अश्लील साहित्य व फिल्मों का भारतीय समाज में पिछले दो दशकों में व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ है। इण्टरनेट के बढ़ते प्रयोग के साथ अश्लील फिल्में व साहित्य सर्व सुलभ है। टेलीविजन में पोर्नोग्राफी की तो नहीं परन्तु इरोटिक(काम विषयक) चीजों की भरमार है। पोर्नोग्राफी और इरोटिक साहित्य व फिल्मों में फर्क है यद्यपि कई बार यह फर्क धूमिल पड़ जाता है। इरोटिक साहित्य व फिल्मों से कई-कई गुना पोर्नोग्राफी का प्रभाव विष के समान पड़ता है। <br />
सवाल उठ सकता है कि कोई व्यक्ति क्या देखता व पढ़ता है, यह उसका व्यक्तिगत मामला है, उसके निजता(प्राइवेसी) के दायरे में आता है। और यदि कोई पोर्नोग्राफी फिल्में व साहित्य देखता व पढ़ता है तो इसमें किसी को भला क्या आपत्ति है। निजता के नाम पर दिये जाने वाले तर्क इस कारण से बेकार हैं कि इन फिल्मों व साहित्य का व्यक्तिगत नहीं सामाजिक उत्पादन होता है। और इस ‘उद्योग’ का दायरा व्यापक है। इस ‘उद्योग’ में भले ही ‘निजी उपभोग’ के लिए उत्पादन किया जा रहा हो परन्तु उसका सामाजिक स्वरूप खत्म नहीं हो जाता है। इस ‘उद्योग’ का उत्पाद मनुष्य को पशुत्व से भी अधिक घृणित व विकृत करता चला जाता है। इस ‘उद्योग’ के मालिकों की बात न भी की जाए अन्यों का जीवन बेहद घिनौना व दयनीय है। <br />
धार्मिक या नैतिक दृष्टिकोण व उपदेशों से पोर्नोग्राफी साहित्य व फिल्मों के प्रचार-प्रसार व उपभोग को इंच भर भी नहीं रोका जा सकता है। इसके लिए वैज्ञानिक, तार्किक व आमूल-चूल परिवर्तनवादी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। धार्मिक या नैतिक दृष्टिकोण से उन कारणों को समझा ही नहीं जा सकता है जो पोर्नोग्राफी के उत्पादन व उपभोग को जन्म देते हैं। यह दृष्टिकोण पोर्नोग्राफी उद्योग के मालिकों को सामने नहीं आने देता है। और यह दृष्टिकोण यह भी बताने में अक्षम है कि क्यों सारे नैतिक उपदेश देने व सरकारों के तथाकथित नियंत्रण व नियमन के बावजूद इसका प्रचलन दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। साम्राज्यवादी देशों में तो इस उद्योग को कानूनी मान्यता प्राप्त है। <br />
आमतौर पर बच्चों व युवाओं के ऊपर पोर्नोग्राफी के घातक असर की चर्चा होती है। परन्तु इण्टरनेट के प्रचार-प्रसार के साथ आज हर उम्र के व्यक्तियों के जीवन सम्बन्धों व मूल्यों पर इसका गहरा असर पड़ रहा है। और यौन अपराधों व महिलाओं के ऊपर बढ़ते हमलों में इन विचारों व मूल्यों के प्रभाव को हर कोई महसूस करता है। <br />
पोर्नोग्राफी को अफीम जैसी कोई संज्ञा देनी पडे़गी। अफीम की तरह इसका असर ऐसा पड़ता है कि कोई मनुष्य सामान्य सामाजिक जीवन में भी अक्षम होता जाता है। उसका आत्मिक पतन तेजी से होता जाता है। <br />
पोर्नोग्राफी फिल्में व साहित्य मानवीय यौन जीवन व यौन क्रियाओं को अतिरंजित करके पेश करता है। वह स्त्रियों को एक यौन वस्तु में तब्दील कर देता है। वह उन्हें उनकी सम्पूर्ण मानवीय गरिमा व सामाजिक जीवन के पक्षों से हीन वस्तु के रूप में पेश करता है। और इनमें चित्रित पुरुष भी मानवीय गरिमा व सामाजिकता से रहित एक घृणित पशु सा होता है जिसके दिमाग में हर वक्त यौनता व उत्तेजना छायी रहती है। पशुओं की यौनता तो प्रकृति से नियंत्रित होती है। परन्तु यहां मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्तियों को वर्गीय समाज खासकर साम्राज्यवादी पूंजीवाद ने वहां पहुंचा दिया है जहां उसका मानवीय सारतत्व यौनता बन जाती है। कामुकता का व्यापार तेजी से मुनाफा कमाने का साधन ही नहीं बन जाता है बल्कि विज्ञापन जगत में वह हर वस्तु को बेचने का सबसे कारगर हथियार समझा जाता है। कामुक प्रचार से पूंजीवादी मीडिया का शायद ही कोई कोना बचा हो।<br />
