दक्षिण अफ्रीका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों के नरसंहार के खिलाफ मुकदमा दायर किया गया था। लम्बी सुनवाई के बाद अंततः 26 जनवरी को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में इस पर एक ऐसा अंतरिम फैसला सुनाया जिसे दोनों पक्ष अपने-अपने हित में घोषित कर सकें। इस तरह से इस फैसले ने खुद अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की असलियत उजागर कर दी।
इस फैसले में कहा गया कि इजरायल द्वारा किये गये कुछ कृत्य 1948 के नरसंहार कंवेंशन का उल्लंघन करते हैं इसलिए नरसंहार के दायरे में आते हैं। पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने नागरिक आबादी के खिलाफ इजरायल के महीनों से चल रहे हमले को रोकने का आदेश देने के बजाय महज यह आदेश दिया कि इजरायल अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत अपने दायित्वों का पालन करे और एक महीने के भीतर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
इस निर्णय के ‘नरसंहार वाले कृत्यों की स्वीकारोक्ति’ को फिलिस्तीन समर्थक देश अपने पक्ष में बता रहे हैं तो युद्धविराम का आह्वान करने से इंकार को इजरायल समर्थक इजरायल के ‘खुद के रक्षा के अधिकार’ का समर्थन बता रहे हैं।
यह वही अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय है जिसने रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के कुछ हफ्तों के भीतर ही रूस को 24 फरवरी को शुरू किये गये सैन्य अभियान को निलंबित करने का आदेश दिया था। यह अलग बात है कि तब न तो रूस ने इस आदेश की परवाह की थी और न ही इजरायल इस आदेश को कोई भाव देगा। पर फिर भी इन दो युद्धों पर अलग-अलग रुख यह साबित कर देता है कि खुद अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय पश्चिमी साम्राज्यवादियों के पक्ष में झुकी संस्था है कि उसकी न्याय की परिभाषा दरअसल पश्चिमी साम्राज्यवादियों के हितों से तय होती है।
दरअसल अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय इजरायल द्वारा जानबूझकर फिलिस्तीनी नागरिक आबादी अस्पतालों-स्कूलों पर बमबारी, राहत सामग्री को आने से रोकने आदि को 1948 के प्रावधान के तहत नरसंहार मानता है। इस रूप में वह यह सुनिश्चित करने का जिम्मा लेता रहा है कि जिस आबादी पर हमला बोला जा रहा है उसके कुछ मानवीय अधिकार सुरक्षित रहें। यानी युद्ध में इजरायल द्वारा बोला गया हमला सही है या गलत, उसके द्वारा सालों से गाजा में किया जा रहा दमन सही है या गलत, यह तय करना अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का काम नहीं था। इसीलिए उसने महज फिलिस्तिनियों के कुछ मानवीय अधिकारों का पालन करते हुए हमला करने की इजरायल को छूट दे दी।
इस निर्णय में अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति हासिल करने के लिए हवाला दिया कि बीते 100 दिनों में गाजापट्टी पर निरंतर बमबारी से बड़ी संख्या में आबादी का विस्थापन हुआ। लोग रातों-रात उन स्थानों को पलायन को मजबूर हुए जो पहले जितनी ही असुरक्षित हैं। 1948 के बाद यह फिलिस्तीनी लोगों का सबसे बड़ा विस्थापन है।
इसी तरह निर्णय ने इजरायल के एक मंत्री के कथन को भी उद््धृत किया जिसमें उसने कहा कि गाजा में सभी नागरिक आबादी को तुरंत गाजा छोड़ने का आदेश दिया गया है- जब तक वे दुनिया नहीं छोड़़ देंगे, उन्हें पानी की एक बूंद या एक भी बैटरी नहीं मिलेगी।
इस तरह की बातों के जरिये अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय दुनिया भर की लाखों-लाख आबादी (जो इजरायली नरसंहार के खिलाफ सड़कों पर थी) के सामने अपनी साख को बचाना चाहता रहा है। उन्हें यकीन दिलाना चाहता रहा है कि वह वास्तव में न्याय की संस्था है।
इस अंतरिम निर्णय पर इजरायली सरकार ने जो प्रतिक्रिया दी वो यह दिखाने को पर्याप्त है कि वे इस अदालत को जरा भी भाव नहीं देते। इजरायल के एक मंत्री ने युद्ध विराम का आह्वान न करने के निर्णय का स्वागत किया वहीं इजरायल द्वारा नरसंहार के कार्यों के विवरण को पाखण्ड बताया। खुद नेतन्याहू निर्णय से पहले ही कह चुके थे कि न्यायालय जो भी आदेश दे उनका सैन्य अभियान जारी रहेगा।
इजरायल ने इस मुकदमे की कितनी चिंता की वह इससे भी जाहिर है कि मुकदमे की कार्यवाही के दौरान वह गाजापट्टी के अस्पतालों-घरों पर बम बरसाता रहा। जानबूझकर फिलिस्तीनी भीड़ पर हमला बोलता रहा।
इस मुकदमे की आगे कार्यवाही जारी रहेगी और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ऐसे कुछ और दिखावटी निर्णय सुना सकता है। इन दिखावटी निर्णयों से वह हर बार यही जाहिर करेगा कि वह न्याय नहीं अन्याय के पक्ष में खड़ा है। कि वह उत्पीड़ित फिलिस्तीनी अवाम नहीं हत्यारे इजरायल-अमेरिका के साथ खड़ा है।
इजरायली नरसंहार की पुष्टि पर उसे रोकने के आदेश से इनकार
राष्ट्रीय
आलेख
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