
भारत की विदेश नीति किस कदर दिवालिया हो गई है, वह दो घटनाओं से समझा जा सकता है- एक वैचारिक और एक व्यावहारिक। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद अपने मुंह से एकाधिक बार घोषित किया है कि अब युद्ध का जमाना बीत गया है। हाल में उन्होंने इसमें यह जोड़ा है कि यह जमाना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का है।
प्रधानमंत्री के ये कथन तब आए हैं जब खुद यूरोप एक लंबे समय बाद ऐसे युद्ध में उलझा है जिसमें दुनिया की सारी प्रमुख शक्तियां प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर शामिल हैं। ऊपरी तौर पर युद्ध रूस और यूक्रेन की बीच है पर यूक्रेन के पीछे दरअसल नाटो यानी अमेरिका और यूरोप है। असल में युद्ध शुरू ही इसलिए हुआ कि रूस नहीं चाहता था कि नाटो की सेनाएं यूक्रेन में यानी रूसी सीमा तक आ पहुंचें। दूसरी ओर रूस के साथ चीन खड़ा है।
युद्ध केवल यूरोप तक सीमित नहीं है। इस समय पश्चिम एशिया का एक बड़ा हिस्सा युद्ध में उलझा है जहां इजरायली जियनवादी शासक फिलिस्तीन में नरसंहार कर रहे हैं। अफ्रीका के ढेरों देशों के बीच युद्ध या फिर देश के भीतर गृहयुद्ध चल रहे हैं। स्वयं भारत, पाकिस्तान के साथ एक बार फिर युद्ध के मुहाने तक जा पहुंचा था और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हस्तक्षेप से उससे बच सका।
इस जमीनी हकीकत के मद्देनजर दावा करना कि युद्धों का जमाना बीत गया है या तो कबूतर की तरह आंखें मूंदना है या फिर कोई कुटिल मंशा। दोनों ही देश की विदेश नीति के आधार के तौर पर खतरनाक हैं।
असलियत यह है कि चीन के एक बड़ी साम्राज्यवादी ताकत के तौर पर उभरने के साथ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार सारे समीकरण बड़े पैमाने पर बदलने की संभावना पैदा हो गई है जो स्वभावतः ही वैश्विक अस्थिरता और युद्ध की ओर ले जाती है। जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो युद्ध के परिणाम से ही दुनिया भर में शक्तियों का एक संतुलन स्थापित हो गया। दुनिया दो ध्रुवों में बंट गई। एक ओर अमेरिकी साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में पूंजीवादी विश्व था, मुख्यतः पश्चिमी साम्राज्यवादी, तो दूसरी ओर सोवियत संघ के नेतृत्व में एक समाजवादी खेमा था। द्वितीय विश्व युद्ध में धूल-धूसरित जापान और (पश्चिम) जर्मनी अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ थे। नए-नए आजाद हो रही तीसरी दुनिया के देश बीच-बीच के थे, कुल मिलाकर सोवियत खेमे की ओर झुके हुए। दुनिया भर में शक्तियों का यह संतुलन 1980 के दशक तक बना रहा- सोवियत खेमे के समाजवाद का रास्ता छोड़ देने, चीन के सोवियत संघ से विलगाव तथा फिर वहां भी पूंजीवादी पुनर्स्थापना हो जाने तथा जर्मनी व जापान के पुनर्निर्माण के बावजूद। इनमें कोई बड़ा परिवर्तन तभी आया जब 1980 के दशक के अंत में सोवियत खेमा और अंत में 1991 में सोवियत संघ स्वयं बिखर गया। अब दुनिया एकध्रुवीय हो गयी। अमेरिकी साम्राज्यवादियों का एकछत्र वर्चस्व कायम हो गया। वैसे यह एक तरह से पहले के वैश्विक शक्ति संतुलन का विस्तार ही था क्योंकि अमेरिका हमेशा ही सबसे बड़ी ताकत रहा था। सोवियत संघ केवल सैनिक तौर पर ही चुनौती दे पाता था।
अब चीनी साम्राज्यवाद के उभार के साथ दुनिया के स्तर पर शक्ति संतुलन बदल रहा है। चीन आर्थिक और सामरिक दोनों स्तरों पर एक बड़ी ताकत के तौर पर सामने आ चुका है- अमेरिका से थोड़ा ही पीछे। इसके जल्दी ही अमेरिका से आगे निकल जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है। ऐसे में स्वभावतः ही चीनी साम्राज्यवादी दुनिया के बांट-बंखरे में अपनी ताकत के अनुरूप अपना हिस्सा चाहेंगे। यह बिना शीत या गरम युद्ध के संभव कैसे होगा? अमेरिकी व चीनी साम्राज्यवादी आपस में भले न लड़ें पर दुनिया भर में ‘प्राक्सी’ युद्ध में तो उलझ ही सकते हैं। याद रखना होगा कि सोवियत और अमेरिकी साम्राज्यवादी दोनों दो दशकों तक ‘प्राक्सी’ युद्ध लड़ते रहे थे।