मानवीय जीवन में यौन सम्बन्धों के विकास की एक लम्बी कहानी है। जिसमें कबीलाई जीवन से पूंजीवादी समाज के स्तर पर हर युग में इसके साथ बनने वाले पारिवारिक संबंधों में देखा जा सकता है। परिवार का स्वरूप हर समाज व्यवस्था के साथ बदलता चला गया। पूंजीवादी समाज में संयुक्त परिवार के टूटने के बाद से अब पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में स्थिति वहां तक पहुंच गयी है जहां ऐसे परिवारों की भरमार है जिन्हें प्रचलित अर्थों में परिवार नहीं कहा जा सकता है। कबीलाई समाज के टूटने के बाद एकनिष्ठ परिवार और वेश्यावृत्ति की उत्पत्ति साथ-साथ हुई। वेश्यावृत्ति या व्यभिचार उस एकनिष्ठ परिवार का विरोधी स्वरूप था जिसमें किसी स्त्री से ही एकनिष्ठता की मांग की जाती थी। पुरुषों की एकनिष्ठता की वास्तविक तौर पर स्थापना व इसे यौन सम्बंधों में एक श्रेष्ठ व आवश्यक गुण मानना, उच्च मानवीय मूल्यों को समाज में स्थापित करने के संघर्ष को मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आन्दोलन या समाजवाद से ही जोड़ा जा सकता है। इन अर्थों में देखा जाए तो पोर्नोग्राफी मानसिक व्यभिचार है। यह पोर्नोग्राफी के सामान्य शब्दकोषीय अर्थ में वेश्याओं के जीवन, आचार-विचार का चित्रण है। और इससे आनन्द लेने का अर्थ है व्यक्ति किसी न किसी स्तर पर व्यभिचार में लिप्त है। यद्यपि यह व्यभिचार प्रत्यक्षतः व्यभिचार नहीं लग सकता है परन्तु अपने परिणाम में यह समाज में व्यभिचार को ही आगे बढ़ाता है। यह पोर्नोग्राफी के उद्योग में काम करने के लिए गरीब, बेरोजगार, उत्पीडि़त लाखों स्त्रियों व बच्चों को धकेलने का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कारण बन जाता है। यह यौन स्वतंत्रता या निजता के पूंजीवादी मूल्यों के आवरण में छिपा एक ऐसा विष है जो मजदूर, मेहनतकशों, नौजवानों, स्त्रियों जैसे समाज के शोषित-उत्पीडि़त तबकों को हर रूप में सबसे ज्यादा प्रभावित कर देता है। इस मामले में पूंजीपति वर्ग समाज के शोषित-उत्पीडि़तों के साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसा कभी रोम में दासों के साथ होता था। वह उन्हें एक तरह से पशु में तब्दील कर देता है। और यद्यपि यह भी सच है कि ऐसा करने के दौरान वह स्वयं भी पशु में तब्दील हो जाता है। पोर्नोग्राफी मजदूर-मेहनतकशों को दास, पशु में बदलने का एक आधुनिक कारगर हथियार है। <br />
वास्तव में जैसे मानवीय समाज का विकास होता गया और वह पहले से एक श्रेष्ठ समाज में तब्दील होने की ओर बढ़ा है। वैसे-वैसे उसके बीच कायम सामाजिक संबंधों में भी तब्दीली और पहले से बेहतरी आती गयी है। स्त्री-पुरुषों के यौन संबंधों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है। परन्तु एक समय बाद यह आवश्यक हो जाता है कि वह समाज एक नये चरण या युग में प्रवेश करे अन्यथा उसमें पतन का साम्राज्य हो जाता है। पूंजीवादी समाज के बारे में यह सच है कि वह दशकों पहले ही उस अवस्था में पहुंच चुका है। जहां उसमें पतन की ही बहुलता है। यही बात मानवीय संबंधों के इस पक्ष पर भी लागू होती है कि स्त्री-पुरुष संबंधों में श्रेष्ठ मानवीय व वैज्ञानिक मूल्यों के स्थान पर पूंजीवादी समाज जन्य घृणित व विकृत मूल्यों का बोल बाला है। पोर्नोग्राफी इसी में से एक चीज है। यह स्त्री-पुरुष के सामाजिक संबंधों को विकृत यौन संबंधों का पर्याय बना देती है। यौन क्रिया को महिमामंडित व अतिरंजित कर कामुकता के रहस्य से ढंक देती है। जबकि मनुष्य जाति के पुनरुत्पादन व स्त्री-पुरुष के सामाजिक संबंधों के एक खास रिश्ते का एक सामान्य प्राकृतिक व सहज पहलू भर है। इस रिश्ते में वैज्ञानिक व सामाजिक अर्थों में निजता, स्वतंत्रता, प्रेम व श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों का संचार पूंजीवादी समाज में नहीं समाजवादी समाज में ही संभव है। इस संभावना को पैदा करने के लिए आवश्यक है कि उस भौतिक व आत्मिक आधार को तैयार किया जाए जहां स्त्री-पुरुषों की वह पीढ़ी तैयार हो जो इस संभावना को साकार कर सके। समाजवाद में ही वह भौतिक व आत्मिक आधार आकार ग्रहण कर सकेगा जहां पैदा हुये नये इंसान पूंजीवादी समाज जनित हर रोग से मुक्त होंगे। उस समाज में कामुकता पर आधारित इस उद्योग का कोई स्थान नहीं होगा। पोर्नोग्राफी के प्रचार-प्रसार का कोई अवसर व स्थान नहीं होगा।
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।