
मुहब्बत जब दिलों के दरवाजों पर दस्तक देती है, तब मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां ज्यादा संवेदनशील हो जाती हैं। उस पहली मुलाकात का वो पहला स्पर्श जो प्रेयसी का हाथ छू जाने पर होता है और उस छुअन की ताजगी ताउम्र सजीव बनी रहती है। प्रेम चाहे प्रेयसी का हो, या किसी विचारधारा का या जीवन के किसी सत्य का, जब एक बार जीवन को छूता है, उसे चूमता है तब दिलों में जन्म लेने वाला एहसास, स्पंदन, उत्साह उसे जज्बातों की तरफ ले जाता है। प्रेम में साधारण सा मनुष्य खुद को फना तक कर सकता है। प्रेम, जान हथेली पर रखकर मर मिटने वाले विद्रोही इंसानों को जन्म देने का माद्दा रखता है।
12 घंटे की मशक्कत, और फिर रात में रेलगाड़ी का सफर, रात भर गाए जाने वाले क्रांतिकारी गीत, नारों के बीच कटा हुआ सफर। अगले दिन सुबह का सफर, दिन भर का जुलूस, नारे फिर वापसी का सफर। इतनी थकान, परिश्रम और नींद की खुमारी इन सब के बीच एक सुखद अनुभूति। ये कौन सा जीवन है?
मनुष्य जब प्रेम में होता है तब दीदारे महबूब की खातिर तमाम मुश्किलें झेलता हुआ पैदल, फटेहाल, भूखा रहता हुआ बस चल पड़ता है। मुहब्बत की तासीर ही कुछ ऐसी है। हर रोज शाम होते ही नशे में डूब जाने वाला अरविंद अब हैरान नहीं होता कि कैसे शराब की जगह किताबों और मीटिंगों ने ले ली है। सब कुछ एक नए रंग में रंगा हुआ है। दिमाग ने इन सभी सवालों के जवाब बहुत पहले ही ढूंढ लिए थे।
ट्रेन के सफर में अभी नींद और चेतना के बीच कुछ फासला है। पुराना सब कुछ अचेतन से निकलकर सजीव होने लगता है। अभी पांच साल लगभग पहले की बात होगी जब अरविंद अपने जीजा के साथ नए शहर में काम करने आया था। फरीदाबाद से शिफ्ट होकर फैक्टरी नए शहर में आई और अपने साथ पुराने दर्जन भर मजदूरों को भी लेती आई। अरविंद और उसका जीजा उन्हीं दर्जन भर मजदूरों में से एक थे।
बिहार के जिस परिवेश से अरविंद का ताल्लुक था उस घर में खुदमुख्तारी जैसा कुछ भी नहीं था। यहां परिवार के सभी फैसले ताऊ लेता है। पिता से ऊपर ताऊ है जिसे बड़े पापा बोला जाता है। ताऊ गाली दे सकता है, भूखा रख सकता है, मार सकता है, घर से निकाल सकता है, और। और शादी करवा सकता है। यहां हुक्म की नाफरमानी के लिए कोई जगह नहीं है। फरीदाबाद में जीजा के साथ नौकरी करना भी ताऊ का ही फैसला था।
परिवार में जो जगह ताऊ की थी, फरीदाबाद में वो जगह जीजा ने ले ली। कमरे में खाना बनाने से लेकर, कपड़े धोना, साफ-सफाई एक दायित्व बन चुका है। निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ जीजा को है। परिश्रम-दायित्व-तिरस्कार के बीच अरविंद को सिर्फ एक अधिकार है, वो ड्यूटी से आने के बाद शराब पी सकता है। क्योंकि जीजा पीता है हर दिन शाम को अपनी थकान और दिन भर के तिरस्कार को कम करने के लिए।
स्वेच्छा और मजबूरी के बीच जो खाई है वह बहुत गहरी होती है, जिसकी जड़ें हजार साल पुरानी भी हो सकती हैं। और ऐसा भी हो सकता है कि एक सामान्य से अपनत्व से कहे गए शब्द हृदय में ऐसा कंपन्न पैदा कर दें कि तथाकथित दायित्व रूपी दीवार भर भराकर ढह जाए। अरे अरविंद तू अपने जीजा का कच्छा क्यों धो रहा है? ये कपिल का प्रश्न था जो इत्तेफाक से वहां पहुंच गया था।
