इस दशक की सबसे महत्वपूर्ण हड़ताल थी बाल गंगाधर तिलक के कारादंड के विरुद्ध बंबई के मजदूरों की हड़ताल। 22 जुलाई 1908 को ब्रिटिश शासकों ने उन्हें छह साल का कारादंड दिया था। इसका प्रतिवाद करते हुए बंबई के मजदूरों ने छः दिन हड़ताल की थी।
13 जुलाई से लोकमान्य तिलक पर ब्रिटिश शासकों ने मुकदमा चलाना शुरू किया था। दरअसल उसी दिन से मजदूरों ने बंबई की आम जनता के साथ मिलकर ब्रिटिश शासकों की सशस्त्र मिलिटरी से लोहा लेना शुरू कर दिया था। उस दिन सवेरे ही ‘ग्रीव्स काटन मिल’ के मजदूर हड़ताल कर जुलूस बनाकर अदालत की तरफ आगे बढ़े थे। सशस्त्र मिलिटरी ने अदालत को जाने वाले रास्तों की नाकेबंदी कर रखी थी। उसने आगे बढ़कर मजदूरों के जुलूस को तोड़ने की कोशिश की। 14, 15 और 16 जुलाई को भी ऐसा ही हुआ। मजदूर जुलूस बनाकर अदालत की तरफ बढ़़ने की कोशिश करते और मिलिटरी उनको आगे बढ़ने से रोकती। 17 जुलाई से मजदूरों के इस आंदोलन ने उग्र रूप धारण करना आरंभ किया। उस दिन दोपहर के बाद ‘लक्ष्मीदास’, ‘ग्लोब’, ‘क्रीसेंट’, ‘जमशेद’, ‘नारायण’, ‘करीमभाई’, ‘मोहम्मद भाई’, ‘ब्रिटानिया’, ‘फोनिक्स’, ‘ग्रीव्स काटन’, आदि कारखानों के मजदूरों ने हड़ताल की।
लगभग 3,000 मजदूरों के जुलूस ने औद्योगिक अंचल का चक्कर काटकर सब मजदूरों से हड़ताल का अनुरोध किया। 18 जुलाई को भी यही हुआ, किन्तु इस दिन पुलिस ने मजदूरों पर गोली चलाई। 19 जुलाई को माहिम और परेल अंचल के लगभग 60 कारखानों के 65,000 मजदूरों ने हड़ताल की। 20 जुलाई को फिर मजदूरों पर गोली चली। कारखानों के मजदूरों के इस संग्राम में गोदी मजदूर, व्यापारी, दुकानदार और दुकान कर्मचारी भी शामिल हुए। 21 जुलाई को हड़ताल ने ज्यादा विराट रूप धारण किया। 22 जुलाई को पांच हड़ताली मजदूरों को गिरफ्तार कर कठोर सजा दी गई, ताकि बाकी सब डर जाएं।
22 जुलाई को तिलक को छः साल का कारादंड दिया गया। मजदूरों ने उसी दिन आम हड़ताल का फैसला किया। 23 जुलाई को पहली ‘सफल हड़ताल हुई’। उस दिन से अर्थात 23 जुलाई से सर्वोच्च स्तर की हड़ताल की लड़ाई शुरू हुई। बंबई के मजदूरों ने तिलक के कारादंड के विरुद्ध पहली राजनीतिक हड़ताल शुरू की। उस दिन बंबई की आम जनता के साथ एक लाख मजदूरों ने हड़ताल में भाग लिया। दूसरे दिन अर्थात 24 जुलाई को हड़तालियों और हथियारबंद पुलिस तथा सेना के बीच बंबई की सड़कों पर टक्कर शुरू हुई। पुलिस के पहले हमले से संभलकर मजदूरों ने दो हिस्सों में बंटकर लोहा लेना आरम्भ किया। पुलिस की गोलियों का उत्तर उन्होंने ईंट-पत्थर से दिया। अनेक मजदूर हताहत हुए। मारे जाने वालों में गणपत गोविंद आखिरी सांस तक जनता को ब्रिटिश शासकों से लड़ने को प्रोत्साहित करते रहे। याद रखने की बात है कि तिलक के कारादंड से भारतीय पुलिस में भी असंतोष था। अतः उसे हड़तालियों का दमन करने के लिए न भेजा गया था।
