पिछले दिनों दिसम्बर 23 में हरियाणा सरकार द्वारा मजदूरों के लिए इजराइल में नौकरी हेतु आवेदन पत्र जारी किए गए जिसमें लगभग 10 हजार पदों के लिए भर्ती की बात की गई। हरियाणा में इसके लिए साक्षात्कार की व्यवस्था की गई जिसमें इजराइल के प्रतिनिधि शामिल हुए। देखते ही देखते हजारों की संख्या में नौकरी पाने के लिए मजदूरों का हुजूम उमड़ पड़ा। यह सारी प्रक्रिया भारत सरकार द्वारा की जा रही है। लेकिन इस पर कोई भी आधिकारिक टिप्पणी करने से केंद्रीय श्रम मंत्रालय से लेकर विदेश मंत्रालय तक बच रहे हैं। एक तरह से अलग-अलग राज्यों के ऊपर इसे छोड़ दिया गया है। हालांकि श्रमिकों का चयन राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) द्वारा कराया जा रहा है।
गौरतलब है कि इजरायल वर्तमान में एक अशांत क्षेत्र में तब्दील है, जहां युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। ऐसे में देश से मजदूरों को इजराइल भेजना कितना सुरक्षित है, इस बात पर भारत सरकार या तो चुप्पी साधे हुई है या इस सवाल को ही गायब कर दे रही है।
एक तरफ आत्मनिर्भर भारत का ढिंढोरा पीटने वाली मोदी सरकार आज रोजगार के लिए इजराइल पर निर्भर हो रही है। साथ ही इसमें वह मजदूरों की जिंदगी से खिलवाड़ करने का काम भी कर रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिन मजदूरों को इस भर्ती प्रक्रिया के तहत इजराइल भेजा जा रहा है उनको ई-माइग्रेट पोर्टल पर पंजीकृत तक नहीं कराया जा रहा है। ई-माइग्रेट पोर्टल विदेश मंत्रालय द्वारा संचालित होता है, जिसमें देश से विदेश जाने वाले मजदूरों-कर्मचारियों का पंजीकरण कराया जाता है ताकि भविष्य में होने वाली घटनाओं के लिए सरकार इन पंजीकृत मजदूरों तक पहुंच सके।
जाहिर सी बात है कि ऐसा करके श्रम मंत्रालय व केंद्र सरकार मजदूरों को नाम मात्र की भी सुरक्षा नहीं मुहैय्या कराना चाहते। बताया जा रहा है कि 1.37 लाख के प्रति माह वेतन पर इन मजदूरों को भेजा जा रहा है। रोजगार और वेतन के नाम पर मजदूर संघर्षरत क्षेत्र की परवाह के बगैर इजराइल में नौकरी के लिए जाना चाहते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि इन मजदूरों को इजराइल जाने के लिए टिकट का भुगतान स्वयं करना होगा। साथ ही आवास, भोजन, चिकित्सा बीमा आदि इसी वेतन से काटा जाएगा। इसके अलावा नौकरी संविदा पर है या ठेका पर, इस संबंधी या सुरक्षा संबंधी विवरणों को स्पष्ट नहीं किया गया है।
इजरायल एक संघर्षरत क्षेत्र है जिसके कारण इजराइल को बड़ी संख्या में निर्माण, पेंटिंग, नर्स, देखभाल करने वाले केयर गिवर्स आदि की बड़ी मात्रा में जरूरत है। जिसके लिए वह पिछड़े देशों का रुख कर उनकी श्रम शक्ति को अपने देश में लाना चाह रहा है ताकि कम वेतन, कम सुरक्षा व कम सुविधाओं में वह मजदूरों का शोषण कर सके, जैसा चाहे वैसा काम उनसे ले सके। ऐसे में विश्व गुरू होने का दम भरने वाली केंद्र सरकार ने अपने देश के दरवाजे इजरायल के लिए खोल दिए हैं।