ऐसे में यह घोषित कर देना कि युद्धों का जमाना बीत गया है, हद दर्जे की मूढ़ता या फिर पूर्ण दीवालियापन है। इस सोच के साथ भारत सरकार उस चीज के लिए जरा भी तैयार नहीं हो सकती थी जो हालिया भारत-पाक झड़प के समय देखने को मिली। भारत की वायु सेना के लिए पाकिस्तान की वायु सेना का प्रदर्शन हैरान कर देने वाला ही रहा होगा क्योंकि उसे गुमान भी नहीं होगा कि उसके पीछे चीन खड़ा है। चीन ने आज भारत की आर्थिक और राजनयिक घेरेबंदी कर ली है। हालिया झड़प ने दिखाया कि कम से कम पाकिस्तान के मामले में यह सैनिक घेरेबंदी भी है। भारत सरकार जिस तरह पड़ोसी मुल्कों से संबंध चला रही है, उसे देखते हुए आश्चर्य नहीं होगा यदि वे भी इसी राह पर चल पड़ें।
मोदी का कहना है कि यह जमाना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का है। यह वह जुमला है जिसे 2001 के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने उछाला था। जगजाहिर है कि वहां धुर-दक्षिणपंथियों ने इस जुमले की आड़ में अपनी ‘इक्कीसवीं सदी की परियोजना’ को परवान चढ़ाने का प्रयास किया था। यह जुमला असल में वह आड़ था जिसके पीछे अमेरिकी साम्राज्यवादी दुनिया के सारे समीकरणों को इस तरह ढालना चाहते थे कि समूची इक्कीसवीं सदी में उनका एकछत्र वर्चस्व रहे। इस जुमले का यह जरा भी मतलब नहीं था कि अमेरिकी साम्राज्यवादी दुनिया भर से आतंकवाद को समाप्त करना चाहते थे। वह इसलिए कि दुनिया भर के ज्यादातर आतंकवाद के जनक तो वे स्वयं थे। वैसे भी उनकी ‘इक्कीसवीं सदी की परियोजना’ चूंकि इसी की आड़ में परवान चढ़ती थी इसलिए यह जरूरी था कि दुनिया भर में आतंकवाद रहे।
आजकल अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने रूस-चीन की चिंताओं के मद्देनजर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का जुमला इस्तेमाल करना कम कर दिया है। इस चुक गये कारतूस को अब मोदी सरकार ने उठा लिया है। उसे लगता है कि वह इसकी आड़ में इसी तरह अपने अन्य लक्ष्यों को हासिल कर सकती है जैसा कभी अमेरिकी साम्रज्यवादियों ने हासिल करने का प्रयास किया था। बस मोदी एण्ड कंपनी भूल जाते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों का इराक और अफगानिस्तान में क्या हाल हुआ।
मोदी सरकार आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को एक खास दिशा में ले जाना चाहती है। पर एक पड़ोसी देश के साथ संबंध को अपनी विदेश नीति की धुरी बता देना परले दरजे की मूर्खता है।
पर मोदी सरकार यह कर रही है क्योंकि यह उसकी अंदरूनी नीति से मेल खाता है। किसी भी देश की विदेश नीति आंतरिक नीति का ही विस्तार होती है। दोनों एक-दूसरे के विपरीत नहीं हो सकते। मोदी सरकार की आंतरिक नीति हिन्दू फासीवाद की नीति है। यह हिन्दू फासीवादियों के ‘हिन्दू राष्ट्र’ और बड़े एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की बेलगाम लूटपाट के गठबंधन की नीति है। यह नीति स्वतः ही अंध राष्ट्रवाद और युद्धोन्माद की ओर ले जाती है। देश के भीतर मुसलमान तथा देश के बाहर पाकिस्तान इसके प्रमुख निशाने होते हैं जिसके जरिये इस नीति के लिए जनगोलबंदी की जाती है।
एक नजर डालते ही पता चल जाता है कि कैसे यह नीति दुनिया भर के सारे उलझे हुए समीकरणों से निपटने में भारत सरकार को अक्षम बना देती है। नतीजा यह निकलता है भारत-पाक झड़प में दुनिया का कोई देश खुलकर भारत के साथ नहीं खड़ा होता और ‘मित्र देशों’ को समझाने के लिए भारत सरकार को सब जगह सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल भेजने पड़ते हैं।
यही वह दूसरी चीज है जिससे भारत सरकार की विदेश नीति का दिवालियपन नजर आता है। देश पिछले कई सालों से सुनता आया था कि दुनिया भर में भारत सरकार का डंका बज रहा है। कि यह डंका मोदी ने बजाया है। अब संकट के समय पता चला कि ऐसा कुछ भी नहीं था।
ऐसा क्यों और कैसे हुआ।
