मारुति के संघर्षरत मजदूरों का दमन

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गुड़गांव/ दिनांक 29 जनवरी 2025 को गुड़गांव पुलिस ने 144 दिनों से मानेसर में धरना दे रहे मारुति के बर्खास्त मजदूरों को दोपहर डिटेन कर बसों में भर कर मानेसर से 20 किलोमीटर दूर फर्रुखनगर छोड़ दिया। मारुति के बर्खास्त मजदूर अपनी नौकरी बहाली की मांगों को लेकर लगभग 144 दिनों से धरना दे रहे थे। लेकिन मजदूरों की मांगों के समाधान की बजाय पुलिस प्रशासन ने मजदूरों के विरोध प्रदर्शन करने के संवैधानिक अधिकार पर ही डंडा चला दिया। 
    
दिनांक 30 जनवरी को मारुति धरना स्थल पर मारुति फैक्टरी से कार्य कर निकाले गए CW व TW (अग्निवीर) मजदूरों की एक सभा रखी गई थी। इन मजदूरों को मारुति फैक्टरी 9 महीने के लिए कार्य पर रखती है ओर फिर इनको निकाल देती है। कल की सभा ना हो इसके लिए पुलिस ने धरना दे रहे मजदूरों को बसों में भरकर फर्रुखनगर छोड़ दिया व धरना स्थल पर धारा 144 लगा दी गई है। स्थाई नौकरी की मांग करने वाले मजदूरों के साथ अपराधियों जैसा बरताव किया जा रहा है। ये मजदूर मारुति में स्थाई नौकरी की मांग कर रहे थे। मजदूरों के शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन पर रोक लगाई जा रही है। मोदी सरकार के अच्छे दिन यही हैं कि स्थाई नौकरी करने वाले मजदूरों, बेरोजगारों व नौजवानो को लाठियां, डंडे व मुकदमे मिल रहे हैं। इससे साफ प्रतीत हो रहा है कि मोदी सरकार एकाधिकारी पूंजी की सेवा में तमाम श्रम कानूनों को किनारे लगा कर व धरना-प्रदर्शन करने वालों पर मुकदमे लगा कर जेलों में डाल रही है। मोदी सरकार की यह कार्यवाही फासीवाद की ओर बढ़ते कदम है।
    
इस दमनपूर्ण कार्यवाही का बेलसोनिका मजदूर यूनियन व अन्य मजदूर संगठनों ने विरोध किया है। गौरतलब है कि बीते एक माह में मारुति के विभिन्न प्लांटों से वक्त वक्त पर निकाले गये मजदूरों ने एकजुट होकर दो बड़े प्रदर्शन अपनी कार्यबहाली को लेकर किये थे। 30 जनवरी को फिर एक बड़े प्रदर्शन की संभावना है जिसे रोकने के लिए प्रशासन ने धरनारत मजदूरों के धरने को जबरन समाप्त करवा दिया।    -गुड़गांव संवाददाता

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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