कहावत है कि गुलामी की चुपड़ी रोटी से आजादी की घास ज्यादा बेहतर होती है। लगता है कि हिन्दू फासीवादियों ने इस कहावत को दिल से जिया है और वे अब आजादी के पचहत्तर साल बाद देश की जनता को घास खिलाने में लग गये हैं, वह भी जहरीली घास।
भारतीय दंड संहिता के जिन कानूनों को औपनिवेशिक गुलामी का प्रतीक घोषित करते हुए अभी रद्द किया गया उनमें एक राजद्रोह से संबंधित था। अब इसका स्थान देशद्रोह की धारा ने ले लिया है। यानी जिन अपराधों को अंग्रेज राजद्रोह की श्रेणी में रखते थे, उन्हें अब देशद्रोह की श्रेणी में डाल दिया गया है। इसके लिए सजा भी बढ़ा दी गयी है।
भारत पर शासन करने वाले अंग्रेज विदेशी थे। इसीलिए वे देशद्रोह की बात नहीं कर सकते थे। वे अपनी सत्ता के खिलाफ लड़ने वाले लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा ही चला सकते थे। पर हिन्दू फासीवादी तो खांटी देशभक्त हैं। इनके लिए इनका विरोध देश का विरोध है। इसीलिए ये राजद्रोह के बदले देशद्रोह की बात करते हैं। कोई यदि इनकी सत्ता का विरोध करेगा तो वह राजद्रोह नहीं बल्कि देशद्रोह का दोषी होगा।
हिन्दू फासीवादियों का कोई समर्थक कह सकता है कि ऐसा नहीं है। नया देशद्रोह का कानून असल में सरकार के विरोध को मान्यता देता है पर वह देश के विरोध को स्वीकार नहीं करता। कोई चाहे तो सरकार का चाहे जितना विरोध कर ले। पर वह देश का विरोध न करे। इसे बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। वह बतायेगा कि देश के गृहमंत्री ने संसद में ऐसा ही कहा था।
यहां पेंच यह है कि देशद्रोह को परिभाषित कौन करेगा? कानून में जो परिभाषा है उससे अभिव्यक्ति की हर आजादी, सरकार की हर आलोचना देशद्रोह के दायरे में आ जाती है। यानी सरकार तय करेगी कि क्या देशद्रोह है और क्या नहीं। सरकार का समर्थन देशभक्ति होगा और सरकार का विरोध देशद्रोह।
अंग्रेजी हुकूमत ने अपने विरोधियों से निपटने के लिए पुराने राजद्रोह के कानून को भी इतना व्यापक बना रखा था कि किसी भी व्यक्ति को राजद्रोह के आरोप में जेल में बंद किया जा सकता था। आजादी के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने यह कह कर इसे सीमित किया कि केवल संवैधानिक तौर पर स्थापित सत्ता को उखाड़ फेंकने का खुला आह्वान ही राजद्रोह की श्रेणी में आयेगा। सरकार बदलने, व्यवस्था बदलने का यहां तक कि संविधान बदलने की बात इसके दायरे में नहीं आयेगी। अब यह अलग बात है कि इस फैसले के बाद भी लोग इससे बहुत कम के आरोप में जेल जाते रहे।
राजद्रोह को चाहे जितना व्यापक या संकीर्ण तौर पर परिभाषित किया जाये पर यह स्पष्ट है कि हर राज्य सत्ता को अपनी रक्षा करने का अधिकार है और आधुनिक काल में हर संविधान में इसका प्रावधान है। यह तार्किक भी है। यदि कोई राज्य सत्ता स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती तो किसकी करेगी? किसी भी राज्य सत्ता के लिए सबसे बड़ा अपराध भी यही होगा- उसको नष्ट करने का प्रयास। इस या उस नाम से सारे ही संविधानों में इसके प्रावधान हैं भारतीय संविधान की धारा-352 इसी से संबंधित है।
लेकिन देशद्रोह का मतलब क्या होगा? इसे कैसे परिभाषित किया जा सकता है? देश के हित की कई व्याख्याएं हो सकती हैं। ऐसे में कौन सी व्याख्या देश हित होगी और कौन सी देशद्रोह? क्या सत्ताधारियों की परिभाषा ही देशहित होगी? यदि सत्ताधारी पड़ोसी देश से युद्ध करना चाहते हैं तो क्या इसका विरोध देशद्रोह होगा? यदि देश में कोई आतताई सत्ता हो तो क्या इसके खिलाफ विद्रोह में बाहरी मदद देशद्रोह होगा? क्रांति यानी बलपूर्वक सत्ता को उखाड़ फेंकना राजद्रोह तो होता है, पर क्या यह देशद्रोह भी होगा?
उपरोक्त से स्पष्ट है कि देशद्रोह एकदम अस्पष्ट चीज है जिसकी व्यक्ति या सत्ता के हिसाब से अनेक व्याख्याएं हो सकती हैं। एक की नजर में जो देशभक्ति होगी, दूसरे की नजर में वह देशद्रोह हो सकता है। ऐसे में कानून में देशद्रोह का प्रावधान सत्ताधारियों के हाथ में लोगों को प्रताड़ित करने का असीमित अधिकार दे देता है। यह राजद्रोह के प्रावधान से बहुत-बहुत ज्यादा व्यापक है। और संघियों की कृपा से इसके लिए सजा भी ज्यादा है।
आजादी की यह वह जहरीली घास है जिसे हिन्दू फासीवादी खिलाना चाहते हैं और साथ ही यह भी चाहते हैं कि देश की जनता इसके लिए उन्हें धन्यवाद दे। फैसले के हिन्दू फासीवादी संस्करण का नये भारत में स्वागत है।
आजादी की जहरीली घास
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
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