मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति के बैनर तले हल्द्वानी में मूल निवास स्वाभिमान महारैली निकाली गई। इसमें मुख्यतः कुमाऊं से कई संगठनों और लोगों ने हिस्सा लिया। इससे पूर्व देहरादून में भी ऐसी रैली निकल चुकी है।
उत्तराखंड राज्य उत्तर प्रदेश से अलग होकर सन् 2000 में बना। उत्तराखंड राज्य की लड़ाई यहां के निवासियों सभी जाति-धर्म के लोगों ने मिलकर लड़ी। उत्तराखंड के बड़े भू-भाग में पर्वतीय इलाके आते हैं। ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार तराई के जिले भी उत्तराखंड राज्य गठन के समय राज्य के हिस्से में आए। इसी तराई के इलाके में ज्यादातर मिली-जुली (आजादी के समय यहीं के निवासी पर्वतीय, थारू, बुक्सा और तत्कालीन राज्य उत्तर प्रदेश के रहने वाले) आबादी रहती है। जिसमें आजादी के बाद बंगाली, सिख समुदाय आदि लोग जमीन देकर बसाए गए।
इस आंदोलन की मुख्य मांगें हैं- मूल निवास की कट आफ डेट 1950 लागू की जाए, प्रदेश में ठोस भू-कानून लागू हो, शहरी क्षेत्र में 250 मीटर भूमि खरीदने की सीमा लागू हो, जमीन उसी को दी जाय जो 25 साल से उत्तराखंड में सेवाएं दे रहा हो या रह रहा हो, ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगे, गैर कृषक द्वारा कृषि भूमि खरीदने पर रोक लगे, पर्वतीय क्षेत्र में गैर पर्वतीय मूल के निवासियों के भूमि खरीदने पर तत्काल रोक लगे, राज्य गठन के बाद से वर्तमान तिथि तक सरकार की ओर से विभिन्न व्यक्तियों, संस्थानों, कंपनियों आदि को दान या लीज पर दी गई भूमि का ब्योरा सार्वजनिक किया जाए, प्रदेश में विशेषकर पर्वतीय क्षेत्र में लगने वाले उद्यमों, परियोजनाओं में भूमि अधिग्रहण या खरीदने की अनिवार्यता है या भविष्य में होगी, उन सभी में स्थानीय निवासी का 25 प्रतिशत और जिले के मूल निवासी का 25 प्रतिशत हिस्सा सुनिश्चित किया जाए, ऐसे सभी उद्यमों में 80 प्रतिशत रोजगार स्थानीय व्यक्ति को दिया जाना सुनिश्चित किया जाए।
दरअसल उत्तराखंड राज्य के आंदोलन के समय आंदोलन की मुख्य मांगों में एक मांग रोजगार की रही। स्थानीय निवासियों को कृषि की समस्या से मुक्ति मिलेगी। यहां के संसाधनों और रोजगार के क्षेत्र में यहां के लोगों को सुविधा मिलेगी। स्कूल, अस्पताल आदि बुनियादी सुविधाएं लोगों को मिल सकेंगी।
राज्य गठन के इतने वर्षों के बाद कुछ राजनेताओं, स्थानीय पूंजीपतियों आदि ने यहां के संसाधनों पर अपना कब्जा जमा लिया। अपने चहेतों को उनमें भरने लगे। आमजन को यह सुविधा नहीं मिली। बिजली परियोजना, बांध बनाने से भी समस्या खड़ी हुई। इस प्रकार के पूंजीवादी विकास से पर्वतीय इलाकों के अंदर भूस्खलन, आपदा आदि अपना विकराल रूप समय-समय पर दिखाती रही है। यह स्थानीय निवासियों के जीवन को संकट में डालता रहा। यह भी लोगों के पलायन का कारण बना। रोजगार, जीवन की अन्य जरूरतों के लिए भी पहाड़ों से पलायन होता रहा है। जिनके पास बाहर रहने या अन्य सुविधाएं नहीं थीं वह पहाड़ों में ही रहने लगे।
नए राज्य के कांग्रेस पार्टी से पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने राज्य के बाहरी लोगों की भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर निर्धारित की थी। बाद में भुवन चंद्र खंडूरी ने इसकी सीमा घटकर 250 वर्ग मीटर कर दी। बाद में भाजपा के त्रिवेंद्र सिंह रावत और पुष्कर सिंह धामी ने पूरी सीमा ही खत्म कर दी। सरकार चाहे बीजेपी की रही हो या कांग्रेस की रही हो, दोनों ही पार्टियों की सरकारों ने राज्य के विकास के नाम पर पूंजीपतियों को राज्य के संसाधन, जमीनें इत्यादि लुटवाने का काम किया। इसके पीछे उद्योगों को बढ़ावा देना, पहाड़ों में रोजगार को बढ़ावा देने का हवाला दिया गया। स्वयं उत्तराखंड सरकार उत्तराखंड को ‘टूरिस्ट प्लेस’ के रूप में स्थापित करना चाहती है। जहां पर बाहर से लोग आकर दो-चार दिन अपनी छुट्टी मनायें, मौज-मस्ती करें। उत्तराखंड के तमाम मुख्यमंत्री हिमालय की सुंदरता की वजह से फ़िल्म शूटिंग आदि कामों के लिए लोगों को बुलाते रहे हैं।
