साम्राज्यवादी पूंजी और विज्ञान-तकनीक का विकास

/imperialism-capital-aur-science-technology-kaa-dovelopment

एक छोटी सी चीनी कंपनी द्वारा विकसित ‘डीपसीक’ ने कृत्रिम बुद्धि की दुनिया में तहलका तो मचाया ही, उसने साम्राज्यवादी पूंजी द्वारा विज्ञान-तकनीक के विकास के रास्ते में खड़ी की गयी बाधाओं को भी उजागर कर दिया। 
    
जब से अमरीकी साम्राज्यवादियों को लगने लगा है कि नये उभरते चीनी साम्राज्यवादी न केवल उन्हें कड़ी टक्कर दे सकते हैं बल्कि भविष्य में उन्हें पछाड़ भी सकते हैं, तभी से वे भांति-भांति से चीनी तकनीकी विकास को रोकने का प्रयास कर रहे हैं। हुवाई की 5-जी की मशीनों-औजारों पर प्रतिबंध से लेकर चीन को अमेरिकी कंपनियों द्वारा कम्प्यूटर चिप्स के निर्यात पर प्रतिबंध सब इसमें शामिल हैं। 
    
यदि अमेरिकी सरकार हताशा में यह सब कर रही है तो अमेरिकी कंपनियों की तो सामान्य कार्यपद्धति ही अपनी तकनीक पर नियंत्रण की रही है। ज्यादातर यही कंपनियां तकनीक के नये क्षेत्रों में हावी हैं। वे अपने द्वारा विकसित तकनीकों पर इस तरह नियंत्रण रखती हैं कि उन्हें महत्तम मुनाफा हो सके। इसी नियंत्रण के कारण कई तकनीकों पर उनका एकाधिकार है। 
    
यह एकाधिकार स्वाभाविक तौर पर तकनीक के विकास के रास्ते में बाधा पैदा करता है। किसी नयी तकनीक के विकास के लिए सबसे अच्छी स्थिति वही होती है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस विकास में भागीदारी करें। इसके लिए जरूरी होता है कि पहले आविष्कृत तकनीक में सबको सुधार करने या नया जोड़ने का हक हो। इसी के जरिये नई चीजें सूझती हैं। 
    
पर पूंजीवाद में ऐसा नहीं होता। नयी तकनीक को आविष्कारक पेटेन्ट करा लेते हैं जिससे वे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा सकें। दूसरे लोग चोरी से ही ‘रिवर्स इंजीनियरिंग’ के जरिये इसमें कुछ कर पाते हैं। 
    
कृत्रिम बुद्धि के मामले में भी अमेरिकी कंपनियों ने अपने आविष्कारों पर नियंत्रण कर रखा था। उन्हें धक्का तब लगा जब ‘डीपसीक’ के निर्माताओं ने इसे सबके लिए मुफ्त में सुलभ करा दिया। लोग न केवल इसका इस्तेमाल कर सकते हैं बल्कि इसमें नया जोड़-घटा भी सकते हैं। 
    
चीनी कंपनी की इस रणनीति ने सबका ध्यान खींचा। नतीजा यह निकला कि इस क्षेत्र की नेतृत्वकारी अमरीकी कंपनी ओपन ए आई को भी एक आविष्कार को सबके लिए सुलभ कराना पड़ा। इससे अमरीकी कंपनियों की अपने आविष्कारों पर नियंत्रण की आम नीति पर कोई असर नहीं पड़ेगा पर उसने विज्ञान-तकनीक के विकास की समस्या को सामने ला दिया। यह आम चर्चा का विषय बन गया कि क्या नये आविष्कारों के लिए बड़ी एकाधिकारी पूंजी की विशाल पूंजी और नियंत्रण की प्रणाली जरूरी है?
    
चीनी साम्राज्यवादी भी उभरते हुए साम्राज्यवादी हैं। उनका भी आम व्यवहार साम्राज्यवादियों जैसा ही होगा। वे भी अपने नये आविष्कारों पर अपना नियंत्रण रखना चाहेंगे। इसके बावजूद यदि चीनी कंपनी ने अपने ‘‘डीपसीक’’ को सबके लिए उपलब्ध करा दिया तो यह चीनियों की रणनीति भी हो सकती है। इसके जरिये तात्कालिक तौर पर उन्होंने अमरीकी कंपनियों को भारी धक्का पहुंचाया है तथा उनकी समूची कार्यपद्धति पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। 
    
तकनीक के विकास पर साम्राज्यवादी पूंजी का यह नियंत्रण पलट कर विज्ञान के विकास को भी नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है। तकनीक और विज्ञान एक-दूसरे से क्रिया-प्रतिक्रिया करते हुए ही विकसित होते हैं। ऐसे में यदि एक के विकास की गति धीमी होती है तो दूसरे की गति भी धीमी हो जाती है। वैसे भी आज विज्ञान के सबसे आगे बढ़े हुए क्षेत्रों में शोध के लिए बहुत उच्च तकनीक की जरूरत होती है। आज केवल आंखों से देखकर और कागज-कलम के जरिए विज्ञान में नयी खोज नहीं हो सकती। ऐसे में जिनका तकनीक पर नियंत्रण होगा वे विज्ञान पर भी नियंत्रण कायम कर लेंगे। 
    
विज्ञान और तकनीक में विकास आज भी हो रहा है। और यह साम्राज्यवादी देशों में ही हो रहा है। पर साम्राज्यवादी पूंजी और आम तौर पर साम्राज्यवादी संस्कृति के कारण इस विकास की गति उतनी तेज नहीं है, जितनी हो सकती है। कोढ़ में खाज यह कि जो विकास हो भी रहा है वह मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए भारी मुसीबतें पैदा कर रहा है और पूरी मानवता के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर रहा है।   

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।