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90 के दशक के शुरू से ही केन्द्र में जो भी सरकारें रहीं हैं वे बजट घाटा कम करने एवं वित्तीय मजबूती प्राप्त करने को अपना लक्ष्य घोषित करती रही हैं। कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकारों ने भी बजट घाटा कम करने और ‘वित्तीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन कानून 2003’ को अमल में लाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बार-बार दुहरायी।<br />
वित्त मंत्रालय एवं पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का बार-बार यह तर्क पेश होता रहा है कि उच्च बजट घाटा सरकारी कर्ज को बेतहाशा बढ़ायेगा और देश से पूंजी के पलायन को भी तेज कर देगा। यह तर्क देकर कठोर वित्तीय निर्णय लेने और सरकारी खर्च कम करने पर जोर देते रहे हैं लेकिन यह बात नहीं करते कि अर्थव्यवस्था के ठहराव या मंदी से निकालने में सरकार द्वारा व्यय वृद्धि का भी कोई सम्बन्ध है। जब अर्थव्यवस्था की विकास दर धीमी पड़ रही हो तो सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र में व्यय के लिए फंड को घटाना एक गलत समझदारी को दर्शाता है।<br />
अर्थव्यवस्था के गिरते विकास दर के समय सरकार द्वारा खर्च को कम करना एवं ‘आस्टेरिटी मीजर’ के नाम पर पूंजीपति वर्ग को तमाम छूटें देना एवं मेहनतकशों पर आर्थिक हमला, अर्थव्यवस्था के गिरते विकास दर के नकारात्मक पहलुओं को कई गुना बढ़ा देता है।<br />
जब दो दशक से ज्यादा समय से केन्द्र सरकारें बजट घाटा तेजी से घटाने की घोषणा कर रही हों और आम मेहनतकश जनता पर एक से बढ़कर एक आर्थिक हमले कर रही हों फिर भी बजट घाटा कम न हो रहा हो तो यह एक तीखा सवाल पैदा होता है कि क्या वास्तव में सरकारें बजट घाटा कम करना चाहती हैं? या कुछ और उद्देश्य है। इस पर विचार करना जरूरी है।<br />
बजट घाटा, राजस्व घाटा और प्राथमिक घाटा कम करने के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2003-04 से जो भी कदम उठाये थे उसके जरिये ये तीनों तरह के घाटे वर्ष 2007-08 तक कम हुए थे। लेकिन वर्ष 2008-09 में वैश्विक आर्थिक संकट के समय पूंजीपति वर्ग को जो छूटें संकट से बचाने (आस्टिरिटी मीजर) के नाम पर दिया गया उससे वित्तीय घाटा 2011-12 में बहुत बढ़ गया और सकल घरेलू उत्पाद का 5.9 प्रतिशत तक पहुंच गया जबकि राजस्व घाटा नीचे आया। फिर भी बजट में अनुमानित लक्ष्य से काफी ज्यादा था। केन्द्र सरकार अपने लक्ष्य को पुनः दुहरा रही है कि वर्ष 2016-17 तक बजट घाटा कम कर सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत से नीचे लाया जायेगा। जबकि 2003-04 में तय किया गया था कि वर्ष 2007-08 में बजट घाटा जीडीपी का 3 प्रतिशत से नीचे लाया जायेगा और अब पूंजीवादी वैश्विक संकट के नाम पर सरकार ने इसे अब आगे बढ़ा दिया है।<br />
केन्द्र सरकार ने वर्ष 2012-13 के लिए 14.9 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया था और घोषणा की थी कि 2011-12 में बजट घाटा जीडीपी का 5.9 प्रतिशत था। लेकिन इस वर्ष बजट घाटा जीडीपी का 5.1 प्रतिशत रहेगा और विकास दर 7.5 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया था।<br />
सरकार ने पहले छमाही में समीक्षा पेश कर बताया है कि विकास दर जीडीपी का 5.4 प्रतिशत रहा है। 2012-13 बजट घाटा को 5.1 प्रतिशत से संशोधित कर 5.3 प्रतिशत और विकास दर 5.5 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया है। लेकिन बजट घाटा जीडीपी के 5.3 प्रतिशत से काफी ज्यादा रहने की सम्भावना है।<br />
महालेखा नियंत्रक(कंट्रोलर जनरल आफ एकाउन्ट्स) ने अप्रैल 2012 से नवम्बर 2012 तक 8 माह का जो आंकड़ा पेश किया है, उसके अनुसार दो-तिहाई साल अर्थात् 8 माह में अनुमानित तय बजट घाटा के लक्ष्य का 80.4 प्रतिशत अर्थात् 4/5 भाग से ज्यादा हो चुका है।<br />
