
देश में माओवाद के सफाये पर उतारू फासीवादी सरकार ने बीते कुछ दिनों में भारी पुलिस व सैन्य बल लगाकर ढेरों माओवादी कार्यकर्ताओं व आदिवासियों की हत्यायें कर दीं। मारे जाने वालों में भाकपा (माओवादी) के महासचिव कामरेड बसवराजू भी शामिल हैं। अपने ही देश के नागरिकों की जघन्य हत्या करना, उनकी लाशों के सामने सैन्य बलों का नृत्य करना और मृतकों की लाशों को अंतिम क्रिया करने के लिए परिजनों को न सौंपने की घटनाओं ने साबित कर दिया कि मौजूदा केन्द्र सरकार व संघ-भाजपा मण्डली सत्ता के नशे की मद में इस कदर चूर है कि अपने ही कानूनों को धता बता अपने ही नागरिकों की हत्यायें करने में उसे कोई लाज-शर्म नहीं रह गयी है।
बीते 2-3 माह में भाकपा (माओवादी) बारम्बार केन्द्र व राज्य सरकार के सम्मुख युद्ध विराम कर वार्ता का प्रस्ताव रख चुकी थी। पर गृहमंत्री अमित शाह ने इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया। तमाम नागरिक संगठनों, पूंजीवादी दलों द्वारा भी सरकार पर वार्ता हेतु दबाव बनाया गया पर सरकार वार्ता करने के बजाय आपरेशन कगार का दायरा बढ़ाती गयी। माओवादी कार्यकर्ताओं व आदिवासियों के कत्लेआम पर उतारू सरकार ने द्रोण, आधुनिक हथियार, हवाई गोलाबारी के जरिये मानो जंगलों को खाली कराने की कसम खा ली थी। सीमा पर युद्धों में इस्तेमाल होने वाले हथियारों को अपने ही नागरिकों पर आजमाने में भी मोदी सरकार को कोई गुरेज नहीं है।
सरकार मध्य भारत के जंगल खाली कराने को इतनी उत्सुक क्यों है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। बीते 2-3 दशकों से सरकारें इन जंगलों के खनिजों को बड़े एकाधिकारी पूंजीपतियों पर लुटाने को तत्पर रही हैं। इन जंगलों में बसने वाले आदिवासी सरकार के मंसूबों को परवान नहीं चढ़ने दे रहे हैं। वे जंगल को पूंजी की खुली लूट के लिए सौंपने को तैयार नहीं हैं। आदिवासियों के इस न्यायपूर्ण संघर्ष में माओवादी पार्टी उनका साथ दे रही है।
अब लगता है मोदी-शाह मंडली ने किसी भी हद पर जाकर जंगलों को अपने आका पूंजीपतियों को सौंपने की मानो कसम खा ली है। इसलिए सरकारी बलों को आदिवासियों-माओवादी कार्यकर्ताओं की हत्या के अभियान में सरकार ने झोंक दिया है। वैसे भी गृहमंत्री अमित शाह ने अगले एक वर्ष में माओवाद के समूल नाश का लक्ष्य ले रखा है।
आदिवासियों को उनके मूल स्थानों जंगलों से जबरन उजाड़ने की यह सरकारी मुहिम घोर अन्यायपूर्ण है। देश की खनिज सम्पदा को पूंजीपतियों की लूट-मुनाफे के लिए सौंपना और जंगलों की बर्बादी, पर्यावरण का ध्वंस यह सब सरकार द्वारा किया जा रहा घोर अपराध है।
सत्ता के मद में चूर मोदी सरकार इतिहास से भी सबक लेने, सीखने को तैयार नहीं है। तेलंगाना-तेभागा-नक्सलबाड़ी आंदोलन से लेकर आज तक शासक वर्ग ने बारंबार अपने हक-हकूक के लिए लड़ती जनता, उसके क्रांतिकारी संघर्ष को कुचलने के मंसूबे पाले। शासक अपने दमन के औजारों से संघर्ष को नुकसान पहुंचाने में कुछ सफल भी हुए पर हर बार संघर्ष शासकों के मंसूबों को धूल चटाते हुए फिर-फिर उठ खड़ा हुआ और शासकों के अन्याय-अत्याचार का मुकाबला करने लगा।
मोदी सरकार इस हकीकत को स्वीकारने को तैयार नहीं है कि धरती पर जब तक जुल्म होगा, लूट-शोषण होगा तब तक जनता अपने क्रांतिकारी संघर्षों से उसका मुकाबला करने को उठ खड़ी होगी। इसीलिए शोषण-अन्याय के खिलाफ जनता का क्रांतिकारी संघर्ष अजर-अमर है। इसी तरह मजदूरों-मेहनतकशों के इस संघर्ष में अतीत के क्रांतिकारियों के विचार हमेशा उन्हें राह दिखाते रहेंगे। मार्क्स-एंगेल्स से लेकर चीन के महान क्रांतिकारी माओ के विचार हमेशा संघर्षरत जनता को संघर्ष की राह दिखाते रहेंगे। इसीलिए माओ के विचारों को और उस पर चलने वालों को खत्म करने की शासकों की इच्छा कभी पूरी नहीं होगी।
आज जरूरी है कि सरकार पर भाकपा (माओवादी) से वार्ता करने का दबाव डाला जाये कि सरकार जंगलों में आदिवासियों का जीवन दूभर करने वाले सुरक्षा बलों-पुलिस बलों की भारी भरकम तैनाती खत्म करे और जंगलों की खनिज सम्पदा को पूंजीपतियों को लुटाने के मंसूबे त्याग दे। अपने ही देश के नागरिकों का जघन्य कत्लेआम बंद करे।