कपिल के साथ दोस्ती की पहली शुरुआत उस दिन हुई थी जब कपिल ने उसे एक बडी परेशानी से बचा लिया था वरना अरविंद के द्वारा कंपनी में बड़ा नुकसान हो जाता। कपिल के पास दूसरे टीम लीडरों की तरह ही मौका था जैसा आम तौर पर होता है कि चाहे तो इस अवसर का लाभ उठाए और मासिक आय में कुछ वृद्धि करवा ले परन्तु मानवीयता का जन्म तभी होता है जब मनुष्य टुच्चे स्वार्थों से ऊपर उठ जाता है। मानवीय मित्रवत व्यवहार मजबूती पाकर दोस्ती की डोर में बंधने लगता है और एक नए रूप में खुद को परिभाषित करने के सफर की तरफ बढ़ने लगता है।
फैक्टरी में अरविंद अगर पूंजी का उजरती गुलाम था तो फैक्टरी से बाहर पुराने सामंती संबंधों का। एक गुलामी का संबंध जो अदृश्य रूप में कमरे के और मनुष्य की आत्मा में बैठा हुआ है। उस प्रेत का अंत करना लाजिमी है। तथाकथित दायित्व मर्यादा, सम्मान का लबादा ओढ़े खोखले संबंध, इनका ढहना जरूरी है। धातु का टुकड़ा जिस पर गहरी जंग जम चुकी थी उसे पहले तेजाब में डुबोने की जरूरत थी ताकि गहरी जंग छुड़ाई जा सके। धातु के टुकड़े को धारदार, नुकीले खंजर में तब्दील करने के लिए लाजिमी है कि पहले जंग छुड़ाई जाए।
लताएं अपने आप ऊपर नहीं उठतीं। उन्हें ऊपर उठाने के लिए सहारे की जरूरत होती है। वरना लताएं घने रूप में जमीन पर ही फैल जाती हैं, जिसके ओर-छोर का कुछ पता नहीं होता। लताओं को ऊपर उठाने के लिए सचेत होकर मजबूत डोर बांधने की जरूरत होती है। उसके बाद लताओं का नैसर्गिक गुण उभरकर आता है। लताएं डोर से एकाकार होती हैं और डोर की दिशा में ही बढ़ने लगती हैं। डोर और लताओं का संबंध तब तक जिंदा रहता है जब तक लताएं अपना जीवन चक्र पूरा न कर लें। और अपनी मृत्यु से पहले अपना समस्त ओज बीज रूप में छोड़ जाती हैं।
कपिल के साथ बातचीत के लंबे दौर शुरू हो चुके थे तब एक दिन कपिल ने कहा था कि, जीजा से अलग होकर क्यों नहीं रहता? एक धक्क सी दिल में उठी, तो फिर मैं रहूंगा कहां? क्यूं मेरे साथ शिफ्ट हो जा। कपिल जैसे लोगों के बीच रहना अरविंद के लिए बहुत विशिष्ट बात थी अभी जिस बात को कानों ने सुना क्या वह सत्य है? दुबारा प्रश्न होता है, ‘‘क्या तुम मुझे अपने साथ रखोगे? क्यों नहीं रखूंगा। मैं भी अकेला हूं, दोनों का सहारा हो जाएगा। जब दिल करे तब आ जाना। अरविंद ने अभी तक ताऊ और जीजा की सरपरस्ती में जीवन जिया था कपिल जैसे लोगों के साथ रहना अरविंद के लिए विशिष्ट भाव लिए था। और इसका कारण भी था।
हुआ यह था कि एक दिन कपिल ने पूछा ‘‘अरविंद देहरादून घूमने चलेगा? रात 10 बजे की ट्रेन है। रविवार को छुट्टी रहेगी, सोमवार को ड्यूटी कर लेंगे। बता चलना है? देहरादून क्या करेंगे? अरविंद ने प्रश्न किया। घूमने चलेंगे हरिद्वार, देहरादून भी देख आयेंगे, और भी कुछ लोग चल रहे हैं। अरविंद कुछ सोचता है फिर हामी भर देता है।
दो लोग स्टेशन पर खड़े हैं। बाकी लोगों का भी आना शुरू हो चुका है। बीसियों लोग कपिल से हाथ मिला रहे हैं और कपिल उन सभी से अरविंद का परिचय करवा रहा है। बीसियों पुरुष और कुछ महिलाएं अरविंद से हाथ मिलाती हैं। जीवन में शायद यह पहला मौका है जब इतनी जिंदादिल लड़कियों से अरविंद ने हाथ मिलाया था। ताउम्र साथ रहने पर भी जहां अजनबियत ही बनी रहती है वहीं इस पहली मुलाकात में ही इतना अपनापन, इतना मित्रवत व्यवहार। आज से पहले जीवन ने सिर्फ कड़वाहट और कुंठाओं जैसी भावनाओं से ही परिचय करवाया था, लेकिन आज जो एहसास दिल को छू रहा है, उसने एहसास करवाया कि जीवन में ऐसे रंग भी होते हैं। कि इंसान दूसरी किस्म के भी होते हैं।