मोदी से बहुत पहले ही भारत सरकार की विदेश नीति एक खास दिशा में ढुलकती चली गयी है। मोदी सरकार ने उसे बस उसकी परिणति तक पहुंचाया है।
सोवियत खेमे के पतन और सोवियत संघ के विघटन के समय ही भारत के पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार ने तय किया कि उसे अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ ज्यादा से ज्यादा सटना है। शायद उन्होंने सोचा हो कि एकध्रुवीय दुनिया लम्बे समय तक बनी रहेगी और भारत के लिए अच्छा यही होगा कि वह दुनिया के चौधरी के पीछे लग ले। न तो उन्होंने यह सोचा कि दुनिया फिर द्विध्रुवीय या बहुध्रुवीय हो सकती है और न ही उन्होंने इसकी कोई तैयारी की। यही नहीं, जब इस सदी में चीन का उभार स्पष्ट होने लगा तो उन्हें अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ सटने की अपनी नीति और मौजूं लगने लगी। वे खुशी-खुशी ‘क्वाड’ तथा चीन को घेरने की अमेरिकी साम्राज्यवादियों की वृहत्तर परियोजना में शामिल हो गये। इसी के हिस्से के तौर पर उन्होंने इजरायल के जियनवादी शासकों के साथ विशेष संबंध कायम कर लिए।
भारत सरकार की यह नीति न केवल भारत की रूस से दूरी बढ़ाती थी बल्कि चीन के साथ टकराव की ओर ले जाती थी। इसने ईरान से आर्थिक संबंध के खात्मे तक मामले को पहुंचा दिया। ज्यादा खराब बात यह हुई कि इसने दुनिया भर में भारत की साख को बहुत धक्का पहुंचाया। ऐसा लगने लगा कि भारत की कोई स्वतंत्र आवाज नहीं रह गयी है। इसीलिए जब भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध में बीच का रास्ता चुना तो बहुतों को अचरज हुआ। शायद रूसी हथियारों पर भारत की अभी भी निर्भरता ने भारत सरकार को ऐसा करने के लिए बाध्य किया हो पर इसने सबको चौंकाया।
इन सबका वही नतीजा होना था जो भारत-पाक झड़प के समय हुआ। भारत के कमजोर पक्ष को देखते हुए कोई भी देश बिना शर्त उसके साथ दिखने को तैयार नहीं था। यदि इजरायल और तालिबान दिखे तो भी केवल इसलिए कि स्वयं उनकी कोई साख नहीं है।
भारत आबादी के लिहाज से दुनिया का सबसे बड़ा देश है और उसकी अर्थव्यवस्था भी खासी बड़ी है। इसीलिए दुनिया के सारे छोटे-बड़े देश उसके साथ कोई न कोई संबंध रखना चाहेंगे। इसमें कोई गर्व की बात नहीं है। गर्व की बात तब होती जब उसकी कोई स्वतंत्र आवाज होती और दुनिया के समीकरणों को किसी हद तक प्रभावित कर रहा होता। सच्चाई यही है कि दुनिया भर में आज भारत की वह भी हैसियत नहीं है जो कभी गुट निरपेक्ष आंदोलन के जमाने में हुआ करती थी।
देश के भीतर मोदी सरकार इसकी भरपाई झूठे प्रचार से कर रही है। दो साल पहले देश में जी-20 का भव्य आयोजन इसी प्रचार का एक हिस्सा था। दुनिया भर में मोदी के भव्य आयोजन इसीलिए होते हैं। इन आयोजनों का लक्ष्य वे देश नहीं होते जहां ये आयोजन होते हैं। इसके उलटे अपने देश की जनता उनका लक्ष्य होती है। इनके जरिये देश की जनता को बताया जाता है कि मोदी सरकार सारी दुनिया में भारत का कद कैसे बढ़ा रही है। निरंतर धुंआधार प्रचार से देश की जनता के एक हिस्से को यह लगने भी लगा था कि दुनिया भर में अब भारत का डंका बज रहा है और इसका श्रेय मोदी को जाता है। यहां तक कि कुछ लोग मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर इसे गिनाते थे।
अब भारत-पाक झड़प ने चार दिन के भीतर ही इस डंके की पोल खोल दी। पता चला कि भारत सरकार का डंका तो नेपाल-भूटान में भी नहीं बज रहा है। उधर मोदी के परम मित्र डोनाल्ड ट्रंप लगातार भारत देश और मोदी की बेइज्जती किये जा रहे हैं। मोदी और उनकी सरकार की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि बड़बोले ट्रम्प से कह सकें कि हुजूर इतना बेइज्जत तो न करें। कुछ तो पर्दा रहने दें।
राजा नंगा तो पहले ही था। अब सारी दुनिया ने बिना कहे कह भी दिया है। इस नंगेपन को सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल सारी दुनिया में भेजकर नहीं छिपाया जा सकता। सारे विदेशी इस प्रतिनिधि मंडल के सामने मंद-मंद मुस्करायेंगे ही।