चट्टान में भी फूल खिल सकते हैं; शर्त खूने जिगर से सींचने की है

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यह एक ठोस हकीकत है कि दुनिया में कहीं भी मजदूर राज नहीं है। जहां कहीं कम्युनिस्ट नामधारी या मजदूर पार्टियां शासन में हैं भी, वहां भी मजदूर राज नहीं है। यह बात चीन, वियतनाम, उत्तरी कोरिया, लाओस और क्यूबा के लिए भी सच है। कि वहां या तो शुद्धम शुद्ध पूंजीवाद है या फिर राजकीय पूंजीवाद है। यही बात ब्रिटेन की सत्तारूढ़ पार्टी जिसका नाम लेबर पार्टी है, के लिए भी सच है कि उसका ‘‘लेबर’’ से उतने ही दूर का नाता है जितना चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का समाजवाद या साम्यवाद (कम्युनिज्म) से है। और जो बात दुनिया के लिए सच है वही कुछ थोड़ा सा बदले रूप में भारत के लिए भी सच है। भाकपा, माकपा या भाकपा (माले) आदि का न तो मजदूर वर्ग से और न ही उसके अंतिम लक्ष्य साम्यवाद से कोई नाता है। ये भी मजदूर वर्ग की पार्टियां नहीं हैं। 
    
दुनिया भर में मजदूर वर्ग के विभिन्न किस्म के संगठन हैं। ट्रेड यूनियन से लेकर नाना प्रकार की पार्टियां हैं जो मजदूर वर्ग के हित में काम करने का दावा करती हैं। अधिकांश को छोड़ दिया जाए तो हर देश में कमोवेश कुछ ऐसे संगठन, ग्रुप व पार्टियां अवश्य हैं जो सच्चे दिल से मजदूर वर्ग के लिए काम करती हैं। और इस मामले में हमारा देश भी कोई अपवाद नहीं है। कई-कई संगठन और कई-कई लोग हैं जो सच्चे दिल से भारत के मजदूर-मेहनतकशों की सेवा करना चाहते हैं या हकीकत में करते भी हैं। 
    
दुनिया भर के मजदूरों में एक बहुत ही छोटा हिस्सा है जो अच्छी-अच्छी तनख्वाह पाता है। इन्हें कई तरह की सुविधायें मिलती हैं। यह तबका अच्छे-अच्छे घरों में रहता है। इनका जीवन आम मजदूरों से अलग होता है। इनका जीवन मध्यम वर्ग के जीवन सरीखा होता है। इसलिए इन्हें अभिजात मजदूर कहा जाता है। अभिजात मजदूर आम मजदूरों को हिकारत की उसी निगाह से देखते हैं जिस निगाह से पूंजीपति अथवा मध्यम वर्ग देखता है। इनके शरीर से लेकर आंखों तक में पूंजी की चर्बी चढ़ चुकी है। 
    
दुर्भाग्य से ये अभिजात मजदूर ही किसी देश के ट्रेड यूनियन व मजदूर आंदोलन के नेता बने हुए हैं। ये मजदूर आंदोलन में मजदूरों के हितों के स्थान पर पूंजीपति वर्ग के हितों को साधते हुए ही दीखते हैं। इसीलिए कई बार इनकी लानत-मलामत पूंजीपति वर्ग के गुर्गे अथवा एजेण्ट के रूप में की जाती है। पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों में यह समस्या विकराल है। और भारत में भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों में इनका बोलबाला है। सरकारी, सार्वजनिक ही नहीं बल्कि निजी क्षेत्र में भी जहां भी मजदूर ट्रेड यूनियनों में संगठित हैं वहां इन अभिजात मजदूरों को वर्षों से इनके नेतृत्व में मठाधीश बना हुआ देखा जा सकता है। 
    
अतीत में तो कई बार इनकी शानो-शौकत व रुतबे के सामने विधायक-सांसद भी पानी भरते हुए नजर आ जाते थे। इनकी शानो-शौकत, रुतबा वक्त के साथ तब घटने लगा जब दुनिया के साथ हमारे देश में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां अपनायी जाने लगीं। छंटनी से सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र के मजदूरों-कर्मचारियों की संख्या कम होने लगी। ठेका प्रथा के जोर पकड़ने से इन अभिजात मजदूरों की यूनियनों की सौदेबाजी की क्षमता कमजोर पड़ने लगी। और इसके साथ ही केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का प्रभाव व वैभव खत्म होने लगा। बात तो उस हद तक जा पहुंची जहां इन्हें पालने वालों ने भी इन्हें अनाथ छोड़ दिया। पहले इन्होंने आम मजदूरों से किनाराकशी की तो तब शासक वर्ग ने इनसे किनाराकशी कर ली। समाज में कोई इन्हें अब पूछने वाला बचा नहीं है। 
    
आज ऐसी स्थिति है कि मजदूरों की पुरानी पार्टियां, ट्रेड यूनियनें या अन्य तरह के संगठन, ऐसे औजार बन गये हैं जिनमें जंग लग चुकी है। इनसे आज के मजदूरों का कोई हित नहीं सध सकता है। ये मजदूरों की किसी भी तरह की लड़ाई लड़ने के लिए अक्षम साबित हो रहे हैं। 
    
पूंजीपति वर्ग के खिलाफ मजदूर वर्ग की लड़ाई के तीन क्षेत्र हैं। पहला; विचारधारात्मक-सैद्धान्तिक, दूसरा; राजनैतिक-वर्गीय और तीसरा; आर्थिक-व्यावहारिक क्षेत्र है। 
    