सरकार की भूमि खरीद पर छूट, टूरिस्ट प्लेस की नीति ने पूंजीपतियों को उद्योग, व्यापार, मुनाफा आदि के लिए लालायित किया। पर्वतीय इलाके की कृषि भूमि भी इस काम में और लोगों के पलायन से कम लोगों के खेती करने से चौपट हो गई। अभाव में आम लोगों ने अपनी जमीनों को पूंजीपतियों को बेचना शुरू कर दिया। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में होटल, रिजार्ट, भोजनालय आदि बड़े पैमाने पर खुलने लगे। पूंजीपतियों के पर्वतीय इलाकों में बड़ी मात्रा में भूमि और पहाड़ खरीदने से वहां के स्थानीय लोगों के एक-दूसरी जगह आने-जाने के रास्ते, पानी के रास्ते, जानवरों के चारावाह, जलावन आदि बंद हो जा रहे हैं। यह भी स्थानीय लोगों में आक्रोश का कारण है। पूंजीवादी संस्थाओं के खुलने से इनमें काम करने वाले मजदूरों की आवाजाही भी अन्य राज्यों से पर्वतीय इलाकों में होती रही।
राज्य गठन के इन 23-24 वर्षों में यहां के मुख्यमंत्री और सरकारों में मुख्य लोग पर्वतीय इलाके के रहने वाले ही बने। भाजपा और कांग्रेस का मुख्य शासन बना रहा। इन पूंजीवादी राजनीतिक दलों का इन नीतियों से कोई विरोध नहीं रहा है। यहां के संसाधनों पर पूंजीपतियों-राजनीतिक पार्टियों के राजनेताओं, रिश्तेदारों, चहेतों ने कब्जा जमा लिया। यहां के स्थानीय पूंजीपति भी संसाधनों की लूट से फले-फूले। बड़े पूंजीपतियों ने भी निवेश कर मुनाफा पीटना शुरू किया। यही राजनेता और स्थानीय पूंजीपति, देश के बड़े पूंजीपति असल में यहां के स्थानीय निवासियों की समस्याओं के जिम्मेदार बन जाते हैं। मजदूर-मेहनतकश लोगों का एक इलाके से दूसरे इलाके में जाना लगा रहता है। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके के लोग दिल्ली, चंडीगढ़, उत्तर प्रदेश और देश-विदेश के भी स्थाई निवासी बन गए हैं। इसी तरह कुछ बाहर से काम करने वाली आबादी भी यहां आकर रहने लगी। कामगार आबादी जहां जाएगी वहां रहना चाहती है। यह एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। भू-कानून की सीमा पूंजीपतियों पर पहाड़ और वहां के संसाधनों के दोहन के रूप में बन्द करने के लिए लगानी चाहिए।
मूल निवास 1950 की मांग उत्तराखंड के लोगों में बंटवारा कर देती है जो तराई बनाम पहाड़ के रूप में भी मसले को खड़ा करती है। साथ ही भूमिहीन लोग भी यहां पर रहते हैं। एससी, एसटी आबादी के कई लोगों के पास जमीन नहीं है। जो आजादी के समय से यहां पर रह रहे हैं। पर्वतीय इलाकों में ऐसे लोग भी हैं जिनके पास जमीन तो है परन्तु उन्होंने जमीन के कागज नाम पर नहीं करवाए या किसी ने सालों से अपने पास की जमीन अपने नाम नहीं करवाई। उनका क्या होगा इन सवालों पर कोई चर्चा नहीं है।
मजदूरों-मेहनतकशों का नजरिया सबको सुरक्षित और स्थाई रोजगार का होना चाहिए। जो जहां रह रहा है उन्हें वहां रहने का हक मिलना चाहिए। उन्हें अपने संघर्ष को पूंजीपतियों, राजनेताओं के खिलाफ लक्षित करना चाहिए। उत्तराखंड ही नहीं देश में पूंजीपति, राजनेताओं आदि का गठजोड़ वहां की जनता के खिलाफ खड़ा है। हमें अपने संघर्ष की दिशा देश में पूंजीपतियों के खिलाफ लक्षित करनी चाहिए। -महेश, हल्द्वानी
भू कानून और मूल निवास को लेकर फिर सुगबुगाहट
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ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है।
आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं?
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।