बच्चे बनाम माता-पिता

ऐसा कम ही होता है कि किसी देश का राजदूत भारत के बम्बईया सिनेमा पर कोई लेख लिखकर स्पष्टीकरण दे। पर भारत में नार्वे के राजदूत को ऐसा करना पड़ा। उन्होंने बाकायदा एक लेख लिखकर यह स्पष्टीकरण दिया कि ‘मिसेज चटर्जी बनाम नार्वे’ फिल्म में बच्चों, माता-पिता और नार्वे सरकार की नीतियों का जो चित्रण किया गया है वह गलत तस्वीर की गुंजाइश पैदा करता है। कि नार्वे में भी लोग अपने बच्चों को वैसे ही प्यार करते हैं जैसे भारत में। कि वहां भी परिवार को लोग बेहद तवज्जो देते हैं। कि बच्चों के संबंध में नार्वे सरकार की कल्याणकारी नीतियां संवेदनहीन व मां-बाप विरोधी नहीं हैं। कि यह कहना गलत होगा कि नार्वे में दुधमुंहा बच्चे मां-बाप के साथ नहीं सोते इत्यादि।

इस सारे प्रकरण की पृष्ठभूमि कुछ साल पहले घटी एक घटना है जिसमें नार्वे में रह रहे एक भारतीय दम्पत्ति के नन्हें बच्चे को नार्वे सरकार के बच्चा कल्याणकारी बोर्ड ने इस आधार पर अपनी निगरानी में ले लिया कि बच्चे का सही तरीके से पालन-पोषण नहीं हो रहा था। भारतीय दम्पत्ति स्वाभाविक तौर पर परेशान हो गये और उन्होंने भारत सरकार से इस मामले में मदद की गुहार लगाई। कुछ समय बाद बच्चा उन्हें वापस मिल गया और वे भारत लौट आये। तब भारत के पूंजीवादी प्रचारतंत्र में इस प्रकरण को खूब जगह मिली और कहा गया कि सारे विवाद की जड़ नन्हें बच्चे को मां-बाप द्वारा अपने पास सुलाना था जो कि भारत में आम बात है पर नार्वे में ऐसा नहीं होता।

नार्वे के राजदूत की बातों से लगता है कि उक्त प्रकरण में मां-बाप का ‘अपराध’ दूसरे किस्म का था पर भारत में ऊपर कही गई बात ही प्रचारित हुईं। इसी को ही फिल्म की कहानी में आधार बनाया गया।

भारत में नार्वे के राजदूत ने अपने देश और सरकार की नीतियों की रक्षा करते हुए भी इस पूरे मसले में अपने राजनयिक पद के अनुरूप ही गोलमाल बात की। पर असल में इसकी तह में बच्चों और मां-बाप के संबंध में दो संस्कृतियों का मामला है। एक ओर है भारत की पिछड़ी पूंजीवादी-सामंती संस्कृति और दूसरी ओर है नार्वे की विकसित पूंजीवादी संस्कृति जिसमें ऊंचे स्तर का ‘कल्याणकारी राज्य’ भी शामिल है।

नार्वे, डेनमार्क, स्वीडन समेत उन विकसित पूंजीवादी देशों में है जो पूंजीवाद के सारे ही मापदंडों पर शिखर पर रहते हैं। वहां आज भी ऊंचे स्तर का ‘कल्याणकारी राज्य’ कायम है। यह मां-बाप ही नहीं बच्चों के पालन-पोषण के मामले में भी बनी नीतियों में दीखता है। वहां शादी-ब्याह से पहले स्त्री-पुरुष दोनों को बच्चों के पालन-पोषण के मामले में प्रशिक्षित किया जाता है। वहां मां ही नहीं बल्कि बाप को भी बच्चे के पालन-पोषण के लिए छुट्टी मिलती है। बच्चे के गर्भ में आने से लेकर उसकी शिक्षा-दीक्षा तक सरकार की भारी भूमिका होती है। हर स्तर पर बच्चों और मां-बाप पर ध्यान और निगरानी की व्यवस्था है जिससे बच्चा ठीक से विकसित हो।

