आम बजट 2015-16: छुट्टे पूंजीवाद को और छूट

    जब पिछले साल अरूण जेटली ने केन्द्र सरकार का बजट पेश किया था तो कहा गया था कि यह भाजपा की नई सरकार की असली सोच को अभिव्यक्त नहीं करता। यह तो संप्रग सरकार का अंतरिम बजट ही है जिसे झाड़-पोंछकर पेश कर दिया गया है। भाजपा की असली सोच का बजट अगले साल ही पेश हो सकता है। <br />
    अब इस साल भाजपा सरकार के वित्तमंत्री ने अपना असली वाला बजट पेश किया है और कहा जा सकता है कि यह भाजपा की सोच के अनुरूप है। वास्तविकता भी यही है। यह इस हद तक है कि विपक्षी दलों ने इसे धनवापसी बजट का नाम दे दिया है यानी इस बजट के जरिये भाजपा द्वारा पूंजीपतियों का वह कर्ज चुकाया गया है जो चुनावों के समय <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">पूंजीपतियों</span> ने मोदी का समर्थन कर भाजपा पर लादा था। यहां तक कि पूंजीपतियों के एक समय दुलारे रहे पी.चिदंबरम ने भी इसे कारपोरेट को खुश करने वाला बजट करार दिया। <br />
    सत्ता में आने के समय से भाजपा देश की आर्थिक नीतियों के मामले में कुछ बातें लगातार करती रही है। इसमें से एक प्रमुख बात यह रही है कि जनता के लिए राहत योजनाएं पैसे की बर्बादी हैं क्योंकि राहत का बड़ा हिस्सा उन लोगों की जेबों में चला जाता है जो इसके हकदार नहीं हैं। इसलिए राहत योजनाओं में आमूल-चूल फेरबदल की आवश्यकता है। <br />
    इसी के साथ यह भी कहा जाता रहा है कि देश में पूंजी निवेश के लिए माहौल नहीं है। पूंजी निवेश पर ढे़र सारे बंधन हैं। इसी के साथ निवेश के लिए अवरचनागत सुविधाओं का अभाव है। <br />
    करों के बोझ का जिक्र भी इस सिलसिले में लगातार होता रहा है। खासकर पूंजीपति वर्ग की ओर से ‘कर आतंकवाद’ की चर्चा होती रही है। <br />
    इस बजट में इन सारे ही मामलों में भाजपा की सोच को व्यवहार में रूपांतरित करने की दिशा में कदम बढ़ाये गये हैं। <br />
    राहत योजनाओं की बात करें तो इस साल बजट में कुल राहत बजट में करीब तीस हजार करोड़ रूपये की कटौती की गयी है। यह कटौती कुल राहत बजट के दस प्रतिशत से ज्यादा है। इस कटौती का वास्तविक आशय तब स्पष्ट होगा जब यह ध्यान में रखा जाये कि महंगाई के कारण मुद्रास्फीति की दर के बराबर वैसे ही कटौती हो जाती है। यानी यदि रुपये में राशि पिछले साल के बराबर भी हो तब भी वास्तव <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">में</span> यह मुद्रास्फीति की दर के बराबर कम हो जायेगी। मनरेगा पर खर्च को ही लें। इस साल मनरेगा पर कुल प्रस्तावित खर्च पिछले साल के बराबर लगभग चौंतीस हजार ही है। पर महंगाई को देखते हुए यह वास्तव में कम हो गया है। मनरेगा का बजट कभी चालीस हजार करोड़ रूपये हुआ करता था। अब हालत यह है कि यह पहले कभी सकल घरेलू उत्पाद के 0.84 प्रतिशत से नीचे गिरकर लगभग 0.2 प्रतिशत तक रह गया है।<br />
    महत्वपूर्ण बात यह है कि यह राहत कटौती मिड-डे मील जैसी योजनाओं में भी की गयी है जिसके लिए स्वयं पूंजीपति वर्ग अपनी पीठ थपथपाता रहा है कि उसने इसके जरिये न केवल बच्चों को विद्यालयों में खींचा है बल्कि उनका स्वास्थ्य भी बेहतर बनाया है। इसी तरह शिक्षा-स्वास्थ्य पर योजनागत व्यय में भारी कटौती की गयी है। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब स्वयं अरूण जेटली ने सबके लिए स्वास्थ्य की बात की थी। पर स्वास्थ्य पर पहले से अत्यन्त निम्न खर्च को और घटा दिया गया है। वित्तमंत्री द्वारा तर्क दिया गया है कि तेरहवें वित्त आयोग द्वारा प्रदेशों को करों का हिस्सा बढ़ाया गया है। इसलिए वे स्वयं स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे चीजों पर ज्यादा खर्च कर सकते हैं।<br />
