दुनिया भर के शीर्ष पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देश 9-10 सितम्बर को जी-20 की बैठक के लिए दिल्ली में इकट्ठा हुए। लुटेरे शासकों की इस बैठक से दुनिया भर के मजदूर वर्ग को अपनी बेहतरी की न तो कोई उम्मीद थी और न ही सम्मेलन में मजदूर वर्ग के हालातों पर कोई चर्चा हुई। हां आर्थिक संकट से लेकर पर्यावरण तक के मामलों में जिस राह पर दुनिया के देश बढ़ रहे हैं उनका असर मजदूर वर्ग की हालात में गिरावट के रूप में ही सामने आना है।
चूंकि सम्मेलन भारत में हो रहा था इसलिए जी-20 आयोजनों का खामियाजा देश भर के मजदूर-मेहनतकश वर्ग ने साल भर भुगता। कहीं मजदूरों की बस्तियां तोड़ दी गयीं तो कहीं उनकी गरीब बस्ती के आगे हरे पर्दे टांग गरीबी छिपाने का प्रयास हुआ। दिल्ली में शिखर सम्मेलन के वक्त तो सारा काम ठप कर मजदूरों के 3 दिन के काम को भी सरकार ने चौपट कर दिया। एक अनुमान के मुताबिक केवल बस्तियां ढहने से प्रभावित लोगों की तादाद लाखों में है। मजदूरों-मेहनतकशों ने जी-20 की बैठक का कोप भारत में बैठक से पहले ही झेल लिया था।
साझे वक्तव्य में मजदूर वर्ग से जुड़ी बातें महज एक पंक्ति में सामाजिक सुरक्षा, लैंगिक समानता व प्लेटफार्म मजदूरों की दशा के संदर्भ में की गयीं। जाहिर है यह महज मजदूर वर्ग को भरमाने के उद््देश्य से ही अधिक थीं। मजदूर वर्ग पर इतनी कम चर्चा से दुनिया के कुछ संशोधनवादी-पूंजीवादी ट्रेड यूनियन सेण्टर भी रोष व्यक्त कर रहे हैं और ब्राजील में अगले वर्ष होने वाले सम्मेलन में अधिक चर्चा की उम्मीद लगाये हुए हैं। मजदूर वर्ग को भरमाने के लिए ही पूर्व में श्रम-20 नाम से बैठक भी की गयी थी।
तमाम मुद्दों के हल के लिए वक्तव्य उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को और तेजी से आगे बढ़ाने की वकालत करता है। इसका असर मजदूर वर्ग पर पहले भी घातक रूप में पड़ा था आगे भी इसी रूप में पड़ेगा।
वक्तव्य कर्ज संकट से देशों को बाहर निकालने की बात करता है। इसको व्यवहार में अंजाम देने के लिए सरकारों को अपना खर्च घटाना पड़ेगा जिसकी पहली मार जनता के लिए खर्च की जा रही कल्याणकारी मदों पर पड़ेगी। वक्तव्य विभिन्न क्षेत्रों में सरकारी के साथ निजी क्षेत्र की भागीदारी, मजबूत वैश्विक मूल्य श्रंखलायें सृजित करने, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाने, कारोबार की सुगमता बढ़ाने व लागत घटाने की बातें आर्थिक संकट से निकलने के नाम पर करता है। इन सबका मजदूर वर्ग पर प्रतिकूल असर पड़ना लाजिमी है। निजी क्षेत्र में श्रम कानूनों की परिपालना काफी कमजोर है। कारोबार की सुगमता व लागत में कटौती मजदूर वर्ग की श्रम दशा कठोर कर व मजदूरी गिरा कर हासिल की जायेगी।
वक्तव्य विश्व व्यापार संगठन के तहत उन्मुक्त व्यापार की बात करता है। इसका असर गरीब देशों के कृषि व अन्य पिछड़े क्षेत्रों की तबाही के रूप में सामने आना है। वैश्विक मूल्य श्रंखला में गरीब देश एकाध कच्चे माल या फसल के उत्पादक बना दिये जायेंगे जिसका खामियाजा किसान समुदाय के साथ मजदूर वर्ग को भी उठाना पड़ेगा।
इसी तरह स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि सरीखे विभिन्न क्षेत्रों में वक्तव्य उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां तेजी से बढ़़ाने की बात करता है जिसका शिकार दुनिया भर की जनता के साथ मजदूर वर्ग भी बनेगा। स्पष्ट है कि मजदूर वर्ग के लिए इस शिखर सम्मेलन में इतना ही था कि उसकी बुरी हालात पर एक शिकारी गिद्ध की दया दृष्टि डाल कर सभी गिद्ध उसे और नोंचने-खसोटने की जुगत में जुट गये। मजदूर वर्ग इन लुटेरे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी गिद्धों की असलियत एक दिन जरूर समझेगा और तब उनके एक-एक अत्याचार का हिसाब करेगा।
जी-20 सम्मेलन और मजदूर वर्ग
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को