर आगे बढ़ा जाए।
मुक्ति के महाकार्य से क्या मतलब है। इसका मतलब है कि मजदूर वर्ग को न केवल अपनी वर्तमान परिस्थितियों को बदलना होगा बल्कि उसे अपने आपको भी बदलना होगा। इसलिए बदलना होगा ताकि वह राजनैतिक सत्ता को अपने कब्जे में लेने के लिए सक्षम हो सके। क्योंकि राजनैतिक सत्ता को अपने कब्जे में लिए बगैर वह अपनी मुक्ति की दिशा में एक भी वास्तविक कदम नहीं उठा सकता है। इसे ही दूसरी भाषा में क्रांति अथवा इंकलाब कहा जाता है। क्रांति का अर्थ है पूंजीपति वर्ग की राजसत्ता को खत्म करके मजदूर वर्ग की राजसत्ता किसानों व मध्य वर्ग के सहयोग से कायम करना। मेहनतकश किसानों व मध्य वर्ग की मुक्ति का कदम समाज का सबसे बड़ा वर्ग मजदूर वर्ग ही उनके सहयोग व अपने नेतृत्व में उठा सकता है। मेहनतकश किसान, समाज के निम्न मध्यम वर्ग, बुद्धिजीवी तबके, छात्र-नौजवान मजदूर वर्ग के स्वाभाविक साथी हैं।
इंकलाब की मशाल हाथ में थाम कर ही मजदूर वर्ग अपनी रोजमर्रा की लड़़ाई, ट्रेड यूनियन के संघर्ष, सुधारों की कोशिश आदि के कार्यों को कर सकता है। इंकलाब की मशाल यदि वह फेंक देता है तो उसके सारे संघर्ष अंधेरी सुरंग में जा फंसते हैं। जुझारू से जुझारू संघर्ष भी उसकी मुक्ति की दिशा में कुछ खास नहीं कर पाते हैं। और जो कुछ वह हासिल भी करता है वह अल्प अवधि में उसके हाथ से छिन जाता है। पूंजीपति पुनः पुनः उसे अपने चंगुल में फंसा ले जाता है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका उसकी राजसत्ता की होती है।
मई दिवस के अवसर पर भारत सहित पूरी दुनिया के मजदूरों के सामने जो सवाल नाच रहा है वह यह कि मजदूर पूंजीपतियों की गुलामी क्यों करें? और कब तक करें? और ऐसा क्या करें कि वह अपनी मुक्ति की ओर आगे बढ़े।
मजदूर पूंजीपतियों की गुलामी क्यों करें? कब तक करें?
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।