इस सफर ने जीवन के जिस रूप से परिचय करवाया वो एहसास प्रेम की तरह पवित्र एहसास था, कि इस एहसास में आने वाली बगावत के, विद्रोह के बीज थे। विद्रोह तथाकथित दायित्व के प्रति जिसने घृणित नहाए हुए कपड़ों को पवित्र मानकर उन्हें धोना सिखा दिया था। विद्रोह ताऊ के खिलाफ जिसने जीजा के साथ रहने का आदेश दिया था।
इस सफर के बाद हृदय में जन्म लेने वाली असंख्य भावनाएं, क्रांतिकारी गीत, नारे और वो सच्चे दोस्त। नर-नारियों का उत्साहित समूह। सफर जो सिर्फ सफर नहीं था। पहली बार हाथों ने जमीन छोड़ी और पांव के बल पर जीवन ने खड़ा होना शुरू किया था।
नवांकुरों के नन्हे हाथों ने मजबूत लताओं का दामन थाम लिया और कब लताएं डोर के साथ एकाकार हो गईं और देखते ही देखते कब छह साल बीत गए पता ही नहीं चला। जीजा का कमरा छोड़े हुए पांच साल बीत चुके हैं। ताऊ ने शादी के लिए जोर देना बंद कर दिया है, धमकी या आदेश का स्थान अब याचना ने लिया है। सिर्फ अपनी मौत की दुहाई दी जाती है कि मरने से पहले तेरे बच्चे देख लेता। मां चिंतित रहती है इस दुबली काया को देखकर जो पहले से भी ज्यादा कम हो गई है और शिकायत करती कि कुछ दिन रुककर जाता। कुछ दिन ठीक से खा पी लेता।
कपिल के साथ देहरादून प्रदर्शन वाली घटना को पांच साल बीत चुके हैं। इन बीते सालों में, यात्राएं, जुलूस, धरना, प्रदर्शन, मीटिंगें, कमेटियां, किताबें, अखबार, नौकरी का छूट जाना ये सब अब जीवन का सहज और आम हिस्सा बन चुका है। जिस जिम्मेदारी को कभी कपिल ने उठाया था अब अरविंद के जिम्मे है। कपिल अब दूसरे शहर में जा चुका है।
आज न जाने क्यों अतीत की सारी स्मृतियां जीवित हो उठी हैं। पुराने जीवन का कोई भी क्षोभ आज शूल बनकर हृदय में नहीं चुभता। और न ही कपिल के प्रति कृतज्ञता का कोई भाव, इन सब से इतर एक समर्पण है, मानव जाति के प्रति। एक प्रतिबद्धता है विचारधारा के प्रति, अतीत की क्रांतिकारी विरासत के प्रति। समर्पण है अपने समूह, अपनी कमेटी के प्रति जिसने उसे मनुष्य होने के एहसास से भर दिया है। दिन भर की थकान, दौड़-धूप, नारे लगाने के बाद फटे हुए गले, दो रातों से जागती हुई आंखें, ये सब कुछ निर्माण का हिस्सा है ताकि एक मनुष्य जाति जन्म ले सके।
ट्रेन में सारे लोग सो चुके हैं। नींद का झोंका आने से पहले अरविंद ने टीम के बाकी साथियों पर नजर डाली। थोड़ी ही देर में नींद ने, थकी देह पर काबू पा लिया। ट्रेन स्टेशन पर कुछ देर के लिए रुकी है। कुछ पल के लिए आंखें खुलती हैं हल्की सुबह होने को है। आंखें फिर से धीरे-धीरे नींद की तरफ बढ़ती हैं’’। नींद बहुत गहरा चुकी है। हिचकोले खाती हुई रेलगाड़ी अगले स्टेशन की तरफ बढ़ जाती है। सफर की यही खूबसूरती है कि वह ठहराव नहीं जानता। प्रत्येक मंजिल पर कुछ पल रुकता है, नए हमसफर दोस्त इस सफर में हिस्सा बनते हैं, जिन्हें साथ लेकर आगे की यात्रा जारी रहती है। अगले सफर से पहले अरविंद अभी गहरी नींद में सो गया है। क्योंकि नींद जीवन का एक अहम हिस्सा है। और इसलिए भी कि इंसान सपने देख सके। मुहब्बत के! युद्ध के! सफर के! -पथिक