बिना मजदूरों के जीवन की परवाह किए सरकार उनको युद्ध क्षेत्र में भेज देना चाहती है, वह भी न्यूनतम सुरक्षा की गारंटी के बगैर। इजरायली आवर्जन एजेंसी के तहत बिजनेस टू बिजनेस इन भर्तियों को किया जा रहा है। लेकिन इनमें भविष्य में होने वाली किसी भी प्रकार की घटनाओं के लिए कौन जिम्मेदार होगा, यह ना तो भारत सरकार ना ही केंद्र श्रम मंत्रालय और ना ही इजरायल द्वारा बताया जा रहा है। हालत यह है कि केंद्रीय श्रम मंत्रालय इस पूरे मामले में किसी भी तरह की टिप्पणी से इनकार कर रहा है।
यह अनायास ही नहीं है। 2014 में जब मोदी सत्ता में आये तो हर साल 2 करोड़ रोजगार देने का वादा उन्होंने किया। लेकिन आज रोजगार देने के मामले में मोदी सरकार फिसड्डी साबित हो चुकी है। आज रोजगार के नाम पर यह युवाओं को सिर्फ और सिर्फ धर्मांधता व फर्जी राष्ट्रवाद का झंडा पकड़ने का रोजगार दे सकती है। और इसीलिए आज यह मजदूरों के जीवन से खिलवाड़ करने से भी पीछे नहीं है।
दूसरी तरफ आज देश के अंदर बेरोजगारी जिस हिसाब से बढ़ रही है, उसको देखते हुए आज मजदूर-मेहनतकश आबादी रोजगार के लिए अपने जीवन को भी दांव पर लगाने को तैयार है। इसका सीधा उदाहरण इजराइल में नौकरी के लिए जाने वाले मजदूरों से समझा जा सकता है। जो बिना इस बात की परवाह किए कि संघर्षरत क्षेत्र में उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है, ये जानने के बावजूद भी रोजगार और वेतन के लिए वहां जाना चाहते हैं। ऐसा हो भी क्यों ना जब देश में बेरोजगारी चरम पर हो तो आखिर मेहनतकश वर्ग करे भी तो क्या।
हालिया सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार भारत में बेरोजगारी दर तेजी से बढ़ रही है। इसके आंकड़ों के अनुसार अक्टूबर से दिसंबर 2023 की तिमाही में बेरोजगारी दर 20 से 24 आयु वर्ग के लोगों में 44.49 प्रतिशत, 25 से 29 आयु वर्ग के लोगों में 14.33 प्रतिशत व 30 से 34 आयु वर्ग के लोगों में 10 प्रतिशत रही है। सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार भारत में ग्रामीण क्षेत्र में भी बेरोजगारी दर तेजी से बढ़ रही है जिसमें 20 से 24 वर्ष की आयु वालों में बेरोजगारी दर 43.79 प्रतिशत, 25 से 29 आयु वर्ग के लोगों में 13.06 प्रतिशत, 30 से 34 आयु वर्ग के लोगों में 2.5 प्रतिशत रही है। सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी द्वारा बताया जा रहा है कि बेरोजगारी के आंकड़े बढ़ने का मुख्य कारण ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी का बढ़ना है। लेकिन वहीं दूसरी तरफ यह रिपोर्ट कहती है कि शहरी क्षेत्र में बेरोजगारी दर में कुछ गिरावट आ रही है।
लेकिन सच्चाई आज यह है कि सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में रोजगार के अवसरों में गिरावट आई है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय प्रबंधन संस्थानों में शिक्षित युवाओं के लिए भी नई प्लेसमेंट करने की कोई जगहें नहीं हैं। प्लेसमेंट के लिए युवा छात्र इधर से उधर भटक रहे हैं। बड़े-बड़े शहरों तक में उनको प्लेसमेंट नहीं मिल पा रहा है। और यही आज शहरी क्षेत्र की हकीकत है। आज भारत सरकार न सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि शहरी क्षेत्र में भी रोजगार के अवसरों को कम कर चुकी है। नोटबंदी से लेकर लॉकडाउन जैसे सनकी फैसलों ने देश में नए रोजगार पैदा करने की संभावनाओं को खत्म कर दिया है। और अपनी इन्हीं नाकामियों को छुपाने के लिए आज भारत सरकार बेरोजगारी के आंकड़े तक नहीं जारी कर रही है।