बजट में राजस्व घाटा का जो लक्ष्य रखा गया था, 8 माह में उसका 91.2 प्रतिशत पहुंच चुका है। बजट में जो प्राथमिक घाटा(कर्ज पर ब्याज छोड़कर राजस्व पर अधिक व्यय) का लक्ष्य रखा गया था उसका 8 माह में 118.7 प्रतिशत हो चुका था। ये सभी कारक (फैक्टर) बजट घाटे को और बढ़ायेंगे ही।<br />
पिछले वर्ष विभिन्न घाटों की कमोवेश यही स्थिति थी। लेकिन उससे एक वर्ष और पहले अर्थात् 2010-11 में प्रथम 8 माह की स्थिति बिल्कुल अलग थी। बजट घाटा तय लक्ष्य का 48.9 प्रतिशत, राजस्व घाटा 50.7 प्रतिशत एवं प्राथमिक घाटा 39.2 प्रतिशत था।<br />
अतः इस वर्ष स्थिति पुराने वर्ष से अलग रहने की सम्भावना है। 2011-12 में बजट घाटा जीडीपी का 5.9 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2010-11 में 4.6 प्रतिशत था। सरकार द्वारा वर्ष 2012-13 में अनुमानित बजट घाटा जीडीपी के 5.3 प्रतिशत से काफी ज्यादा रहने की सम्भावना है।<br />
बजट घाटे के बढ़ने पर सरकार बार-बार आम जनता पर खर्च और सब्सिडी समाप्त करने का राग अलाप रही है। अलग-अलग समय पर डीजल, पेट्रोल, रसोई गैस एवं रासायनिक खाद पर सब्सिडी समाप्त भी कर रही है। क्या आम जनता एवं अन्य सरकारी योजनाओं पर खर्च बहुत बढ़ गया है? जिससे बजट घाटा बहुत बढ़ रहा है, इसकी भी पड़ताल की जाए।<br />
वर्ष 2012-13 के बजट में वर्ष भर में खर्च का जो लक्ष्य रखा गया था प्रथम 8 माह में केवल 58.2 प्रतिशत खर्च किया गया है। जबकि वर्ष 2011-12 में प्रथम 8 माह में 60.5 प्रतिशत और 2010-11 में 62.3 प्रतिशत खर्च किया गया था। अतः दो-तिहाई वर्ष में पूरे खर्च के लक्ष्य के दो-तिहाई से काफी कम खर्च किया गया है।<br />
तो फिर सरकार द्वारा सकल प्राप्ति (टोटल रिसेप्ट) में कमी होगी। प्रथम 8 माह में वर्ष 2012-13 में प्राप्ति के निर्धारित लक्ष्य का केवल 46.5 प्रतिशत एवं 2011-12 में 48.2 प्रतिशत प्राप्त हुआ। लेकिन वर्ष 2010-11 में लक्ष्य का प्रथम 8 माह में 69.3 प्रतिशत प्राप्त हुआ था।<br />
अतः बढ़ते बजट घाटे के पीछे सकल प्राप्ति को इकट्ठा करने की वित्तीय असफलता के पीछे सरकार की अयोग्यता है।<br />
सरकार को गैर ऋण प्राप्तियां(रिसेप्ट) दो तरह की होती हैं। पहला- राजस्व प्राप्ति(टैक्स और गैर टैक्स) और दूसरा- गैर ऋण पूंजी प्राप्ति(नान डेब्ट केपिटल रिसेप्ट)।<br />
वर्ष 2012-13 और वर्ष 2011-12 में राजस्व प्राप्ति बजट वर्ष के 8 माह में क्रमशः लक्ष्य का 47.6 प्रतिशत एवं 49.7 प्रतिशत रहा। जबकि 2010-11 के 8 माह में लक्ष्य का 69.9 प्रतिशत राजस्व प्राप्ति था। गैर ऋण पूंजी प्राप्ति जिसके अंतर्गत स्पेक्ट्रम की बिक्री, सरकारी संस्थानों के विनिवेश अर्थात् निजीकरण द्वारा पूंजी प्राप्ति 8 माह में वर्ष 2012-13 और वर्ष 2011-12 में लक्ष्य का बहुत कम क्रमशः 21.4 प्रतिशत व 26.4 प्रतिशत रहा। जबकि वर्ष 2010-11 में प्रथम माह 8 माह में गैर ऋण पूंजी प्राप्ति लक्ष्य का 60.8 प्रतिशत था।<br />
ये तथ्य स्पष्ट करते हैं कि सरकार की बजट लक्ष्य प्राप्ति की असफलता एवं अयोग्यता के कारण बजट घाटा बढ़ रहा है न कि बहुत ज्यादा खर्च जैसे सब्सिडी या तेल घाटा पूरा करने के कारण।<br />
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि सरकार की प्राथमिकता राजस्व में सुधार कर बजट घाटा कम करने में नहीं है। बल्कि निजी हाथों अर्थात् पूंजीपतियों के हाथों में सरकारी संस्थानों को औने-पौने दामों में बेचने में है। इसीलिए सरकार और उनके अर्थशास्त्री बार-बार सरकारी संस्थानों के विनिवेश पर जोर दे रहे हैं।<br />
कई सालों में चंद पूंजीपति वर्ग को आयकर में 80 हजार करोड़, सीमाकर(कस्टम ड्यूटी) में 2 लाख 49 हजार करोड़ और उत्पाद कर में 1 लाख 70 हजार करोड़ अर्थात् प्रतिवर्ष 5 लाख करोड़ रुपये की भारी छूट सरकार जारी रखे हुए है। इसे राजस्व या खर्चे के रूप में सरकार नहीं दिखाती है। हर साल सरकार के हाथ से 5 लाख करोड़ रुपये का राजस्व चला जा रहा है। इसकी चिन्ता सरकार को नहीं है। लेकिन सब्सिडी पर करीब 1 लाख 4 हजार करोड़ रुपये जो करोड़ों आम जनता को थोड़ी राहत देता है वह सरकार को नाजायज लगता है और सरकार बजट घाटा कम करने के नाम पर इसे खतम करने पर तुली हुई है।