साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा टकराव की ओर

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रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले और तेज व व्यापक हो गये हैं। कहा जाता है कि यूक्रेन ने ड्रोन हमलों की बौछार रूसी राष्ट्रपति पुतिन के हेलीकाप्टर को मार गिराने की कोशिश के बतौर की। यह कुर्स्क क्षेत्र में पुतिन की यात्रा के दौरान किया गया। इसके जवाब में यूक्रेन पर रूसी हमलों की तेजी तात्कालिक तौर पर आयी। लेकिन रूस की यह योजना लम्बे समय से चल रही थी कि रूसी सीमा को यूक्रेनी हमलों से सुरक्षित रखने के लिए यूक्रेन के भीतर एक बफर जोन बनाया जाये। इस बफर जोन को बनाने के लिए रूस द्वारा यूक्रेन के खारकीव, सुमी और अन्य क्षेत्रों में मौजूदा हमले केन्द्रित थे। इसके अतिरिक्त, यूक्रेन के फौजी ठिकानों, ड्रोन बनाने वाली फैक्टरियों और विदेशी हथियारों के गोदामों पर ड्रोन और मिसाइल हमले किये गये। इस व्यापक हमले के बाद यूक्रेन के शासकों में ही नहीं बल्कि यूरोपीय संघ के देशों में रूस को सबक सिखाने की तैयारियां तेज हो गयीं। 
    
इन व्यापक हमलों के बाद अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सार्वजनिक तौर पर पुतिन को पागल करार दिया। ट्रम्प ने कहा कि पुतिन बेकसूर नागरिकों की हत्या कर रहे हैं। यह गलत है और वे इसे पसंद नहीं करते। किसी पत्रकार द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने जवाब दिया कि वे रूस पर और ज्यादा प्रतिबंध लगा सकते हैं। एक अन्य बातचीत में ट्रम्प ने यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेन्स्की की भी निंदा की और कहा कि जब भी जेलेन्स्की अपना मुंह खोलते हैं तो कोई न कोई समस्या पैदा कर देते हैं। उन्होंने जेलेन्स्की को अपनी जुबान बंद रखने को कहा। ट्रम्प ने यह भी कहा कि यह उनका युद्ध नहीं है। यह पुतिन, जेलेन्स्की और बाइडेन का युद्ध है। वे इस युद्ध को तत्काल रोकना चाहते हैं। वे अपने को शांति स्थापित करने वाले दूत के रूप में पेश करते रहे हैं। 
    
दरअसल, ट्रम्प अमरीकी साम्राज्यवाद के विश्व प्रभुत्व को बनाये रखने के लिए जी-तोड़ प्रयास में लगे हुए हैं। वे इस बात को लम्बे समय से कहते रहे हैं कि रूस और चीन के बीच की एकता को तोड़ना उनका मकसद है। अमरीकी साम्राज्यवादी चीन को अपना प्रमुख प्रतिद्वंद्वी और दुश्मन मानते हैं। इस मामले में अमरीकी शासक वर्ग एक है। इसमें ट्रम्प भी शामिल हैं।
    
ट्रम्प के सामने चीनी साम्राज्यवादियों से मिलने वाली चुनौती से निपटना प्रमुख समस्या है। चीनी साम्राज्यवादियों और रूसी साम्राज्यवादियों का गठजोड़ अमरीकी साम्राज्यवाद के विश्व व्यापी प्रभुत्व को कमजोर करता है और चुनौती दे रहा है। इसलिए, हेनरी किसिंजर के प्रयोग का इस्तेमाल करने का प्रयास करते हुए ट्रम्प, रूस और चीन के बीच बने गठजोड़ को तोड़ना चाहते हैं। हेनरी किसिंजर ने 1971-72 में चीन के साथ सम्बन्धों को बहाल करके और चीन को सोवियत संघ के विरुद्ध खड़ा करने में भूमिका निभायी थी। 
    
इसलिए सत्ता में आते ही ट्रम्प ने रूस के साथ सम्बन्ध सामान्य करने की पहल ली। यह यूक्रेन में शांति बहाल करने के नाम पर किया गया। ट्रम्प ने बाइडेन की यूक्रेन नीति को पलट दिया। वे यह दावा करने लगे कि बाइडेन ने यह युद्ध जारी रखा। इसने अमरीकी हथियारों और धन की बड़े पैमाने पर बर्बादी की। ट्रम्प की इस योजना से न सिर्फ जेलेन्स्की सकते में आ गये बल्कि यूरोपीय संघ के देशों को भी इसने सकते में डाल दिया। ट्रम्प और पुतिन ने समझौता वार्ता शुरू करने की पहल ली। इससे जेलेन्स्की को दूर रखा गया। यूरोपीय संघ के देशों को इसमें शामिल नहीं किया गया। अमरीकी प्रतिनिधिमंडल ने जेलेन्स्की के साथ अलग से बात की। यह वार्ता रियाद में हुई थी। इसके बाद 30 दिन का आंशिक युद्ध विराम तय हुआ। इस युद्ध विराम का बार-बार उल्लंघन होता रहा। इसके बाद रूस और यूक्रेन के बीच प्रत्यक्ष वार्ता तुर्की के इस्ताम्बुल में हुई। इस वार्ता में युद्धबंदियों और अन्य नागरिकों की अदला-बदली पर सहमति हुई। इसके अतिरिक्त दोनों पक्षों के बीच तय हुआ कि वे समझौते के प्रस्ताव तैयार करके एक-दूसरे के सामने पेश करेंगे। यह तैयारी अभी चल ही रही थी कि यूक्रेनी ड्रोन रूस के अलग-अलग शहरों में हमले जारी रखे हुए थे। रूसी सेनायें भी यूक्रेन के भीतर अपने कब्जे के अभियान को जारी रखे हुए थीं। 
    
