राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी 14 जनवरी से 20 मार्च तक ‘भारत न्याय यात्रा’ का आयोजन करने जा रही है। यह ‘न्याय यात्रा’ मणिपुर से शुरू कर महाराष्ट्र तक होगी जो पैंसठ सौ किमी की दूरी तय करेगी।
यह सहज सवाल उठता है कि यह ‘न्याय यात्रा’ क्या हासिल करेगी? जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है, उनका उद्देश्य साफ है। इसके जरिये वे 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए अपने लिए माहौल बनाना चाहते हैं। इसके जरिये वे चुनावी वैतरणी पार करना चाहते हैं।
पर मजदूर वर्ग एवं आम मेहनतकश जनता को इससे क्या मिलेगा? क्या उसे इससे न्याय मिलेगा?
न्याय-अन्याय की बहुत सारी परिभाषाएं हैं। हर समाज में न्याय-अन्याय की अपनी-अपनी परिभाषा और व्याख्या होती है। इसीलिए अमूर्त तौर पर न्याय की बात करना और ‘न्याय यात्रा’ निकालना बेमानी है।
पर क्या आज के अन्याय-अत्याचार और शोषण वाले पूंजीवादी समाज के हिसाब से भी ‘न्याय’ की बात करने वाले कोई ऐसी बात कर रहे हैं जिस पर मजदूर-मेहनतकश जनता भरोसा कर सके?
पूंजीवादी व्यवस्था का न्याय कहता है कि श्रम करने वाले श्रमिक को उसकी श्रम शक्ति का पूरा दाम मिलना चाहिए। यानी श्रम शक्ति की कीमत से कम पर उसकी खरीद नहीं की जा सकती। पर ‘न्याय’ की बात करने वालों के राज में क्या रहा?
इनके 2004 से 14 के बीच में शासन के दौरान देश के नब्बे प्रतिशत से ज्यादा श्रमिकों को, जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, न्यूनतम मजदूरी नहीं मिली। यानी उनकी श्रम शक्ति की पूरी कीमत उन्हें नहीं मिली। आज भी उनके द्वारा शासित प्रदेशों में यह नहीं मिलती।
यही नहीं, उन्होंने कानूनी तौर पर भी श्रमिकों को उनकी श्रम शक्ति की पूरी कीमत देने से इंकार कर दिया। जब मनरेगा लागू किया गया तो उसके तहत आठ घंटे के काम की कीमत न्यूनतम मजदूरी से कम रखी गयी। इसे लेकर जब कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय गये तो वहां सरकार ने कहा कि मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी का कानून लागू नहीं होता क्योंकि वह एक राहत योजना है। यानी आज ‘न्याय’ की बात करने वालों ने तब राहत के नाम पर बेगारी कराने की योजना लागू की थी। उस पर तुर्रा यह है कि उन्होंने इस बेगारी योजना की वाहवाही लूटी।
इस योजना में एक और भी पेंच था और है। कानून बनवाकर यह गारंटी दी गई कि हर मांग करने वाले श्रमिक को साल में एक सौ दिन का काम मिलेगा या फिर बिना काम के भी पैसा मिलेगा। व्यवहार में क्या हुआ? व्यवहार में यह हुआ कि मांग के मुकाबले केवल पन्द्रह प्रतिशत लोगों को ही काम या पैसा मिला। यानी ‘न्याय’ की बात करने वालों की कानूनी गारंटी भी फर्जी निकली। आज जब ये भांति-भांति की गारंटी की बात कर रहे हैं तो मनरेगा को हमेशा याद रखना चाहिए।
यही हाल शिक्षा के अधिकार का रहा। ‘न्याय’ की बात करने वालों ने चौदह साल तक के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा का कानून बनाया। इसका हाल क्या हुआ। आज इसकी गारंटी करने वाले सरकारी स्कूल बस ‘मिड डे मील’ योजना वाले राहत का केन्द्र बन कर रह गये हैं। इनका इतना बुरा हाल है कि मजदूर तक अपने बच्चों को गली-मुहल्लों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये निजी स्कूली दुकानों में भेज रहे हैं। स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।
आज ‘न्याय यात्रा’ पर निकले कांग्रेसियों का अतीत और वर्तमान दोनों यह नहीं दिखाता कि इनकी ‘न्याय’ की बात पर तनिक भी भरोसा किया जा सके। फिर भी ये ठसक के साथ इस यात्रा पर निकले हुए हैं। शायद उन्हें लगता है कि हिन्दू फासीवादियों से त्रस्त लोग इनके अपने रिकार्ड को भूलकर हाल-फिलहाल इन्हें बुरे विकल्प के तौर पर चुन लेंगे।
अन्यायी लोगों की ‘न्याय यात्रा’
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को