कोई भी कह सकता है कि यह तो अच्छी व्यवस्था है। ऐसा ही सब जगह होना चाहिए। भारत में बच्चे जैसे पैदा होते हैं और पलते-बढ़ते हैं उससे तो यह बहुत बेहतर है। पर यह ध्यान रखना होगा कि बेहतरी की ऐसी कोई व्यवस्था बच्चे और मां-बाप के रिश्तों में बदलाव की मांग करती है। यह मांग करती है कि बच्चे के बारे में फैसला करने का अधिकार केवल मां-बाप को नहीं है। सरकार भी इसमें हस्तक्षेप करेगी। और ऐसा हो सकता है कि किसी समय मां-बाप और सरकार दोनों आमने-सामने खड़े हो जायें कि क्या बच्चे के हित में है और क्या नहीं। ऐसे में मामला जटिल हो जायेगा जिसका अदालतें ही फैसला कर सकती हैं।

नार्वे जैसे समाज में पले-बढ़े किसी व्यक्ति के लिए बच्चों और मां-बाप के संबंधों के मामले में ये बातें सामान्य होंगी क्योंकि उसके उसी संस्कृति में पले-बढ़े होने के चलते उसकी यही चेतना होगी। उसके लिए बच्चा मां-बाप की उस तरह की सम्पत्ति नहीं होगा कि उस पर किसी और का दावा न हो। यदि सरकार बच्चे के कल्याण का इतना प्रबंध करती है तो वह उस पर बिना किसी दावे के यह नहीं कर सकती। मसलन, यदि सरकार लगातार बच्चे के लिए टीकाकरण जरूरी समझती है तो मां-बाप यह नहीं कह सकते कि वे बच्चे को टीका नहीं लगवायेंगे।

वर्तमान भारतीय संस्कृति में पले-बढ़े लोगों के लिए बच्चा उसी तरह निजी सम्पत्ति होता है जैसा वह पुराने सामंती जमाने में हुआ करता था। वे उसे अपने हिसाब से पालने-पोसने की कोशिश करते हैं। वे उस पर निवेश करते हैं जिससे बच्चा बाद में उनके काम आ सके।

इस तरह के लोग नार्वे जैसे विकसित पूंजीवादी देशों में जाते हैं तो एक स्वाभाविक सा अंतर्विरोध खड़ा हो जाता है। एक ओर तो वे विकसित पूंजीवादी देशों की समृद्धि का लाभ उठाना चाहते हैं। वहां का ऊंचा जीवन स्तर उन्हें आकर्षित करता है। वे वहां की सरकारों की कल्याणकारी नीतियों का भी फायदा उठाना चाहते हैं। पर वे वहां भी अपनी पुरानी संस्कृति के हिसाब से जीवन जीने की कोशिश करते हैं। वे वहां की सुख-समृद्धि का लाभ उठाते हुए सांस्कृतिक स्तर पर वही पिछड़े भारतीय बने रहते हैं।

यह चीज उन्हें कभी-कभी उस तरह की समस्याओं में फंसा देती है जिसकी यहां चर्चा की जा रही है। भावनात्मक स्तर पर यह चाहे जितना कष्टकारी हो पर ‘मिसेज चटर्जी बनाम नार्वे’ में नार्वे ही सही जमीन पर है।

यह जानी-पहचानी बात है कि परंपरागत परिवार स्त्रियों की गुलामी का एक बड़़ा बायस है। और बच्चे इसमें सबसे अहं होते हैं। बिना बच्चों के पालन-पोषण की सार्वजनिक व्यवस्था के स्त्रियों की गुलामी से मुक्ति संभव नहीं। नार्वे जैसे ‘कल्याणकारी राज्य’ वाले विकसित पूंजीवादी देशों में जिस हद तक इस दिशा में कदम उठाये गये हैं उस हद तक वे आगे की ओर कदम हैं। परिवार और बच्चों के बारे में कोई भी रोना-धोना इस सच को धुंधला नहीं कर सकता।

इसके ठीक उलट परिवार और मां-बाप व बच्चों के बारे में सारी भावुकतापूर्ण बातें असल में उसी स्त्री-गुलामी को बनाये रखने की कोशिशें हैं। इस समय भारत में टी वी सीरियलों और फिल्मों में जो कुछ दिख रहा है उसका यही मतलब है। हिन्दू फासीवादियों के उत्थान के इस दौर में इसी की उम्मीद भी की जानी चाहिए। पर ठीक इसी कारण से यह और जरूरी हो जाता है कि परिवार के बारे में इस परंपरागत भावुकता का भंडाफोड़ किया जाये जिससे स्त्रियों पर पारिवारिक बंधन की जकड़न को ढीला किया जा सके।

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