इन सबके बीच यूरोपीय संघ के देशों की भूमिका लगातार युद्ध को और भड़काने की रही है। जब ट्रम्प ने जेलेन्स्की को अमरीकी राष्ट्रपति भवन में बेइज्जत करके रुखसत किया तो जेलेन्स्की यूरोपीय संघ के देशों के साथ यूक्रेन के समर्थन के लिए मीटिंग करने लगे और फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी के साथ-साथ अन्य यूरोपीय संघ के देशों ने यूक्रेन की युद्ध में मदद करने के लिए ‘‘चाहने वालों का गठबंधन’’ का गठन किया। उन्होंने अपने-अपने देशों में हथियारों के उद्योग को बढ़ावा देने की योजनायें बनानी शुरू कर दीं। यूरोपीय संघ के देशों का रक्षा बजट बढ़ाया गया। इन देशों ने हथियारों की आपूर्ति की। फ्रांस ने यूरोप के देशों को परमाणु रक्षा कवच देने की पेशकश की। 
    
इससे यूक्रेनी राष्ट्रपति का युद्ध जारी रखने का हौंसला और बढ़ता गया। चूंकि रूसी सेना का मुकाबला करने की सामर्थ्य यूक्रेन में नहीं है, इसलिए यूक्रेन में यूरोपीय देशों अैर अन्य जगहों से भाड़े के सैनिक लड़ाई में शामिल किये गये। इन सबसे भी जब काम नहीं चल रहा है तो अब यूरोपीय संघ के देश यूक्रेन के भीतर रूस के विरुद्ध सेना उतारने की तैयारी कर रहे हैं। वे रूस पर और ज्यादा प्रतिबंध लगा रहे हैं। जर्मनी की सेनायें लिथुआनिया में तैनात की गयी हैं। पोलैण्ड पहले से ही यूक्रेन की मदद कर रहा है। इससे अब रूस के भीतर तक लम्बी दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों के हमलों की संभावना बढ़ रही है। यदि यूरोपीय देशों की सेनायें यूक्रेन के साथ सीधे तौर पर लड़ने के लिए रूस के विरुद्ध उतरती हैं तो फिर यह एक व्यापक युद्ध में तब्दील होने की संभावना लिए हुए है। इससे यूरोपीय संघ के देशों में भी मतभेद उभर कर सामने आ गये हैं। इटली ने कह दिया है कि वह अपनी सेनायें नहीं भेजेगा। हंगरी और सर्बिया पहले से ही रूस के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने के विरोधी रहे हैं। स्लोवाकिया ने इस युद्ध को बेकार की कार्रवाई कहा है और इसमें शामिल होने से इंकार किया है। 
    
यूरोपीय संघ के साम्राज्यवादियों की निगाहें यूक्रेन की खनिज सम्पदा पर हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी यूक्रेन के साथ खनिज सम्पदा पर कब्जा करने सम्बन्धी समझौता कर चुके हैं। ब्रिटेन, फ्रांस, और जर्मनी भी इस दौड़ में शामिल हैं। 
    
इसलिए साम्राज्यवादियों से यह उम्मीद करना कि वे यूक्रेन की मदद इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उसकी सम्प्रभुता पर रूस ने आक्रमण किया है, कोरे दिवास्वप्न के सिवाय और कुछ नहीं है। ये यूरोपीय संघ के देश एक तरफ अपने-अपने देशों में सामाजिक सुरक्षा पर कटौती कर रहे हैं। लोगों की पेंशनों में कटौती कर रहे हैं। अपने यहां के मजदूरों-मेहनतकशों पर तरह-तरह के बोझ लाद रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ वे सैन्य खर्चों में बढ़ोत्तरी कर रहे हैं और युद्धोन्माद पैदा कर रहे हैं। 
    
ये यूरोपीय साम्राज्यवादी देश अपने वित्तपतियों की मदद में और मजदूर-मेहनतकश आबादी के विरुद्ध ये सारी कार्रवाइयां कर रहे हैं। 
    
