ऐना सेबेस्टाइन पैराईल : काम के दबाव में एक महिला कर्मचारी की मौत

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26 वर्षीय ऐना सेबेस्टाइन पैराइल की काम के दबाव में मौत हो गयी। वह एक सी ए (चार्टर्ड अकाउंटेंट) थी। वह कोच्ची से पुणे जॉब करने आयी थी। पीजी में रहती थी। वह कड़ी मेहनत से कुछ हासिल करना चाहती थी। लेकिन अभी वह कॉर्पोरेट कल्चर से अनजान थी।

ऐना अर्नस्ट एन्ड यंग कम्पनी में काम करती थी। यह एक नामी गिरामी कम्पनी है। उसे कम्पनी ज्वाइन किये मात्र 4 महीने ही हुए थे। इन चार महीनों में उस पर काम का इतना दबाव डाला गया कि वह थकान और अनिंद्रा से टूट गयी और एक अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गयी।

यह मामला तब प्रकाश में आया जब ऐना की मां ने कम्पनी के इंडिया इकाई के चेयरपर्सन राजीव को एक पत्र लिखा। इस पत्र में ऐना की मां ने कम्पनी पर आरोप लगाया कि कम्पनी के टॉक्सिस वर्क कल्चर की वजह से उसकी बेटी की जान गयी है। ऐना का मैनेजर उस पर इतना काम का दबाव डालता था कि वह न तो ठीक से खा पाती थी और न ही सो पाती थी। कभी-कभी तो रात को सोते में भी उठाकर काम सौंप दिया जाता था।

जब ऐना ने अपने मैनेजर से वर्कलोड की शिकायत की तो उसने कहा कि हम सभी देर रात तक काम करते हैं, तुम्हें भी करना होगा। ऐना से पहले कई कर्मचारी काम छोड़कर जा चुके थे।

ऐना की मौत के बाद कम्पनी का कोई भी कर्मचारी/अधिकारी उसके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुआ। इस पर कम्पनी के चेयरपर्सन राजीव ने दुख व्यक्त किया लेकिन उसने वर्कलोड की वजह से जान जाने से साफ इंकार कर दिया।

अर्नस्ट एन्ड यंग कम्पनी दुनिया की एक बड़ी सेवा प्रदाता कम्पनी है। इसमें करीब 4 लाख कर्मचारी पूरी दुनिया के 150 देशों में काम करते हैं। कम्पनियों में काम का दबाव आम बात है। इसे काम का कारपोरेट कल्चर कहा जाता है। सब कुछ एक तयशुदा समय में पूरा करना और उसके लिए कर्मचारियों पर दबाव कायम करना इस कॉर्पोरेट कल्चर का एक हिस्सा है। ऐसे में कर्मचारी तनाव में जीता है।

यह संस्कृति ऊपर के कर्मचारियों से लेकर फैक्ट्रियों में काम करने वाले मज़दूरों सब पर हावी है। ऑटो उद्योग की फैक्ट्रीयों में काम करने वाले मज़दूर् लाइन पर काम करते हुए पानी तक नहीं पी पाते हैं। पेशाब तक नहीं जा पाते। कपड़ा उद्योग में काम करने वाले मज़दूर ऑर्डर आने पर दिन-रात काम करते रहते हैं। ऐसा ही हाल अन्य फैक्ट्रीयों में भी है। इन मज़दूरों की खबरें तो मीडिया से भी गायब रहती हैं।

आलेख

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।