बुलडोजर और एनकाउंटर राजनीति के विरोध का मतलब

इलाहाबाद में 24 फरवरी 2023 को उमेश पाल की खुलेआम हत्या के बाद बुलडोजर और एनकाउंटर एक बार फिर प्रचार और विरोध का विषय बना हुआ है। उमेश पाल, पूर्व विधायक राजू पाल की हत्या मामले में मुख्य आरोपी बदमाश अतीक अहमद के खिलाफ एक गवाह था। योगी के कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ाकर सरेआम इस नृशंस हत्या को अंजाम दिया गया। कानून व्यवस्था पर उत्तर प्रदेश विधान सभा में उठे सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री योगी का बयान कि ‘‘अपराधियों को मिट्टी में मिला देंगे’’ के बाद बाहुबली अतीक अहमद और उसके दो रिश्तेदारों के मकानों को बुलडोज कर दिया गया तथा उमेश पाल हत्याकांड में शामिल कथित दो शूटरों को मुठभेड़ में मार गिराया गया है। कानून व्यवस्था को बनाए रखने एवं सुचारू तरीके से चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। तो सवाल उठाए जा रहे हैं कि योगी ने न्याय प्रणाली के लिए बने विशाल संवैधानिक तंत्र को बाईपास क्यों किया? ऐसा करना, क्या कानून व्यवस्था एवं संवैधानिक न्यायिक प्रणाली को मिट्टी में मिलाना नहीं है?

मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने त्वरित इंसाफ वाली आपराधिक कार्यशैली को शासन प्रशासन का हिस्सा बना दिया है। योगी के पिछले 6 साल के शासन के दौरान, अब तक किए गए 10,713 एन्काउन्टर में 178 अपराधी बदमाशों को मारा गया है।

एन्काउन्टर की राजनीति कोई नई नहीं है। मुलायम सिंह और मायावती के शासन में भी एनकाउंटर हुए हैं। मायावती के मुख्यमंत्री रहते हुए चंबल इलाके के दो डाकू ददुआ और ठोकिया को भी एनकाउंटर में ही मारा गया था। लेकिन इसके लिए ‘‘ठोंक देंगे’’ या ‘‘मिट्टी में मिला देंगे’’ जैसी किसी तरह की बयानबाजी अथवा ऐलान नहीं किया गया था।

मुख्यमंत्री योगी का बुलडोजर एक्शन और एनकाउंटर खास वजह से चर्चा में है। इसका एक पक्ष सांप्रदायिक फासीवादी है, जो एक समुदाय विशेष की ओर केंद्रित है तो दूसरा पक्ष त्वरित इंसाफ दिलाने के नाम पर पूरी कानून व्यवस्था एवं संवैधानिक न्यायिक प्रणाली को बाईपास करने को लेकर है। भाजपा और आरएसएस ऐसे कारनामे का ढ़ोल-नगाड़े के साथ प्रचार कर फासीवादी एजेंडे पर आगे बढ़ रहे हैं। वहीं कांग्रेस सहित सभी विपक्षी पार्टियां उक्त कार्रवाई को असंवैधानिक करार देते हुए, संविधान और लोकतंत्र बचाने की दुहाई दे रही हैं। बुलडोजर एक्शन और एनकाउन्टर की कार्रवाई आर एस एस और मोदी के समग्र हिंदू फासीवादी एजेंडे का एक अंग है। इसलिए भाजपा शासित एवं केंद्र शासित सभी राज्यों में इस प्रकार की कार्रवाई चल रही है। इसी प्रकार से फासीवादी संगठन आरएसएस और भाजपा देश में फासीवादी राज्य कायम करने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।

फासीवाद, पूंजीवादी जनतंत्र के विकास के दौरान मजदूरों-किसानों के अधिकारों को कुचलकर खड़ी हुई विशाल वित्तपूंजी की नग्न तानाशाही का एक ढंग है। भारत में आजादी के समय से ही कथित लोकतंत्र की आड़ लेकर मजदूर-किसान विरोधी एवं पूंजीपरस्त नीतियों को लागू कर पूंजी को मुनाफे अर्जित करने का अवसर दिया गया। 1991 में कांग्रेस के शासन में नई आर्थिक नीतियों के नाम पर पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूरों-किसानों पर खुला हमला किया गया था। निजीकरण, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की नीतियों को लागू कर एकाधिकारी पूंजी यानी वित्त पूंजी को ‘लूट की खुली छूट’ दी गई थी, जो बदस्तूर जारी है। देश के शासकों द्वारा देशी-विदेशी पूंजी के सहारे देश के विकास का रास्ता चुना गया। राष्ट्रीयकरण की नीतियों का परित्याग कर दिया गया। उदारीकरण की नीतियों का ही परिणाम है कि एक ओर महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, कंगाली बढ़ रही है तो दूसरी ओर अंबानी-अडाणी जैसे चंद उद्योगपतियों, एकाधिकारी कारपोरेट घरानों के पास पूंजी का विशाल साम्राज्य है।

आज यह भी सच है कि तबाह-बर्बाद मजदूरों, किसानों, छात्र-नौजवानों, महिलाओं के बढ़ते असंतोष को लाठी-गोली से कुचला जा रहा है। वहीं फासीवादी राजनीति के तहत एक समुदाय विशेष यानी मुस्लिम समुदाय के खिलाफ खुलेआम हमला किया जा रहा है।

यह सही है कि योगी आदित्यनाथ के एक्शन द्वारा देश के कथित महान लोकतंत्र, संविधान और न्याय प्रणाली को मिट्टी में मिलाया जा रहा है। लेकिन लोकतंत्र एवं संविधान को बचाने की दुहाई देने वाली कांग्रेस सरीखी पार्टियां एवं उनके सहयोगियों ने भी अपने शासन काल में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू कर मजदूरों, किसानों, छात्र-नौजवानों एवं अन्य मेहनतकशों को मिले अधिकारों को कुचलने का ही काम किया है।

केवल संविधान और लोकतंत्र को बचाने की दुहाई देकर फासीवादी कार्रवाई एवं फासीवादी संगठनों को आगे बढ़ने से रोका नहीं जा सकता है। हमें मजदूरों-किसानों एवं अन्य मेहनतकश वर्गों के हितों व अधिकारों पर हमले के खिलाफ उन्हें संगठित करना होगा। हमें बहस को केंद्र में लाना होगा कि लोकतंत्र और संविधान ने मेहनतकशों को क्या दिया है और क्या छीना है? हमें मजदूरों-किसानों एवं दूसरे सभी मेहनतकशों के छीने गए अधिकारों को संविधान में बहाल करने की मांग लेकर आगे आना होगा। हमें कल्याणकारी नीतियों की तिलांजलि देने के खिलाफ जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। सबके लिए मुफ्त में समान शिक्षा और स्वास्थ्य का संवैधानिक अधिकार की मांग करनी होगी। संविधान में ‘रोजगार का मौलिक अधिकार’ को कायम करने के लिए संघर्ष करना होगा। पूंजीपतियों को मिले ‘लूट की छूट’ के संवैधानिक अधिकारों को खत्म करने के लिए व्यापक जनांदोलन करने होंगे। कम से कम निजीकरण, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ व्यापक जन गोलबंदी करने के प्रयास के बिना ‘लोकतंत्र और संविधान बचाने’ का आह्वान बेईमानी है। -मुन्ना प्रसाद, दिल्ली

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