जुमलेबाजी में माहिर मोदी सरकार कभी पकौड़ा तलने को ही रोजगार की संज्ञा दे रही है तो कभी यह जुमला उछाल रही है कि, रोजगार देने वाला बनो, लेने वाले नहीं। कभी 40 करोड़ लोगों को मुद्रा लोन देने की बात कर रही है। लेकिन इनकी गलत नीतियों के कारण बेरोजगारी भयावह स्तर तक बढ़ गई है, इसकी यह भूलकर भी चर्चा नहीं करते हैं।
इतना ही नहीं आज आंकड़ों की बाजीगरी करने में माहिर मोदी सरकार यह दावे कर रही है कि, भारत में 86 प्रतिशत मजदूर ठेके पर नहीं बल्कि नियमित हैं। कि ठेके पर सिर्फ 10 प्रतिशत से भी कम मजदूर हैं। लेकिन वह यह सब नहीं बता रही कि वर्तमान में ऐसी अनेकों कम्पनियां हैं जिन्होंने स्थाई मजदूरों की छंटनी कर ठेके, नीम, एफ टी ई वालों की बड़ी संख्या में भर्ती कराई है। हम देख सकते हैं कि हमारे आस-पास आज ऐसी नाम मात्र की भी कंपनियां नहीं बची हैं जिसने मात्र स्थाई मजदूरों को काम पर रखा हो, ऐसे में यह आंकड़ा बिल्कुल वर्तमान हालत से मेल खाता हुआ नहीं दिखता। दरअसल पिछले 10 सालों में मोदी सरकार ने जिस तरह से मजदूरों को पीएफ के दायरे में लाने में जल्दबाजी की है वह इसी बात को दर्शाता है कि आज जिन भी मजदूरों का पीएफ है उनको भारत सरकार स्थाई मजदूर के बतौर दर्शा रही है।
आज बेरोजगारी का संकट सिर्फ इतना नहीं है कि मजदूरों को काम नहीं मिल रहा बल्कि आज यह वहां पहुंच गया है कि ऐसी बड़ी आबादी पैदा हो गई है जिसने बेरोजगारी से तंग आकर काम ढूंढना ही बंद कर दिया है।
ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ते बेरोजगारी के आंकड़े इस बात को दिखाते हैं कि आज भी बड़ी संख्या परंपरागत स्वरोजगारों में या खेती पर निर्भर होने को मजबूर हो रही है। और इस बढ़ती बेरोजगारी की एक बानगी यह भी है कि आज देश के मजदूर रोजगार के लिए इजराइल जैसे अशांत क्षेत्र में भी जाने को तैयार हैं।
देश में बढ़ती बेरोजगारी का आलम इस बात से भी समझा जा सकता है कि देश में बेरोजगारों का आक्रोश मोदी सरकार पर समय-समय पर फूटता रहा है। कि मोदी के जन्मदिन को युवा बेरोजगार बेरोजगारी दिवस के रूप में मनाने लगे हैं। जिससे आज सरकार भी कहीं ना कहीं अपनी सत्ता को लेकर आशंकित हैं। जिसके लिए वह कभी युवाओं को राम नाम की चादर ओढा देती है तो कभी हिंदू राष्ट्र का झुनझुना पकड़ा देती है।
पूंजीवादी समाज इसके अलावा बेरोजगारों को कुछ दे भी नहीं सकता। पूंजीवाद जिस अवस्था में पहुंच गया है इसके अलावा उसके पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है कि वह जनता पर शिकंजा कसने के लिए फासीवादी ताकतों को सत्ता में बैठा दे जो जनता को धर्म, जाति, क्षेत्र आदि में बांटकर अपनी सत्ता चला सकें व पूंजी की सेवा कर सकें। भारत में मोदी सरकार भी आज यही कर रही है। वह फासीवादी कदमों पर चलकर पूंजी की सेवा कर रही है।
आज आखिरी रास्ता यही है कि मजदूर, मेहनतकश, छात्र, नौजवान, महिलाएं अपनी एकता कायम करें और फासीवादी ताकतों को पीछे धकेल दें, तभी वह अपने जीवन को सुरक्षित कर सकते हैं।
आत्मनिर्भर भारत पर रोजगार इजराइल में
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आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को