ब्रिटिश शासकों ने 24 जुलाई को ‘मिल-मालिक एसोसिएशन’ पर दबाव डालकर कारखानों और बाजारों को खुलवाने का असफल प्रयत्न किया। 25 और 26 जुलाई को भी हड़ताल चलती रही। 27 जुलाई को पुलिस और मिलिटरी के साथ हड़तालियों के संघर्ष ने व्यापक रूप धारण किया। मध्यवर्ग, छोटे-छोटे व्यवसायियों और अन्य श्रमजीवियों ने मजदूरों का साथ दिया। पुलिस और मिलिटरी की गोलियों का जवाब गली-गली से ईंटों और पत्थरों से दिया गया। उस दिन के शहीदों में एक गुजराती व्यवसायी केशव लाल फौजी भी थे। हड़ताल के अंतिम दिन अर्थात् 28 जुलाई को भी मजदूरों के जुलूस की भिडंत पुलिस और मिलिटरी से हुई।
बंबई के इस जन-विक्षोभ में दुकानदारों, व्यापारियों और मध्यवर्ग वालों के साथ कपड़ा मिल, पोर्ट-डाक, रेल, ट्राम, बिजली आदि के मजदूरों ने हिस्सा लिया था। इस जन-विक्षोभ में लगभग 200 आदमी मारे गये थे, और कितने ही घायल हुए थे। मजदूरों की यह हड़ताल पहली विशुद्ध राजनीतिक हड़ताल थी। भारत के मजदूर वर्ग के इस जागरण का महत्व क्रांति और प्रतिक्रांति दोनों के नेताओं ने पहचाना था।
लेनिन ने इसका स्वागत करते हुए कहा था : ‘‘भारत का सर्वहारा वर्ग इतना परिपक्व हो गया है कि वह चेतनापूर्ण राजनीतिक जनसंघर्ष चला सकता है और इस वजह से भारत में एंग्लो-रूसी तरीकों के दिन लद गये हैं।"
दूसरी तरफ ब्रिटिश साम्राजियों के मुखपत्र टाइम्स (लंदन) के बंबई संवाददाता ने लिखाः ‘‘हो सकता है कि पिछले पखवाड़े की महान शिक्षा इसी में निहित हो। यहां के और भारत के अन्य स्थानों के उद्योग के नेताओं ने सीख लिया है कि असंगठित और अशिक्षित होने पर भी भारत का मजदूर अधिकारियों का मुकाबला करने में क्या कर सकता है। ‘फैक्टरी कमीशन’ (1908) के किसी पृष्ठ में कोई बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण यह प्रमाण है कि मजदूर क्या कर सकते हैं।’’
(लेख का उपरोक्त हिस्सा अयोध्या सिंह की किताब 'समाजवाद : भारतीय जनता का संघर्ष' किताब से लिए गये हैं।)
बेशक मज़दूरों की ये हड़ताल भारत में मज़दूरों की प्रथम राजनीतिक हड़ताल के रूप में विख्यात है जिस पर रूस के महान क्रांतिकारी लेनिन ने भी अपनी टिप्पणी की थी। लेकिन नेतृत्व के स्तर पर ढेर सारी कमियां थीं जिन्होंने मज़दूरों की वर्गीय चेतना को एक स्तर तक बाधित ही किया।
जब तिलक जेल से छूटकर आये तो उन्होंने मज़दूरों के बीच गौरक्षा समिति, शिव पर्व, गणपति महोत्सव की स्थापना की। जातीय श्रेणी के संगठन बनाये। इन सभी कामों से मज़दूरों की वर्गीय चेतना कुंद ही होती है। हालांकि बाद में रूस में क्रांति होने के बाद भारत के मज़दूरों ने अपने संगठन और पार्टी बनाकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ डटकर संघर्ष किया और पूंजीपतियों की पार्टी कांग्रेस जो भारत में पूंजीपतियों की सत्ता स्थापित करना चाहती थी, से अलग भारत में मज़दूर राज की स्थापना का लक्ष्य भारत के मज़दूरों के सामने रखा। ये अलग बात है कि मज़दूर वर्ग इस लक्ष्य को पूरा नहीं कर सका। और आज भारत के मज़दूरों के सामने भारत में समाजवाद को स्थापित करने की चुनौती मौज़ूद है।