    राहतों की मद में कटौती के साथ एक और काम किया गया है। सरकार ने जन धन योजना, आधार तथा मोबाइल को एक साथ मिलाकर राहतों के नकदी हस्तांतरण की योजना को चौतरफा लागू करने की घोषणा की है। भारत सरकार राहत के नकद हस्तांतरण की विश्व बैंक योजना को लागू करने की एक लंबे समय से कोशिश करती रही है पर अभी तक यह इसमें कामयाब नहीं हो सकी है। इसकी गुप-चुप कोशिशों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है और वहां सरकार ने हलफनामा दाखिल कर कहा है कि सरकार नकदी हस्तांतरण को अनिवार्य नहीं करेगी। लेकिन हकीकत यही है कि गैस सिलेंडर जैसी चीजों में यह वास्तव मेें अनिवार्य कर दी गयी है। <br />
    अब भाजपा सरकार इसे चौतरफा लागू करने के लिए कदम बढ़ा चुकी है। इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए असल में निशाना राहत राशियां ही हैं। भाजपा इसके खिलाफ है। इसलिए यदि यह योजना लागू कर दी गयी तो राहत पर राशियों को बड़े पैमाने पर कम करना आसान हो जायेगा। <br />
    लेकिन जन राहत योजनाओं पर कटौती से ज्यादा महत्वपूर्ण है पूंजीपति वर्ग को प्रोत्साहित करने वाले प्रावधान। इन्होंने पूंजीपति वर्ग को गद्गद् कर दिया। <br />
    इस दिशा में वित्तमंत्री का सबसे महत्वपूर्ण कदम था सम्पति कर को समाप्त करना तथा कारपोरेट करों में पांच प्रतिशत की कटौती कर इसे तीस से पच्चीस प्रतिशत करना। कारपोरेट करों में कटौती का वित्तमंत्री का तर्क यह था कि तीस प्रतिशत दर होने के बावजूद वास्तव में वसूली तेइस प्रतिशत ही हो पा रही थी। इसीलिए इसे घटाकर पच्चीस प्रतिशत कर दिया गया। यदि वित्त मंत्री का यह तर्क काम करता रहा तो कारपोरेट कर कभी शून्य तक भी जा सकता है क्योंकि कर की दर घटाने के लिए पूंजीपति कर अदायगी और कम कर देंगे। <br />
    भारत में कारपोरेट कर की दर पहले से कम रही है। आय करों की वसूली की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है। ऐसे में भारत के कुल करों में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा कम तथा अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा ज्यादा रहा है। यानी करों का ज्यादा हिस्सा मजदूर-मेहनतकश जनता के जिम्मे जाता रहा है। इस स्थिति को पलटने के बदले अप्रत्यक्ष करों के हिस्से को और ज्यादा बढ़ाया जा रहा है। <br />
    यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि न वसूले गये कर की राशि साल दर साल बढ़ती गयी है और इस साल यह और भी बढ़ गयी है। इस साल यह राशि बढ़कर करीब पौने छः लाख करोड़ रुपये हो गयी है। यह राशि कुल बजट घाटे से ज्यादा है। बजट घाटे को घटाया जा रहा है पर करों की वसूली नहीं की जा रही है। <br />
    करों के मामले में पूंजीपतियों को और भी कई तरह की छूटें दी गयी हैं जिसे पूंजीपति ‘कर आतंकवाद’ कहते रहे हैं। इससे मुक्ति के प्रावधान किये गये हैं। कहा गया है कि अब वोडाफोन जैसी घटना दोबारा नहीं होगी जिसमें कंपनी पर पीछे की तारीख से कर थोपा गया था। वैसे सरकार की योजना समूचे कर ढांचे को ही बदल डालने की है। <br />
