6 मार्च, 2013 को उत्तराखण्ड शासन द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी(4980 रु.) मजदूरों के साथ में एक धोखा है, भद्दा मजाक है। महंगाई के इस आलम में क्या कोई मजदूर 4980 रुपये में अपना एवं अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकता है? आसमान छूती महंगाई में 4980 रुपये का वेतन मजदूरों एवं उनके परिजनों के लिए महज जीने लायक वेतन भी नहीं है।<br />
<strong>उत्तराखण्ड शासन द्वारा घोषित न्यूनतम वेतनमान</strong><br />
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अगस्त 2012 को उत्तराखण्ड शासन द्वारा 5500 रुपये मासिक न्यूनतम वेतनमान प्रस्तावित किया गया था और ट्रेड यूनियनों, मजदूर संगठनों से ‘न्यूनतम वेतनमान के संदर्भ में आपत्तियां एवं सुझाव आमंत्रित किये गये थे।<br />
सिडकुल पंतनगर में स्थापित उद्योगों में से पंजीकृत ट्रेड यूनियनों, इंकलाबी मजदूर केन्द्र एवं अन्य मजदूर प्रतिनिधियों/संगठनों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के 15 वें सम्मेलन की रिपोर्ट (जिसके आधार पर केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा छठे वेतन आयोग की सिफारिशों पर कर्मचारियों की वेतन वृद्धि की थी) को आधार बनाकर वर्तमान में कम से कम 12,000 रुपये मासिक वेतनमान निर्धारित करने के लिए अपने सुझाव शासन को भेजे थे और शासन द्वारा प्रस्तावित 5500 रुपये के न्यूनतम वेतनमान पर कड़ी आपत्ति दर्ज की थी।<br />
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के 15वें सम्मेलन की रिपोर्ट एवं उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर मजदूरों का न्यूनतम वेतनमान 12,000 रुपये से 15,000 रुपये मासिक होना चाहिए। 3 यूनिट के परिवार को चलाने के लिए 12,000 रुपये मासिक एवं 5 यूनिट (सदस्य) के परिवार को चलाने के लिए 16,000 रुपये मासिक का न्यूनतम वेतनमान होना चाहिए।<br />
वर्तमान समय में ज्यादातर मजदूरों के लिए खेती आय का कोई खास स्रोत नहीं है। मजदूरों को अपने बच्चों-पत्नी के साथ-साथ मां-बाप की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती है। सिडकुल के अंतर्गत स्थापित उद्योगों में कार्यरत मजदूरों को महज कमरे का किराया ही दो-ढाई हजार रुपये मासिक का देना होता है। मजदूर जैसे-तैसे समूह में कमरा किराये पर लेकर ही गुजर-बसर करते हैं। अब 4980 रुपये के वेतन में कोई मजदूर दो-ढाई हजार के किराये के कमरे में पत्नी व बच्चों के साथ कैसे रह पायेंगे? मजदूरों के बच्चों के शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, कपड़ा आदि का बंदोबस्त कैसे हो पायेगा? ऐसी स्थिति में मजदूरों के बच्चे स्कूल जाने के स्थान पर बाल मजदूर बनने को अभिशप्त नहीं होंगे।<br />
आज उद्योगों/संस्थानों में 80 प्रतिशत से अधिक मजदूर ठेके के तहत कार्यरत हैं और श्रम कानूनों के तहत प्राप्त अधिकारों/सुविधाओं से लगभग वंचित हैं। ठेका मजदूरों में से एक बड़ी मजदूर आबादी ऐसी है जिन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है तिस पर भी शासन द्वारा मात्र 4980 रुपये का ही न्यूनतम मासिक वेतनमान निर्धारित करना सरकारों की असंवेदनशीलता, पूंजीपरस्ती एवं मजदूर विरोधी रुख को ही दिखाता है। लाखों के वेतन-भत्ते एवं सुविधाओं से लैस मंत्री-नेता एवं अफसर मजदूरों के लिए महंगाई के इस दौर में पांच हजार से भी कम का न्यूनतम वेतनमान मजदूरों के लिए निर्धारित कर अपनी वर्गीय पक्षधरता को प्रदर्शित करते हैं। अपने वेतन-भत्तों में बढ़ोत्तरी के लिए ध्वनिमत से प्रस्ताव पारित करने वाले मंत्रियों-नेताओं द्वारा मजदूरों के वेतन पुनरीक्षण में लगभग तीन साल का विलम्ब किया गया। इससे पूर्व मई 2005 में न्यूनतम वेतनमान का पुनरीक्षण किया गया था। अगला वेतनमान पुनरीक्षण मई 2010 में होना चाहिए था। परन्तु उत्तराखण्ड शासन को अगस्त 2012 में उसकी याद आई।<br />
न्यूनतम वेतनमान के पुनरीक्षण में इस बात का कोई जिक्र नहीं किया गया है कि मजदूरों को मई 2010 से मार्च 2012 तक की अवधि के बकाये का भुगतान किया जायेगा या नहीं। और यह बात भी दर्ज नहीं है कि न्यूनतम वेतनमान का पुनरीक्षण 2015 में किया जायेगा अथवा 2018 में।<br />
शासन स्तर पर हुई वार्ता कमेटी में बी.एम.एस., इंटक एवं सीटू समेत पांच ट्रेड यूनियन सेण्टरों के प्रतिनिधि वार्ता में शामिल हुए और मजदूरों के साथ में धोखा एवं गद्दारी करते हुए 4980 रुपये के न्यूनतम वेतनमान के प्रस्ताव में हस्ताक्षर कर आये। इन ट्रेड यूनियन सेण्टरों के नेताओं द्वारा हस्ताक्षर करने से पूर्व हमेशा की तरह इस बार भी मजदूरों से राय-मशविरा किये वगैर हस्ताक्षर कर दिये और 4980 रुपये के न्यूनतम मासिक वेतनमान को अपनी तरफ से हरी झंडी दे दी है और पूंजीपतियों के प्रति अपनी वफादारी को पुनः प्रदर्शित किया। शासन द्वारा प्रस्तावित 5500 रुपये के मासिक वेतनमान को और अधिक बढ़ाने के स्थान पर इन ट्रेड यूनियन सेण्टरों के नेताओं द्वारा घटाकर 4980 रुपये कर दिया।
उत्तराखण्ड शासन द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी मजदूरों के साथ में घोखा है
राष्ट्रीय
आलेख
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