इस रूस-यूक्रेन युद्ध के तीन साल से ज्यादा समय के दौरान अमरीकी हथियारों की ब्रिकी हुई है। अमरीकी हथियारों के खरीददार ये यूरोपीय संघ के देश भी हैं। 
    
यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि इन देशों के भीतर धुर दक्षिणपंथी पार्टियां ताकतवर हो रही है और कहीं-कहीं सत्ता में भी आ रही हैं। मजदूर-मेहनतकश आबादी के खून की अंतिम बूंद तक निचोड़ने में ये सभी लगी हुई हैं और अब सामाजिक सुरक्षा को जब खत्म कर रही हैं तो इन शासकों के विरुद्ध जनता का गुस्सा भड़क रहा है और इस गुस्से का इस्तेमाल घोर दक्षिणपंथी और यहां तक कि फासीवादी ताकतें कर रही हैं। यह घोर दक्षिणंपथी उभार समूचे यूरोप में दिखाई दे रहा है। अभी मजदूर-मेहनतकश आबादी इनकी लोक-लुभावन बातों का शिकार हो रही है। 
    
जैसे-जैसे ये यूरोपीय संघ के देश रूस-यूक्रेन युद्ध में प्रत्यक्ष तौर पर हिस्सा लेने के लिए आगे बढ़ेंगे, वैसे-वैसे वहां की मजदूर-मेहनतकश आबादी इनके विरुद्ध बड़े पैमाने पर खड़ी होती जायेगी। यह देर-सबेर होना ही है। 
    
जहां तक ट्रम्प के नेतृत्व में अमरीकी साम्राज्यवादियों का ताल्लुक हैं, वे अमरीका को फिर से महान बनाने के नारे के पीछे अमरीकी एकाधिकारी पूंजीपतियों की सेवा में खुलकर कार्य कर रहे हैं। वे गाजा नरसंहार में इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों की मदद कर रहे हैं। वे पश्चिम एशिया में चीनी साम्राज्यवादियों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए सऊदी अरब, कतर, संयुक्त अरब अमीरात के साथ आर्थिक समझौते सम्पन्न कर रहे हैं। इसके साथ ही वे एक तरफ ईरान के साथ परमाणु समझौता करने की बातचीत कर रहे हैं और दूसरी तरफ ईरान को समझौता न होने की हालत में तहस-नहस करने की धमकी दे रहे हैं। यह बात सही है कि आज भी अमरीकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इसकी सेना और हथियार दुनिया के सबसे उन्नत हथियार हैं। लेकिन इसके बावजूद दुनिया भर में इसके प्रभुत्व में गिरावट आ रही है। अमरीकी साम्राज्यवादी एक तरफ तो इस गिरावट को रोकना चाहते हैं और दूसरी तरफ वे देश के भीतर मजदूरों-मेहनतकशों पर हमला बोल रहे हैं। वे दुनिया भर के देशों के शासकों को डरा-धमका रहे हैं। ये दोनों प्रक्रियायें एक साथ चल रही हैं।
    
अमरीका को फिर से महान बनाने की मुहिम में दुनिया भर के देशों के साथ तटकर युद्ध में लगे हुए हैं हालांकि इसमें अमरीकी साम्राज्यवादियों को कोई सफलता नहीं मिल रही है। 
    
दूसरी तरफ, रूस और चीन के नेतृत्व में शंघाई सहकार संगठन, ब्रिक्स और अन्य क्षेत्रीय संगठन एक साथ आ रहे हैं। डालर के प्रभुत्व को कमजोर करने के लिए वे अपनी मुद्राओं में परस्पर लेन-देन कर रहे हैं। वे तरह-तरह के क्षेत्रीय सहयोग कर रहे हैं। आई.एम.एफ. और विश्व बैंक से अलग वे ब्रिक्स देशों का नया बैंक बना रहे हैं। इससे अमरीकी साम्राज्यवादियों को आर्थिक तौर पर धक्का लग रहा है। 
    
ट्रम्प के नेतृत्व में अमरीकी साम्राज्यवादी चाहे जितनी कोशिश कर लें, इनका पराभव शुरू हो गया है। आज ये ताकतवर हैं पर कल इनको दुनिया के अलग-अलग शासकों से चुनौती मिलना लाजिमी है। अब इनके एकल वर्चस्व की प्रक्रिया कमजोर होने की ओर है। अन्य साम्राज्यवादी, विशेष तौर पर चीन इनका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी है। चीन, रूस और अन्य देश इनके वर्चस्व को और कमजोर करेंगे। 
    
इसके बावजूद, यह दुनिया साम्राज्यवादी प्रभुत्व की ही दुनिया होगी। हां, साम्राज्यवादियों की आपसी टकराहट बढ़ने से मजदूर-मेहनतकश अवाम को अपने संघर्षों को आगे बढ़ाने में मदद मिल सकती है। 
    
लेकिन तात्कालिक तौर पर धुर दक्षिणपंथ और फासीवाद का खतरा सबसे बड़ा है। 

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