    जहां तक अवरचनागत ढांचे के विकास की बात है तो इस दिशा में इस बजट की दिशा वी.वी.वी. माडल की है। इसका एक ही मतलब है सरकारी खर्चे पर पूंजीपतियों को बेहिसाब मुनाफा। चौतरफा विरोध के बावजूद भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन का यही मकसद है। इसके जरिये जमीन इसके छोटे मालिकों से छीनकर पूंजीपतियों को सौंप दी जायेगी। <br />
    सरकार का इस बजट में स्पष्ट इरादा देशी-विदेशी पूंजी के फर्क को मिटाना है। अवरचनागत क्षेत्रों में विदेशी पूंजी निवेश को इजाजत तो दी गयी है साथ ही प्रत्यक्ष पूंजी निवेश और पोर्टफोलियो निवेश के फर्क को इस बजट में समाप्त कर दिया गया है। <br />
    अभी तक प्रत्यक्ष पूंजी निवेश और पोर्टफोलियो निवेश में फर्क किया जाता था। विदेशी पूंजी के देश में निवेश के इन क्षेत्रों में अलग-अलग नियम थे। इसके जरिये सट्टेबाज पूंजी पर कुछ अंकुश था। लेकिन अब यह अंकुश खत्म कर दिया गया है। यह देश में विदेशी <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">पूंजी</span> के आवागमन को लगभग मुक्त कर देता है। देशभक्ति के स्वयंभू ठेकेदार का विदेशी पूंजी के सामने यह समर्पण खासा रोचक है। <br />
    विदेशी पूंजी को इस छूट के जरिये मोदी सरकार अपने ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को सफल बनाना चाहती है। उसे लगता है कि उसकी इन छूटों से विदेशी पूंजी चीन की ओर से अपना मुंह मोड़कर भारत की ओर कर लेगी। इस तरह चीन को पछाड़ने का भारत का सपना पूरा हो जायेगा। <br />
    कुल मिलाकर मोदी सरकार के इस बजट में पूंजीपति वर्ग की सभी इच्छाओं को पूरा करने का प्रयास किया गया है इसके बावजूद कि इसमें कोई ‘बिग टिकट’ सुधार नहीं है यानी पूंजीपतियों की भाषा में कोई बड़े सुधार नहीं किये गये हैं।<br />
    इस बजट का क्या प्रभाव पड़ेगा? भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर क्या नई ऊंचाइयों को प्राप्त करेगी। <br />
    इस मामले में यह गौरतलब है कि मोदी सरकार पहले से ही यह कह रही है कि वह अगले एक-दो साल में दस प्रतिशत की विकास दर तक पहुंच जायेगी। वह दुनिया की सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन जायेगी। इस साल ही वह आठ-साढे़ आठ प्रतिशत विकास की बात कर रही है। <br />
    यदि देश-दुनिया के वास्तविक हालात को देखें तो इस उम्मीद का कोई ठोस आधार नहीं दिखता। साम्राज्यवादियों और उनकी संस्थाओं को विकास दरें लगातार घटानी पड़ रही <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">हैं</span>। वैश्विक आयात-निर्यात भी बेहद नीचा है। दुनिया भर के वित्तीय संस्थान संकटग्रस्त हैं और पूंजी को एकमात्र रास्ता सट्टेबाजी में नजर आ रहा है। इस बाहरी हालत में देश के विकास को क्या गति मिल सकती है। यदि मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ अभियान सफल भी हो जाये तो इस अभियान के उत्पाद को खरीदेगा कौन?<br />
    देश के अंदरूनी हालत की बात करें तो औद्योगिक क्षेत्र लगातार बेहद नीची विकास दर का शिकार है। इस साल कृषि क्षेत्र की भी हालत खस्ता रहेगी। ऐसे में कुल विकास दर आठ-साढ़े आठ प्रतिशत तक कैसे पहुंचेगी यह रहस्य है? यह रहस्य इतना गहरा है कि भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियम को भी इसका थाह-पता नहीं लग रहा है। <br />
    राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग ने सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के जो आंकड़े जारी किये हैं उनका असर बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकता। इस तरह की चीज, यदि बाजीगरी न भी हो तो भी, केवल एक बार ही अपना असर दिखा सकती है। <br />
    इसलिए सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के हिसाब से भी देखें तो मोदी-जेटली का हसीन सपना पूरा होगा इसकी उम्मीद कम ही है। ज्यादा संभावना यही है कि सारी दुनिया के कदमों में कदम मिलाते हुए भारत की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर भी नीचे की ओर प्रस्थान कर जाये।<br />
    रही बात ‘मेक इन इंडिया’ के लिए विदेशी <span style="font-size: 13px; line-height: 20.7999992370605px;">पूंजी</span> निवेश की तो पिछले चार दशकों का सट्टेबाज वित्तीय पूंजी का रिकार्ड यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह देश की अर्थव्यवस्था के हित में कतई नहीं होगा। पिछलें सालों में यह सट्टेबाज पूंजी पहले ही भारत के शेयर बाजार में हलचल मचाती रही है। यदि सेनसेक्स तीस हजार के पार जा रहा है तो वह इसी सट्टेबाज पूंजी की कृपा से ही। अब जबकि प्रत्यक्ष पूंजी निवेश और पोर्टफोलियो निवेश के बीच का फर्क समाप्त कर दिया गया है तो इस सट्टेबाज पूंजी की गति और तेज हो जायेगी। शेयर बाजार और कुलांचे भरेगा लेकिन वह उतनी ही तेजी से नीचे भी जायेगा। यानी कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था में हलचल बढ़ेगी। छोटी सम्पति वालों की जेब पर और ज्यादा तेजी से हाथ साफ होगा। <br />
    रही बात मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता की तो पूंजीपतियों ने मोदी को दिल्ली की गद्दी पर इसलिए तो नहीं बैठाया था कि वे जनता का भला करें। मोदी सरकार लगातार यह कह रही है कि उसका सारा जोर विकास पर है क्योंकि इससे ही रोजगार बढ़ेगा और इससे ही भूखमरी कम होगी। पर क्या वास्तव में ऐसा होगा?<br />
    2003-04 से बाद का सारा रिकार्ड यह दिखाता है कि सकल घरेलू उत्पाद में 8-9 प्रतिशत की वृद्धि के बावजूद रोजगार में बामुश्किल प्रतिवर्ष एक प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि श्रमशक्ति में वृद्धि की रफ्तार इसकी दो गुनी थी। इसे ही रोजगारविहीन वृद्धि का नाम दिया गया है। रही भुखमरी की बात तो सारे ही गंभीर विश्लेषक इस बात को बार-बार रेखांकित करते रहे हैं कि सारी तेज वृद्धि के बावजूद या तो देश में भुखमरी कम नहीं हुई है या फिर वह बढ़ी ही है। छोटी सम्पति वालों का सम्पतिहरण इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कारक है। <br />
    मोदी-जेटली का यह बजट इन सारी ही प्रवृत्तियों को बढ़ायेगा। और ऐसा होना ही चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो पूंजीपतियों की दौलत में इजाफा कैसे होगा? और यदि पूंजीपतियों की दौलत में तेजी  से इजाफा नहीं होगा तो वे मोदी-जेटली से वैसे ही नाराज हो जायेंगे जैसे सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह से नाराज हुए थे। मोदी-जेटली भला यह नौबत क्यों आने देना चाहेंगे? इनके पास अभी तीन बजट बाकी हैं और वे इनमें पूंजीपतियों पर और ज्यादा लुटाकर उन्हें खुश करने का प्रयास करेंगे। 

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