पहला क्षेत्र मांग करता है कि मजदूर वर्ग के अगुआ व नेता पूंजीपति वर्ग और उसकी व्यवस्था की निर्मम वैज्ञानिक आलोचना करें। पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूर-मेहनतकश, शोषित-उत्पीड़ित जनों के ऊपर प्रतिक्षण बोले जाने वाले विचारधारात्मक-सैद्धान्तिक हमलों का माकूल जवाब दें और मजदूरों के साथ अन्य मेहनतकशों को हर समय सचेत करें। पूंजीपति वर्ग लगातार अपनी मानवद्रोही व्यवस्था और उसकी राजनीतिक व्यवस्था व संस्कृति का महिमामण्डन करता है। लगातार यह साबित करने की कोशिश करता है कि आम मजदूरों-मेहनतकशों की समस्या के लिए वे स्वयं दोषी हैं। अतः यह मजदूरों के अगुवा व नेताओं का दायित्व बन जाता है कि वे साबित करें कि इसका कारण स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था और उसका संचालक उसका सबसे बड़ा लाभ उठाने वाला पूंजीपति वर्ग है। अतः मजदूर वर्ग अपनी मुक्ति चाहता है तो उसे पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा कर समाजवाद की स्थापना करनी होगी। और यह काम सिर्फ और सिर्फ मजदूर क्रांतियों के जरिये ही हो सकता है। 
    
दूसरा क्षेत्र मांग करता है कि सभी मजदूर एक वर्ग के तौर पर एक झण्डे के नीचे एकजुट हों। एक वर्ग के तौर पर संगठित होकर ही मजदूर वर्ग अपनी क्रांतिकारी राजनीति के जरिये पूंजीपति वर्ग को रोज-ब-रोज जवाब दे सकता है। उन मांगों के लिए एकजुट होकर लड़ सकता है जो सभी मजदूरों की राजनैतिक व आर्थिक मांगें बनती हैं। मसलन इस वक्त भारत में पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूर वर्ग पर बोले गये एक बड़े हमले के रूप में नई श्रम संहिताओं के खिलाफ एकजुट संघर्ष की आवश्यकता है। आवश्यक है कि भारत के मजदूर भारत के पूंजीपति वर्ग को नई श्रम संहिताओं को वापस लेने और कूड़े के ढेर में डालने को मजबूर कर दें। 
    
तीसरा क्षेत्र मजदूरों के वेतन, कार्यपरिस्थितियों व जीवन परिस्थितियों से जुड़ा हर समय चलने वाले संघर्ष से जुड़ा है। यह संघर्ष हर तरह के मजदूरों-कर्मचारियों को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में रोज-रोज लड़ना पड़ता है। मजदूरों को पूंजीपति वर्ग की सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम वेतन नहीं मिलता। उनकी कार्यपरिस्थितियां पूंजीपति वर्ग द्वारा बनाये गये कानूनों के अनुरूप भी नहीं होती हैं। उनको ऐसे इलाकों में रहना पड़ता है जहां बुनियादी सेवाओं (मसलन पीने का पानी, शौचालय, पक्की सड़कें, हवादार-रोशनीदार घर) का अभाव होता है। गरीब मजदूरों की बस्तियां साक्षात नरक का दर्शन करा देती हैं। आर्थिक-व्यावहारिक क्षेत्र में संघर्ष के लिए हर मजदूर सदैव तैयार हो सकता या किया जा सकता है। ये संघर्ष इसलिए आवश्यक होते हैं ताकि मजदूर लड़ना सीख सकें और अपनी कार्य व जीवन परिस्थितियों में कुछ सुधार करवा सकें। 
    
उपरोक्त तीनों क्षेत्रों की लड़ाई को एक साथ, सधे हुए और दृढ़ संकल्प से लड़ने की आवश्यकता है। सिर्फ आर्थिक-व्यावहारिक क्षेत्र की लड़ाई लड़ने से मजदूर वर्ग की मुक्ति नहीं हो सकती। और इसी लड़ाई में उलझे रहने से मजदूर वर्ग कहीं नहीं पहुंच सकता है। वह पूंजीवादी व्यवस्था में मरने-खपने को ही अभिशप्त होगा। वह पूंजीपति वर्ग का गुलाम ही बना रहेगा। इसलिए जरूरत है कि मजदूर वर्ग अपनी मुक्ति की लड़ाई को आगे रखते हुए बाकी लड़ाई इसके मातहत लड़े। और यह काम मजदूर वर्ग के अगुवा, नेताओं का बन जाता है कि वे तीनों लड़ाईयों को एक साथ, सधे हुए रूप में चलायें। और इस तरह से मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग को मात दे सकता है। 
    
मई दिवस, हमसे यही आह्वान कर रहा है कि हम उन लाखों शहीदों को याद करें जिन्होंने मजदूरों सहित पूरी मानव जाति की मुक्ति के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। मई दिवस हमसे यह संकल्प लेने की मांग कर रहा है कि हम पूंजीवाद की कब्र खोदने के काम में तेजी लायें। हमसे मांग कर रहा है कि पूरी दुनिया में समाजवाद का परचम लहरायें। आज का वक्त कितना ही बुरा और जालिम हो यदि मजदूर वर्ग ठान लेगा तो वह चट्टान में भी फूल खिला सकता है। और चट्टान में फूल खिलाने के लिए यह जरूरी है कि हम पूरी जान की बाजी लगा दें। खूने-जिगर से उस चट्टान को सींचे जिसमें एक फूल खिलाना चाहते हैं। 

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