
‘‘खेलने के लिए मैंदान होने चाहिए, जहां बच्चे मुफ्त में खेलें और सीखें।’’ ‘‘हास्टल होने चाहिए जहां बाहर से आने वाले छात्र रह सकें।’’ ‘‘नशे पर रोक लगनी चाहिए।’’
उक्त तीनों बयान किसी नेता या प्रत्याशी के नहीं हैं। ना ही जागरुक छात्रों के आंदोलन की मांग है। ये 14-15 साल के छात्रों की अपने शहर में छात्रों की जरूरतों का एहसास है, जो उन्होंने बयां किया।
जब छात्रों से पूछा गया कि ये संभव भी है? तो उन्होंने मैदान और हास्टल के लिए शहर में जगह भी सुझा दी। नशे के सवाल पर उन्होंने पुलिस और सरकार ही कर सकती है कहा।
‘‘सरकार या सांसद-विधायक इन जरूरतों का ध्यान क्यों नहीं रखते?’’ पूछने पर उन्होंने कहा कि नीचे वाले अधिकारी-कर्मचारी उन्हें नहीं बताते हैं। उनसे पूछने पर कि ‘‘आप 14-15 साल के छात्रों को जब ये जरूरत महसूस हो जा रही है तो सांसद-विधयकों को क्यों नहीं होती होगी’’। जवाब मिला ‘‘ये तो वही बता सकते हैं हम क्या बताएं।’’
कुछ देर छात्रों से मौजूदा समाज व्यवस्था और इसकी अव्यवस्था के बारे में बात हुई। इस बातचीत से यह पता चला कि समाज में हर कोई अपनी-अपनी नजर से सुधार के उपाय सोचता है। भले ही वह कितना कम उम्र या कम अक्ल माना जाता हो। उसके यह उपाय उस आयु वर्ग और तबके के हितों को ही उठाते हुए होंगे। पर, पूरे समाज के हिसाब से वो फायदेमंद साबित होंगे। खासतौर पर 15 से 25 की उम्र के नौजवानों के बारे में तो भगत सिंह के ‘युवक’ लेख में कही बात ध्यान रखने लायक है कि ‘‘वह चढ़ सकता है उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर, वह गिर सकता है अधःपात के अंधेरे खंदक में।’’
आज फासीवादी शासक पूरे समाज को; खासकर नौजवान पीढ़ी को; अधःपात के अंधेरे खंदक की ओर धकेल रहे हैं। ऐसे में समाज की बेहतरी के लिए समाजवादी क्रांति के लिए जूझती नौजवान पीढ़ी सहित मेहनतकश वर्ग ही समाज को उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर ले जा सकती है। -चंदन, हल्द्वानी