कनाडा : जस्टिन ट्रूडो का इस्तीफा

/canada-jastin-truedo-ka-isteepha

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। 7 जनवरी को पद से इस्तीफा देते हुए उन्होंने कहा कि जैसे ही उनकी लिबरल पार्टी उनके उत्तराधिकारी का चयन कर लेगी, वे पद छोड़ देंगे। 
    
कनाडा के प्रधानमंत्री का इस्तीफा एक ऐसे वक्त में आया है जब अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प लगातार कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बनाने की मांग कर रहे हैं और ऐसा न होने पर कनाडा पर भारी तटकर थोपने की धमकी दे रहे हैं। इस धमकी से कनाडा की राजनैतिक पार्टियां ही नहीं पूंजीपति वर्ग भी हैरान-परेशान है। साम्राज्यवादी कनाडा लगातार अमेरिकी साम्राज्यवाद की छत्र छाया में रहा है। वह अमेरिका का विश्वस्त सहयोगी रहा है। अमेरिका के पड़ोसी होने के चलते उसे अमेरिका के वैश्विक अभियानों से लाभ हासिल होता रहा है। वह यह सहूलियत छोड़़ना नहीं चाहता पर अमेरिका में विलय कर अपने प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों पर अपने एकछत्र अधिकार को वह खोना नहीं चाहता। 
    
ट्रम्प की कनाडा को अपना 51वां राज्य बनाने की बयानबाजी से कनाडाई जनता में एक हद तक गुस्से की भावना भी पैदा हुई। वह चाहती थी कि उनका प्रधानमंत्री इसका उचित जवाब दे। पर कनाडाई पूंजीपतियों का प्रतिनिधि ट्रूडो ट्रम्प को नाराज कर अपने पूंजीपतियों के लिए मुसीबत नहीं खड़ा करना चाहता था इसलिए उसने ट्रम्प की बात को नजरअंदाज कर इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसने मजाक के बतौर ट्रम्प की खुद को गवर्नर बुलाने की बात को टाल दिया। 
    
ट्रूडो की पार्टी के भीतर ट्रूडो की पहले से कमजोर हो चुकी स्थिति को और बिगाड़ने का काम उप प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री क्रिस्टिया फ्रीलैण्ड ने किया। उसने ट्रूडो पर अमेरिकी दबाव का मजबूत जवाब न देने का आरोप लगाकर इस्तीफा दे दिया था। 
    
भविष्य में कनाडा में प्रधानमंत्री पद पर चुनाव होने हैं। इन चुनावों में ट्रूडो पहले से ही विपक्षी उम्मीदवार से लोकप्रियता में 20 प्रतिशत मतों से पीछे चल रहे थे। ट्रूडो यह स्पष्ट रूप से देख सकने में सफल थे कि अक्टूबर 25 में होने वाले चुनावों में उनकी पार्टी बुरी तरह हार जायेगी। विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी चुनावों में उनकी पार्टी से काफी आगे चल रही है। कंजरवेटिव पार्टी के नेता पियरे पोलीव्रे की लोकप्रियता पहले ही काफी बढ़ चुकी है। ऐसे में समय से पहले गद्दी छोड़कर ट्रूडो ने अपनी पार्टी की बुरी गत बचाने के लिए एक दांव चला है। यह दांव कितना कारगर होता है यह आने वाला वक्त बतायेगा। 
    
इस तरह ट्रूडो के लगभग 10 वर्षों के शासन का अंत हो गया। कनाडा में बढ़ती महंगाई, कनाडा में अप्रवासियों की बढ़ती संख्या, कमजोर आर्थिक स्थिति आदि की वजह से कनाडाई आम जनमानस में ट्रूडो की लोकप्रियता काफी गिर चुकी थी। ट्रम्प की बयानबाजी पर उनके समर्पणवादी रुख ने उनकी लोकप्रियता को और गिराने का काम किया। 
    
कनाडा की बढ़ती महंगाई के बीच वेतन न बढ़ने ने मजदूर वर्ग को बड़े पैमाने पर हड़तालों की ओर धकेला। बीते कुछ वर्षों में लगभग हर सेक्टर के मजदूर हड़ताल पर अपने गिरते हालातों के मद्देनजर उतरे। ट्रूडो मजदूरों का आक्रोश थामने में कुछ खास सफल नहीं रहे। इसके चलते कनाडा के पूंजीपति वर्ग का भी उन पर विश्वास कमजोर पड़़ने लगा और वे अधिक दक्षिणपंथी व्यक्ति व पार्टी पर दांव खेलने का मन बनाने लगे जो मजदूरों को आपस में विभाजित कर सके, जो अप्रवासियों की आमद रोक सके। पूंजीपति वर्ग के अविश्वास के चलते भी ट्रूडो को वक्त से पहले सत्ता छोड़नी पड़ी। 
    
10 वर्षों के शासन में ट्रूडो कनाडा को अमेरिकी पिछलग्गू के बतौर तो संचालित करते रहे पर वे खुलकर अमेरिकी अभियानों का वैसे हिस्सा नहीं बने जैसे यूके या इजरायल बनते रहे। अप्रवासियों की आमद रोकने पर भी वे अमेरिका से अलग नरम रुख अपनाते रहे। इस सबके चलते नव निर्वाचित ट्रम्प के लिए कनाडा से रिश्ते एक ऐसे बोझ की तरह प्रतीत हुए जिस पर अमेरिका खर्च अधिक करता है पर हासिल कम करता है। इसीलिए उसने आते साथ कनाडा के बारे में बयानबाजी शुरू कर दी। 
    
ट्रूडो की रुखसती पर भारतीय मीडिया ने विशेष तौर पर खुशी जाहिर की। बीते वक्त में भारत-कनाडा के बीच बिगड़े सम्बन्धों के चलते यह एक हद तक स्वाभाविक था पर खुशी के जोश में भारत का सरकार परस्त मीडिया भारत से दुश्मनी मोल लेने के चलते ट्रूडो की रुखसती की गलतबयानी करने लगा। मानो ट्रम्प ने भारत से पंगा लेने की सजा ट्रूडो को दे दी हो। भारतीय मीडिया भूल गया कि भारत-अमेरिका सम्बन्धों से कहीं ज्यादा मजबूत सम्बन्ध अमेरिकी-कनाडा के साम्राज्यवादियों के हैं। और ट्रम्प के सत्तासीन होने का कई मोर्चों पर भारत को भी खामियाजा उठाना पड़ेगा। 

यह भी पढ़ें :-

भारत की विदेश नीति : विशेष संदर्भ कनाडा

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।